आरक्षण का दुष्चक्र

शिवेन्द्र राणा

आरक्षण के बाबत अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला चर्चा में है। उसने विश्वविद्यालयों में नस्‍ल के आधार पर होने वाले एडमिशन को ख़ारिज कर दिया है। अमेरिकी न्यायपालिका का यह फ़ैसला आरक्षण की परंपरागत जन्म आधारित अवधारणा का खण्डन करता है। अमेरिका से पूर्व 2018 में बांग्लादेश ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण को समाप्त कर दिया था। अब भारत में भी आरक्षण की समीक्षा का विमर्श चर्चा में है।

भारत में जाति आधारित असमानता एवं भेदभाव का लम्बा इतिहास रहा था। एक ऐसा वर्ग, जो इसी वजह से तरक़्क़ी की भाग-दौड़ में कहीं पीछे छूट गया था। अत: स्वाभाविक रूप से संविधान निर्माताओं ने इस वर्ग के लिए आरक्षण के रूप में विशेष प्रावधान निर्धारित किये। आरक्षण एक ऐसी व्यवस्था है, जो भेदभाव पर आधारित है। हालाँकि इसका भाव विभेद करने का नहीं, बल्कि समता स्थापना का है। लेकिन सात दशक बीतने पर भी इसकी न तो व्यापक समीक्षा हुई और न ही इस पर राष्ट्रव्यापी गम्भीर विमर्श; जबकि आज यह व्यवस्था गम्भीर विवादों का केंद्र बन चुकी है। ऐसा क्यूँ है?

संविधान के अंतर्गत शैक्षिक एवं सिविल सेवा में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फ़ीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी। संवैधानिक रूप से यह व्यवस्था नियत-काल के लिए थी। किन्तु दलित एवं वनवासी समाज की स्थिति को देखकर इसे प्रति दशक आगे बढ़ाया जाता रहा। यहाँ तक ठीक था। किन्तु आरक्षण की विकृत राजनीति की शुरुआत तब हुई, जब सत्ता के खेल में जातिवाद की ढाल के रूप में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण लागू हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सन् 1990 में चौधरी देवीलाल की चुनौती और भाजपा के अयोध्या आन्दोलन से निपटने के लिए मंडल कार्ड खेला। लालकृष्ण आडवाणी लिखते हैं- ‘वह मंडल मुद्दे का प्रयोग केवल राजनीतिक बचाव के लिए कर रहे हैं।’

इसे लागू करने का तरीक़ा भी बड़ा अजीब था। मंडल आयोग की सिफ़ारिश पर बहस के दौरान विपक्ष के नेता राजीव गाँधी ने 6 सितंबर को लोकसभा में अपने भाषण में ओबीसी वर्ग के सुविधा प्राप्त लोगों को आरक्षण का लाभ दिये जाने की आवश्यकता पर प्रश्न उठाया। सदन में बहस के दौरान आरक्षण के लाभ से क्रीमी लेयर को अलग करने के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टियाँ कांग्रेस और भाजपा सभी एकमत थे। इसी के अनुरूप सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने का निर्णय दिया। असल में आयोग ने 3,743 जातियों और समुदायों की पहचान ओबीसी वर्ग के रूप में की थी, जिसके लिए विभिन्न सामाजिक शैक्षिक एवं आर्थिक मानदंडों को स्वीकार किया गया तथा इन्हें सरकारी सेवाओं और शिक्षा में 27 फ़ीसदी आरक्षण की सिफ़ारिश की थी। किन्तु इस रिपोर्ट के निर्धारित मानक दोषपूर्ण होने के चलते यह व्यवस्था भी दोषपूर्ण साबित हुई।

इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि आरक्षण की जो वास्तविक विचार पद्धति लागू हुई, उसे विस्मृत करते हुए पहले से सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त, सबल मध्यवर्ती जातियों- यादव, कुर्मी, कोईरी, राजभर ने अनाधिकृत रूप से आरक्षण के लाभ पर अधिकार कर लिया और जिन जातियों को वास्तव में इसकी ज़रूरत थी; पिछड़ी ही रह गयीं। ओबीसी आरक्षण की विकृति देखिए कि जाट जैसी प्रभावशाली जाति पिछड़ा वर्ग में शामिल हुई और पाटीदार इसमें शामिल होने की माँग कर रहे हैं। हालाँकि अक्टूबर, 2017 में ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने के लिए गठित रोहिणी आयोग इस दिशा में एक सकारात्मक पहल थी; किन्तु सरकार अब तक उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करने या लागू करने से बचते हुए लगातार आयोग का कार्यकाल बढ़ाती जा रही है। दूसरी ओर आज जो आरक्षण बचाने के नाम पर पिछड़ा एवं अनुसूचित जाति और जनजाति की गोलबंदी है, वह भी राजनीतिक स्वार्थ पर आधारित है। विरोधाभास देखिए कि सार्वजनिक जीवन में ओबीसी समाज के लोग दलित वर्ग के आरक्षण एवं उनकी मेरिट के ख़िलाफ़ नकारात्मक टिप्पणियाँ करते आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन समस्या सिर्फ़ यही नहीं है। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था का सबसे बड़ा दुर्गुण इसके पाश्र्व में रूढि़वाद है, जिसके अनुसार तथाकथित सवर्ण जातियों में पैदा होने वाला हर शख़्स अत्याचारी, ब्राह्मणवादी शोषक और चाँदी के चम्मच के साथ पैदा हुआ है। जबकि आरक्षण से लाभान्वित जातियों के सारे लोग मजलूम, अकिंचन, साधन विहीन, दमन से पीडि़त और प्रताडि़त हैं। वास्तव में आरक्षण के कारण फैले विद्वेष के पीछे यही मूल कारण रहा है, जिसने संवैधानिक रूप जन्मना विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग पैदा कर दिया है। आरक्षण, जिसे सामाजिक समानता की स्थापना का संवैधानिक ज़रिया घोषित किया गया था; अब अघोषित विशेषाधिकार का कारण बन चुका है।

पिछड़े एवं दलित वर्ग के लिए आरक्षण सामाजिक न्याय एवं प्रोत्साहन की परिकल्पना होगी, किन्तु सामान्य वर्ग के लिए यह दांडिक विधान बन चुका है। अब यदि सामाजिक अन्याय के शास्त्रीय तर्कों को स्वीकार करें, तब भी न तो वर्तमान तथाकथित सवर्ण पीढ़ी ने ऐसा कोई जातिगत श्रेष्ठता से युक्त एकाधिकारवादी सत्ता क़ायम की है और न ही वर्तमान आरक्षित वर्ग ने ऐसी कोई मनुवादी व्यवस्था झेली है। फिर भी पिछले सात दशकों से अधिक समय से तथाकथित सवर्ण मौन होकर अपने पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित कर रहे हैं। यदि यह दांडिक प्रक्रिया अभी और लम्बी चलनी है, तो चले। किन्तु इसे भी तथाकथित सवर्ण समाज झेल ही लेगा, ताकि राष्ट्र का संतुलन बना रहे। किन्तु दंडविधान के शास्त्रीय नियमों के अनुसार यह विचार अस्वीकृत है कि अतीत में किसी समाज से हुए अपराध के लिए उसकी वर्तमान पीढ़ी को दंडित किया जाए, जिनका इन सबसे कोई वास्ता ही न रहा हो। तब तो यह और भी अनुचित लगता है, जब वर्तमान में अपराधी ठहराने तथा दंड तय करने वाले न किसी भेदभाव का शिकार रहे हों और न ही किसी सामाजिक अपराध का।

असल में आज सिर्फ़ राजनीतिक गोलबंदी के रास्ते सत्ता हथियाने तथा कमज़ोर मेरिट की स्थिति में पद पाने की लालसा में इतिहास के कुरूप विषयों को उभारा जा रहा है। इसके प्रभाव से सामाजिक ध्रुवीकरण एवं विघटन दोनों तीव्र हुए हैं। इन सबमें मेरिट और योग्यता एक अहम बिन्दु है, जिस पर विस्तृत चर्चा आवश्यक है। सन् 2019 में आरक्षण व्यवस्था सही दिशा मिली, जब 103वें संविधान संशोधन के ज़रिये इसे 10 फ़ीसदी ही सही; लेकिन आर्थिक आधार पर लागू किया गया। हालाँकि यह नीति से अधिक राजनीतिक से प्रेरित था और आरक्षित वर्ग इसका विरोधी भी है। आरक्षण के ये घोर समर्थक ईडब्लूएस आरक्षण के विरोध में मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। यह कैसा स्वार्थ है? फिर इसे आपकी जातिवादी कुंठा क्यों न माना जाए? वस्तुस्थिति यह है कि आज की भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा आधार जातिवाद और आरक्षण इसका सबसे अमोघ हथियार है। इसी अनुरूप आज तर्कविहीन आरक्षण के नये-नये पैतरों में सरकारें लिप्त हैं। विकास के नाम पर सरकारें इसे ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान रही हैं। आज जो जातिगत जनगणना की तीव्र माँग है, वो इसी विचार से प्रेरित है। यही नहीं, जातिगत गोलबंदी के ज़ोर से आरक्षण को और बढ़ाने का दबाव भी बनाया जा रहा है।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के प्रमुख हंसराज गंगाराम अहीर के अनुसार, ‘जल्दी ही केंद्र की ओबीसी लिस्ट में छ: राज्यों के क़रीब 80 जातियों को जोड़ा जा सकता है। वहीं तेलंगाना ने 40 जातियों के नाम; आंध्र प्रदेश ने तुरुक कापू जाति; हिमाचल प्रदेश ने माझरा समुदाय; महाराष्ट्र ने लोधी, लिंगायत, भोयर पवार और झंडसे; पंजाब ने यादव समुदाय और हरियाणा ने गोसाईं जाति को केंद्र की सूची में शामिल करने का अनुरोध किया है।’

पता नहीं यह पिछड़ावाद की सूची कहाँ जाकर रुकने वाली है? क्योंकि आरक्षण के इस जिन्न को जिस प्रकार तर्कहीन स्वार्थ के लिए जगाया गया है; अब इसे वापस बोतल में बन्द करना अत्यंत दुष्कर दिख रहा है। इसका परिणाम नित नये विस्फोटक रूप में प्रकट हो रहा है। आरक्षण की आग देश को किस तरह जला रही है, इसके सबसे बड़े उदाहरण 2007 का गुर्जर आन्दोलन एवं 2016 का जाट आन्दोलन थे। इस भयादोहन द्वारा मेरिट की लूट में हिस्सेदारी की प्रतिस्पर्धा देखिए कि देश में जिस पाटीदार समाज सबसे ज़्यादा आरक्षण का विरोध किया, उसी ने पिछड़ा वर्ग में शामिल होने के लिए 2015 में किस तरह का भयंकर आन्दोलन गुजरात में छेड़ा था। अब किसी राष्ट्र के जीवन में इससे बड़ी क्या विडंबना होगी कि एक ओर वह विश्व गुरु और विकसित होने की जिजीविषा दिखा रहा है और दूसरी तरफ़ उसके नागरिक समाज में पिछड़ा एवं दलित बनने की होड़ में लगे हैं। आज प्रतिस्पर्धा इस बात की नहीं है कि कौन अपनी प्रगतिशीलता से समाज का नेतृत्व करेगा, बल्कि होड़ इसकी है कि कौन अपने आपको कितना अकिंचन, दलित और पिछड़ा दिखाने में कामयाब रहता है।

हालाँकि एससी-एसटी वर्ग में क्रीमीलेयर का एक बेहद ज़रूरी मुद्दा है, जिस पर अनुसूचित जाति एवं जनजाति समाज बिलकुल भी विमर्श को तैयार नहीं है। आज अनुसूचित समाज में एक ऐसा वर्ग तैयार है, जो अपने ही वर्ग का शत्रु बना बैठा है। संविधान प्रवर्तन के पश्चात् अनुसूचित समाज की जिन जातियों और सम्बन्धित जातियों के जागरूक वर्ग ने शिक्षा और नियुक्तियों में आरक्षण का लाभ उठाया और आर्थिक-सामाजिक उन्नति की। उनमें एक धनाढ्य एवं प्रभावी वर्ग निर्मित हुआ, जो आज नेतृत्वकर्ता की भूमिका में है। स्वतंत्रता काल से औसतन तीन पीढिय़ों से आरक्षण से लाभान्वित यह वर्ग स्वयं को क्रीमीलेयर मानने और उसके अनुकूल आरक्षण में अपना हिस्सा छोडऩे को तैयार नहीं है, जबकि इसका लाभ उसके अपने समाज को ही मिलना है। सोचिए, यह कैसा जातिवादी प्रेम है? जहाँ अपने समाज की ज़रूरत सिर्फ़ आरक्षण का लाभ बचाने के लिए गोलबंदी हेतु है। किन्तु जब उसके लिए त्याग की बात आती है, तो वहाँ कोई तत्परता नहीं है।

यह विमर्श किसी जाति या वर्ग पर कोई दोषारोपण का प्रयास या पक्षधरता की कोशिश नहीं है। अपितु यह आरक्षण व्यवस्था के एक भिन्न पहलू की समीक्षा का प्रयास है। आरक्षण व्यवस्था $गलत नहीं है। हमेशा समाज में एक वर्ग मौज़ूद रहा है, जो उन्नति एवं समता की धारा में पीछे छूट गया है और जिसे राजकीय संरक्षण की आवश्यकता रही है; ताकि वह प्रतिस्पर्धा की इस धारा में सामंजस्य स्थापित कर सके। लेकिन 21वीं सदी में देश को यदि इसकी समीक्षा, इसके पैमानों के पुनर्निर्धारण, सार्थकता, मेरिट एवं योग्यता, संवैधानिक रूप से जातीय पहचान क़ायम रखने एवं जातिगत टकराव जैसे कई बिन्दुओं पर त्वरित मूल्यांकन की ज़रूरत है। यदि निरपेक्ष एवं गम्भीर विमर्श हो, तो यह सुनिश्चित है कि आरक्षण की राजनीति के मंथन से पूर्व में जितना भी हलाहल निकल चुका हो, अब संभवत: अमृत निकलेगा।

(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)