क्या है सूचना आयोग का फैसला ?
केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था मानते हुए उन्हे सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की घोषणा की है. अपने फैसले में सूचना आयोग ने छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को छह सप्ताह के अंदर जन सूचना अधिकारी नियुक्त करने और सूचना मांगे जाने पर चार सप्ताह के भीतर जानकारी उपलब्ध करवाने को कहा है. इस फैसले से पार्टियों के खर्च और चंदे आदि के हिसाब-किताब में पारदर्शिता आएगी. सूचना आयोग ने इस आधार पर फैसला दिया है कि राजनीतिक दल सरकार से वित्तीय मदद और रियायती दर पर भूमि आदि लेते रहते हैं लिहाजा वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं. फिलहाल राजनीतिक दलों के अंदरूनी लेन-देन की जानकारी सिर्फ उनके द्वारा भरे जाने वाले आयकर रिटर्न के आधार पर ही मिल पाती है.
सूचना आयोग में क्या अपील की गई थी ?
आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने सूचना आयोग के समक्ष सभी राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार में लाने की मांग की थी. अपनी शिकायत में सुभाष अग्रवाल का कहना था कि कांग्रेस और भाजपा को दिल्ली में बेहद रियायती दर पर सरकारी जमीन मुहैया कराई गई है इसलिए ये दल जनता के प्रति जवाबदेह हैं. वहीं अनिल बैरवाल का तर्क था कि माकपा, भाकपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और बसपा जैसे दलों पर जनता का पैसा खर्च होता है लिहाजा ये आरटीआई की धारा 2 (एच) के तहत आते हैं. दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए तीन सदस्यों की पीठ ने तीन जून, 2013 को यह फैसला दिया.
फैसले पर राजनीतिक पार्टियों की प्रतिक्रिया क्या है ?
राजनीतिक दलों को सूचना आयोग का यह फरमान गले नहीं उतर रहा है. कांग्रेस, भाजपा और वाम पार्टियों समेत अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी खुद को आरटीआई कानून के दायरे में लाने का विरोध किया है. लगभग सभी दलों की एक ही राय है कि वे सरकारी संस्था नहीं हैं. कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी का तर्क है कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं और वे सरकारी धन पर नहीं चलतीं. सीपीएम का भी कहना है कि वह इस आदेश को नहीं मान सकती. इस हिसाब से तमाम गैरसरकारी संस्थाओं को भी आरटीआई के तहत लाना चाहिए, वे भी सरकार से रियायत पाते हैं.
-प्रदीप सती