आज़ादी के इतने सालों बाद ‘लहू बोलता भी है’ जैसी किताब लिखने का क्या मकसद है?
लहू बोलता भी है जैसी किताब लिखने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मौजूदा दौर में हुकूमत के इशारे पर मीडिया के ज़रिये $गैर मामूली सवालों को देशभक्ति से जोड़कर एक $खास तब$के (मुसलमानों) को निशाना बनाया जा रहा है। मीडिया इतिहास के हवालों को तोड़-मरोड़कर पेश करने लगी है। सरकारी डाक्युमेंटरी में आज़ादी की एक तर$फा तस्वीर दिखाई जाने लगी है। दूसरी तरफ बहुसंख्यक वर्ग के युवाओं के मन में न$फरत का बीज बोया जा रहा है जिसका असर सड़कों पर दिखने भी लगा है।
हालांकि सच्चाई यह है कि 1857 से 1947 तक हज़ारों-हज़ार मुस्लिम स्वंतत्रता सेनानी फांसी के तख्तों पर लटका दिये गये और जब फांसी देने के लिए जगह कम पड़ गयी तो सड़क के किनारे पेड़ों पर लटका दिये गये। तोपों से बांधकर बारूद से उड़ाये जाने वाले सिर्फ मुसलमान ही थे। काला पानी सज़ा देकर अण्डमान की सेल्यूलर जेल भेजे जाने वालों में 90 प्रतिशत मुसलमान ही थे। हज़ारों की तादाद में जिंदा जला दिये जाने वाले भी मुसलमान ही थे। लाखों की तादाद में $कैद कर जेल खानों में भेजे जाने वाले मुसलमान ही थे। मगर दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ लुटा देने वाली मुस्लिम $कौम की $कुर्बानियों को इतिहास की किताबों से मिटाकर उन लोगों का बनावटी इतिहास लिखा जा रहा है जिनका जंग-ए-आज़ादी से कोई लेना-देना नहीं था। बल्कि यह कहना उचित होगा कि वे लोग अंग्रेज़ों की मुखबिरी कर आंदोलन को कमज़ोर करने का काम कर रह थे। उनमें से सिर्फ एक ‘वीर’ कालापानी की सज़ा पाकर अण्डमान भेजा जाता है वह भी चंद दिनों बाद माफी मांगकर बाहर आ जाता है।
दूसरे धर्मों और जातियों के ऐसे हज़ारों लोग होंगे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ लुटा दिया मगर उनका जि़क्र इतिहास में कहीं नहीं मिलता। फिर आपने इस किताब में सिर्फ मुसलमान जांबाज़ों की ही सूची क्यों बनाई?
स्वतंत्रता संग्राम में यूँ तो धर्म-जाति की कोई हैसियत नहीं होती और न ही होनी चाहिए। जब देश का बहुसंख्यक वर्ग कम संख्या में रहने वाले भाइयों के साथ इंसाफ न करे तब जिनके साथ इंसाफ नहीं होता उनकी मजबूरी है कि वे अपने पुरखों को धर्म और ज़ात की बुनियाद पर याद भी करें और उनके बारे में लिखें भी चूंकि अंग्रेज़ों से लड़ाई के पीछे देश को आज़ाद कराना तो म$कसद था ही मगर इसके पीछे मुसलमानों को उनकी सलतनत जाने का क्रोध भी शामिल था।
दूसरे धर्म व ज़ात के लोगों की हिस्सेदारी मुसलमानों के मु$काबले कम थी, लेकिन मुसलमानों की हिम्मत और सब कुछ दांव पर लगा देने का हौसला दूसर के मुकाबले कहीं ज़्यादा था और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि शहीदों में मुसलमानों की संख्या सबसे ज़्यादा थी। यहीं इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मुसलमानों की जंग-ए-आज़ादी-ए-हिन्द में हिस्सेदारी कम करने का सिलसिला आज़ादी मिलने के बाद से ही शुरू हो गया था। वर्तमान सरकार ने तो शायद उसे जड़ से ही खत्म करने की ठान रखी है। नतीजे में जंग-ए-आज़ादी के असल चेहरे पर्दे के पीछे चले गये और उंगली कटाकर शहीदों में नाम लिखवाने वाले बहुत से तथाकथित किरदार सामने ला दिये गये और इंसाफ और ईमानदारी का खून करने वालों को शायद पता नहीं होता कि ‘लहू बोलता भी है।’ इसलिए मुसलमान शहीद-आने-वतन की सूची बनाना और उसकी हिफाज़त करना मेरी मजबूरी और वक़़्त की मांग भी है।
जिस कौम के सामने अपने माज़ी का इतिहास न हो उस $कौम का वर्तमान में जीना मुश्किल होता है और भविष्य के निर्माण के लिए कोई रास्ता तय करना असम्भव। इसलिए हर $कौम अपने इतिहास की हि$फाज़त करती है। अगर मैंने कर दिया तो इतना हंगामा क्यों? शायद यह ज़रूर है कि हम से पहले किसी भाषा में यहां तक कि उर्दू में भी किसी ने सि$र्फ स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम मूवमेंट व मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों पर किताब लिखने का जोखिम उठाना मुनासिब नहीं समझा।
आज के दौर में देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने वालों के बारे में आप क्या कहेंगे?
बहुत ही अ$फसोस की बात है कि मुसलमानों की व$फादारी पर सवाल वो उठा रहे हैं जिनका इस मुल्क की आज़ादी के लिए चली 100 साल के संघर्ष में कहीं नामों निशान नहीं था और आज जब वो हुकूमत में आते हैं तो फजऱ्ी इतिहास लिखवाकर अंग्रेज़ों की मुखबिरी करने वालों, अंग्रेज़ों से मा$फी मांगने वालों को ‘वीर’ बताते है। उसी मानसिकता के दूसरे लीडर ने बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार के में उप मुख्यमंत्री की हैसियत से 1942 में वाइसराव को लिख कर भरोसा दिलाया था कि भारत छोड़ो आंदोलन को सख्ती से कुचल दिया जायेगा। तब सवाल उठता है कि देशभक्ति का दावा करने वालों से यह ज़रूर पूछा जाये की आप और आपकी मानसिकता के लोगों की स्वतंत्रता आंदोलन में क्या हिस्सेदारी थी और अगर नहीं तो देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने का काम बंद कर दें। इन दो के अलावा कोई तीसरा नाम चराग लेकर ढूंढऩे से भी नहीं मिलता।
ऐसे विपरीत माहौल में जबकि हर तरफ अल्पसंख्यकों के विरुद्ध तरह तरह के अभियान चलाये जा रहे हैं, एक आम नागरिक को क्या करना चाहिए?
वक़्त की ज़रूरत है कि इस मुल्क में रहने वालों को यह बताया जाये कि वो कौन से मुस्लिम आंदोलनकारी थे जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ $कुर्बान कर दिया। आज की नौजवान नस्ल उनसे अवगत हो और मुल्क के लिए दी गयी उनकी कुर्बानियों से सबक ले ताकि नफरत के अंधेरे जो अंग्रेज़ों की देन थी जिसे आज काले अंग्रेज़ बरकरार रखना चाहते है, ऐसी मानसिकता से निकल कर देश के सभी धर्म, $कौम-ज़ात भाईचारे व मेल-मिलाप का माहौल पैदा करें और मुल्क में बसने वाले सभी नागरिकों के मज़हब का सम्मान करें।
जहां कुछ राजनीतिक पार्टियां वोट के लिए देश में नफरत फैला रही हैं वहीं कुछ दूसरी पार्टिया अपने आपको अल्पसंख्यकों का हमदर्द बताने की कोशिश कर रही हैं। आपकी क्या राय है?
एक तरफ सत्ताधारी पार्टी अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत बांट रही है दूसरी तरफ अपने आपको सेकूलर कहने वाली पार्टियां मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यक वर्गों को साम्प्रदायिक शक्तियों का डर दिखाकर सिर्फ वोट लेना चाहती हैं। बदले में उनके लिए कुछ करना नहीं चाहती है। मिसाल के तौर पर अगर दूसरी पार्टियां मुसलमानों के मसायल के लिए संजीदा होती तो आज साम्प्रादायिक ताकतें सरकार में नहीं आती।
कहा जा रहा है कि इतिहास बदलने की कोशिश की जा रही है। इसको कैसे रोका जा सकता है?
इतिहास बदलने की कोशिश नहीं साजि़श हो रही है इसको रोकने का सिर्फ एक ही उपाय है कि जिन लोगों ने देश की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया उनकी कुर्बानी को मौजूदा हालात में जनता के सामने लाकर फजऱ्ी व ‘फैब्रिकेटेड’ इतिहास का पर्दा$फाश किया जाये। इसी प्रयास में हमारी किताब ‘लहू बोलता भी है’ जिसमें 1,756 शहीद स्वतंत्रता सके सिपाहियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। मुझे उम्मीद ही नहीं बल्कि यकीन है कि आज की नौजवान नस्ल जब इसे जानेगी तो $खुद-ब-खुद उसके ज़ेहन से न$फरत का ज़हर कम होगा।