दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं, जो मानव सेवा की सीख न देता हो। कहा भी गया है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है। यही बात हमारे कई संतों ने भी समझायी है। लेकिन मेरा मानना है कि इस दुनिया को भले ही एक ही ईश्वर ने बनाया है; भले ही एक ही धरती पर अरबों लोग रहते हैं; भले ही सबकी मूलभूत ज़रूरतें एक जैसी हैं; भले ही सब एक ही तरह पैदा होते और एक ही तरह मरते हैं; लेकिन दुनिया के सभी लोग न तो कभी भी एक मत हुए हैं और न कभी एकमत हो सकेंगे। क्योंकि हर किसी के जीने के अपने-अपने तरीके हैं। हर किसी का अपना विचार है। हर किसी ने अपने हिसाब से ईश्वर के स्वरूप का बखान किया है और अपने-अपने मतानुसार चन्द किताबों में से किसी एक या कुछ को चुना है, जिन्हें धर्म-ग्रन्थ का नाम दे दिया है। लेकिन दु:ख इस बात का होता है कि हमने इन धर्म-ग्रन्थों की आड़ लेकर मज़हबी दीवारें खड़ी कर दी हैं और असल झगड़े की जड़ यही है।
दरअसल, अब हम इन धर्म-ग्रन्थों की पूजा करते हैं। इनमें क्या सही और क्या गलत बताया गया है? इससे हमारा कोई सरोकार नहीं! मतलब हमें इंसान बनाने की सीख देने वाले धर्म-ग्रन्थों की बात हम नहीं मानते। आिखर क्यों? क्या हम इन धर्म-ग्रन्थों की पूजा करके या इन्हें सीने से चिपकाकर फिरते रहने से इंसान बन सकते हैं? यह ठीक वैसे ही नहीं होगा, जैसे किसी पागल को राजसी वस्त्र पहना दिये जाएँ और उसे राजा समझ लिया जाए।
याद रखिए, अगर आज हम सभी जीव-जन्तुओं में श्रेष्ठ हैं, तो उसका कारण हमारी बुद्धि, हमारा ज्ञान है। अगर ईश्वर ने हमें बुद्धि नहीं दी होती, तो हम भी एक जानवर के सिवाय कुछ नहीं होते। हालाँकि, यह पशुता ही है कि हम एक-दूसरे से नफरत करते हैं। झगड़ा करते हैं। वह भी किस बात पर? या तो जातिवाद को लेकर, या गरीबी-अमीरी का भेद करके या मज़हबों की आड़ लेकर; जिसका कारण बनते हैं- अलग-अलग धर्मों के नाम पर बनाये गये मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे, स्पूत, सिनेसाँग और मज़ार आदि। ये धर्म-स्थल झगड़े का उतना बड़ा कारण नहीं हैं, लेकिन हम एक-दूसरे के धर्म और धर्म-स्थल को तुच्छ और अपने धर्म का विरोधी मानते हैं। जबकि हम यह भूल जाते हैं कि सभी धर्म-स्थल उस एक ही परमात्मा, उस एक ही ईश्वर की उपासना का साधन मात्र हैं। वही ईश्वर, जिसे हमने अपनी-अपनी भाषा में अलग-अलग नामों से जाना और माना है। सभी धर्मों ने भी यही कहा है कि ईश्वर एक है और उसके अलावा कोई दूसरी शक्ति पूरे ब्रह्माण्ड में हीं है। मगर हमारे मन की आँखों पर तो परदा पड़ा हुआ है। यही वजह है कि हम भटके-लड़ते फिर रहे हैं। कई लोग तो अपने ही धर्म के लोगों से भेदभाव करते हैं। कहीं यह भेदभाव सम्पत्ति के अन्तर से पनपता है, तो कहीं-कहीं जातिवाद के नाम पर पनपता है। कभी सोचा है कि अगर हम जितना समय, पैसा, दिमाग मज़हबी भेदभाव बढ़ाने, एक-दूसरे को नीचा दिखाने, एक-दूसरे को गिराने में लगाते हैं, अगर उतना सबकुछ हम एक-दूसरे की भलाई में, एक-दूसरे मदद करने में, प्रकृति के उत्थान में लगाएँ, तो मानव जातिके साथ-साथ समस्त प्राणियों का भला होगा। सभी खुशहाल होंगे। सबका जीवन सरल, सुगम और सफल हो जाएगा।
आज के दौर में जब हर साल कोई-न-कोई नयी बीमारी पैदा हो रही है, क्या हमें अस्पताल बनाने की ज़रूरत नहीं है? क्या हमें डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और शिक्षाविद् पीढिय़ाँ तैयार करने की ज़रूरत नहीं है? आज कोरोना के भय से न केवल पूरी दुनिया के लोग घरों में कैद हैं, बल्कि हमें धाॢमक स्थलों को भी बन्द करना पड़ा। आज अगर इस महामारी से कोई लड़ रहा है, तो वे हैं डॉक्टर। आज अगर कोई धर्म-स्थल मानवसेवा कर पा रहा है, तो वो हैं अस्पताल। क्या हमने कभी विचार किया है कि ये धर्म-स्थल हमारी भावनाओं को संतुष्ट करने, शान्ति प्रदान करने और ईश्वर को याद करने के संसाधन मात्र हैं। ईश्वर ने तो हमें खुद के साथ-साथ निर्बलों की रक्षा और मदद करने का भी आदेश दिया है। अगर आपने किसी भी धर्म-ग्रन्थ को कभी पढ़ा हो, तो इस बात को ज़रूर पढ़ा होगा कि ईश्वर ने हम इंसानों को कर्म करने के लिए पैदा किया है। अगर हम कर्म नहीं करेंगे, तो हमारा जीवन नरक बन जाएगा। इसी तरह अगर हम खुद की रक्षा नहीं करेंगे, तो हम मर जाएँगे। हम पर न केवल जीव-जन्तु हमला कर देंगे, बल्कि अनेक बीमारियाँ हमें तड़पा-तड़पाकर मार देंगी। हमारी भलाई केवल अपनी मदद और अपनी स्वयं की रक्षा करने में ही नहीं है, बल्कि दुनिया भर की मुसीबतों से मिलकर लडऩे में भी है। हमारी ज़िन्दगी का मोल और महत्त्व भी तभी है, जब हम एकजुट होकर आगे बढ़ें। एक-दूसरे की मदद करें। एक-दूसरे के काम आएँ। इसीलिए कहा भी गया है कि दुनिया में इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। इतिहास गवाह है कि जहाँ-जहाँ और जब-जब लोग स्वार्थ, घृणा और लोभ में आकर एक-दूसरे के बैरी हुए हैं; एक-दूसरे से नफरत करने पर आमादा हुए हैं; तब-तब मानव जाति का विनाश हुआ है या समूल नाश हुआ है।
मानव जाति अगर आज सुरक्षित रह सकी है या पूरी दुनिया पर शासन कर सकी है, तो उसके पीछे की वजह एक साथ मिलकर मोहब्बत से रहना ही है। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि जब मानव जंगलों में भटकता था, तब भी उसने जंगली जानवरों से बचने और भोजन की व्यवस्था के लिए समूह में रहना शुरू किया था। बाद में वह बस्तियों में रहने रहा और इस तरह आज मनुष्य विजयी है। मगर एक हारा हुए विजेता की तरह। क्योंकि अब मनुष्य आपस में लडक़र मरने पर आमादा है। मेरा एक शे’र है-
‘ज़मीं बाँटी, खुदा बाँटा, ज़ुबाँ-मज़हब सभी बाँटे
मगर इंसान खुद ही बँट गया ये ही हकीकत है’