थाईलैंड में 4 नवंबर को आयोजित हुए विश्व के प्रस्तावित सबसे बड़े व्यापार समझौता सम्मेलन क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से भारत ने ख़ुद को अलग कर लिया। इस सम्मेलन में भाग न लेने की बात कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से बाहर रहेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि आरसीईपी समझौते का मौज़ूदा प्रारूप न तो भारत की लंबित माँगों और चिंताओं का भी समाधान करता है और न ही अपनी मूल मंशा और सिद्धांतों को पूरी तरह स्पष्ट करता है। उन्होंने यह भी कहा कि भविष्य में इसके परिणाम भारत के लिए न उचित होंगे और न संतुलित। ऐसी स्थिति में आरसीईपी समझौते में शामिल होना भारत के लिए संभव नहीं होगा।
साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा कि क्षेत्रीय एकीकरण के साथ मुक्त व्यापार और नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए भारत प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा कि सभी भारतीयों के हितों को ध्यान में रखते हुए जब मैंने आरसीईपी समझौते का आकलन किया, तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिला। ऐसे में न तो गाँधीजी के आदर्शों ने और न ही मेरी अंतरात्मा ने आरसीईपी में शामिल होने की अनुमति दी। उन्होंने कहा कि आरसीईपी वार्ता के सात वर्षों की अवधि में वैश्विक, आर्थिक और व्यापार परिदृश्य समेत अनेक चीज़े बदल चुकी हैं और हम किसी भी सूरत में इन बदलावों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने पहले ही स्पष्ट किया था कि भारत आरसीईपी समझौते की वार्ता के व्यापक और संतुलित परिणाम के लिए प्रतिबद्ध है। भारत इस बात पर गौर करेगा कि समझौते में व्यापार, निवेश तथा सेवाओं में उसके हितों का पूरा ध्यान रखा जाए। बता दें कि आरसीईपी समझौता सम्मेलन में भारत के भाग लेने से इन्कार करने के थाईलैंड के वाणिज्य मंत्री जूरिन लकसानाविसित ने कहा कि भारत को छोडक़र 15 देश समझौते को लेकर सहमत हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि आरसीईपी समझौते से भारत के बाहर होने के फैसले से देश के किसानों, सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योगों और डेयरी क्षेत्र को घाटे से बचाने के लिए बड़ी मदद मिलेगी। उनका यह भी कहना है कि आरसीईपी में भारत का रुख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मज़बूत नेतृत्व और दुनिया में भारत के बढ़ते कद को दर्शाता है। भारत ने जहाँ गरीबों के हितों के संरक्षण की बात की है, वहीं देश के सेवा क्षेत्र को लाभ की स्थिति देने का भी प्रयास किया है। इस फैसले पर भारत का रुख काफी व्यावहारिक रहा है।
समझौता होने पर बढ़ते चीनी उत्पाद
माना जा रहा है कि अगर आरसीईपी समझौता होता है, तो चीन के सस्ते कृषि व औद्योगिक उत्पादों से भारतीय बाज़ार भर जाते। इससे न केवल भारतीय व्यापार घाटा बढ़ जाता, बल्कि लोगों के रोज़गार भी छिनते। कहा जा रहा है अगर भारत आरसीईपी में शामिल होता, तो यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र होता। अनुमानित तौर पर इससे दुनिया की आधी आबादी जुड़ती, इसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था का 40 फीसदी तथा वैश्विक जीडीपी का 35 फीसदी हिस्सा होता।
फ्रंट फुट पर खेला भारत
आरसीईपी में भाग न लेकर भारत फ्रंट फुट पर खेला है। भारत ने इस बार पूरी तरह व्यापार घाटे पर अपनी चिंताओं को दूर करने की आवश्यकताओं पर ज़ोर दिया है। साथ ही भारतीय सेवाओं और निवेशों के लिए वैश्विक बाज़ार खोलने की ज़रूरत पर भी भारत ने ज़ोर दिया है। विदित हो कि पहले व्यापार सम्बन्धी मुद्दों को लेकर वैश्विक शक्तियों द्वारा भारत पर दबाव डाला जाता था। इस बार भारत ने कहा है कि अब वे दिन लद गए। माना जा रहा है कि भारत के इस फैसले से जहाँ किसानों और गरीबों के हितों की रक्षा होगी, वहीं सेवा के क्षेत्र में भी लाभ होगा।
पिछले समझौते में नुकसान उठा चुका है भारत
बता दें कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में आसियान देशों के लिए 74 फीसदी बाज़ार को खोला था; लेकिन इंडोनेशिया ने भारत के लिए सिर्फ 50 फीसदी बाज़ार खोला था। इतनी ही नहीं भारत-चीन एफटीए को लेकर 2007 में भारत ने सहमति जताई थी और चीन के साथ 2011-12 में आरसीईपी समझौते पर वार्ता को लेकर राज़ी हो गया था। भारत के इस फ़ैसले से आरसीईपी देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा 2004 में सात अरब डॉलर से बढक़र 2014 में 78 अरब पर पहुँच गया था।
भारत के पीछे हटने के छह कारण
आरसीईपी समझौते से भारत के पीछे हटने के छह कारण माने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर भारत आरसीईपी समझौते में शामिल होता, तो उसे आयात होने वाले 90 फीसदी सामानों पर 15 साल तक के लिए शुल्कों में कटौती करनी पड़ती। इसके साथ ही भारतीय बाज़ार चीन के सस्ते सामान के साथ-साथ न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया के डेयरी उत्पादों से पट जाते। इससे देश के छोटे कारोबारियों और डेयरी किसानों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ता। भारत के लिए चीन उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है; जबकि भारत चीन के लिए 11वाँ बड़ा साझेदार है।
आरसीईपी के 11 देशों से कारोबार में भारत का व्यापार घाटा 104 अरब डॉलर का है। यानी निर्यात की तुलना में भारत इन देशों से ज़्यादा आयात करता है। इस सौदे में डाटा लोकलाइजेशन बड़ा मुद्दा था।