चुनाव आयोग ने मायावती के हाथ ‘मौत का सौदागर’ वाला हथियार थमा दिया है. इतना भर अंतर है कि तब दो पार्टियों के बीच मसला था और चुनाव आयोग रेफरी था यहां खुद चुनाव आयोग और एक पार्टी के बीच पेंच फंस गया है और नुकसान बसपा को छोड़ सबको हो सकता है. आयोग ने सद्भावना के तहत ही मायावती और उनके चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों को ढकने का आदेश दिया होगा. इसकी इच्छा रही होगी कि बाकी पार्टियों के लिए बराबरी का मौका रहे. किसी को सत्ता का अतिरिक्त लाभ न मिल सके. लेकिन सच्चाई यह है कि आयोग के सारे गुणा-भाग गलत रहे हैं, उसके फैसले में व्यावहारिकता और दूरदर्शिता के तकाजे का अभाव है. उसके सलाहकारों ने एक गलत फैसले को अमलीजामा पहनाया है. इसने मायावती के हाथ में वह लगाम पकड़ा दी है जिस पर दलित अस्मिता की सवारी बड़ी आसानी से की जा सकती है. बिल्कुल उसी तरह जैसे गुजरात के विगत विधानसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने ‘मौत का सौदागर’ की सवारी की थी.
मूर्तियों को ढकने के फैसले के बाद सबसे ज्यादा बेचैनी उन लोगों में देखी जा रही है जो अब तक मायावती के पार्कों और मूर्तियों का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे थे. एक भाजपा नेता की चिंता सवालों के रूप में सामने आती है, ‘आप ही बताइए सामान्य मूर्ति आपका ध्यान खींचेगी या बेढब तरीके से चिथड़े में लपेटी हुई.’ उत्सुकता मानव स्वभाव का अंग है. जिस ओर ढांकने-तोपने की कोशिशें होती हैं उसी ओर उसका ध्यान सबसे ज्यादा जाता है. नोएडा से लेकर लखनऊ तक पर्दे से ढकी मूर्तियां न चाहने वालों को भी बरबस अपनी तरफ खींच रही हैं. यानी अनजाने में ही वह काम हो रहा है जो आयोग नहीं चाहता और बसपा दिलोजान से चाहती है. इस लिहाज से आयोग के फैसले के पीछे की सोच असफल हो जाती है.
प्रतीकों से भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले मतदाता इस फैसले से नाराज होकर अगले चुनावों में उबाल खा-खाकर वोट कर सकते हैं. और अपने स्वभाव के अनुसार मायावती अगर इसे केंद्र की कांग्रेस सरकार के षड्यंत्र के रूप में प्रचारित करें या फिर चुनाव आयोग पर सीबीआई की तरह काम करने के आरोप लगाएं तो भी कोई आश्चर्य नहीं.
पार्कों और मूर्तियों की राजनीति और मायावती के अपव्यय-सुव्यय पर एक लंबी बहस खींची जा सकती है. लेकिन अपनी राजनीति को मायावती ने हमेशा दलितों के उत्कर्ष, स्वाभिमान और अस्मिता से जोड़े रखा है. इसका नमूना देखना हो तो कभी भी लखनऊ में उनके द्वारा बनवाए गए दलित प्रेरणा स्थल हो आएं. पर्यटक के रूप मंे देश भर से आने वाली भीड़ (दलित वर्ग के लोग) करीने से मुख्य द्वार के बाहर चप्पल-जूते उतार कर अंबेडकर, कांशीराम के साथ-साथ मायावती की मूर्तियों पर मत्था टेकती है. इस स्तर का सम्मान अपने नायकों के प्रति एक वर्ग में है. ऐसी हालत में जब उन्हें ढकने-तोपने की बात आती है तो भावनाओं का आहत होना कोई बड़ी बात नहीं है. और हमारे राजनेता आहत भावनाओं को वोट में तब्दील करने वाले इल्म के माहिर हैं.
अनजाने में ही वह काम हो रहा है जो आयोग नहीं चाहता और बसपा दिलोजान से चाहती है
चुनाव आयोग का कदम एक हद तक प्रतीकात्मक भी है. इस तर्ज की राजनीति हमारे नेता लंबे समय से करते आए हैं. कभी चौराहे का नाम रखना तो कभी शहर का नाम बदल देना. हाल में ही भाजपा काबिज दिल्ली नगर निगम ने ऐतिहासिक चांदनी चौक का नाम बदल कर तेंदुलकर चौराहा करने का प्रस्ताव पेश किया है. नामों के साथ उसका इतिहास, भूगोल, पृष्ठभूमि और विशेषताएं जुड़ी होती हैं, पर नेताओं का यकीन तर्क-वितर्क में कम कुतर्क में ज्यादा होता है. इसका विरोध करते हुए अंग्रेजी के मशहूर साहित्यकार पंकज वर्मा ने प्रस्ताव दिया है कि क्यों न लगे हाथ लाल किले का नाम बदल कर अमिताभ बच्चन किला कर दिया जाए.
सवाल है कि इनसे कुछ फर्क भी पड़ता है. चुनाव चिह्नों का तो मूल मकसद ही होता है रोजमर्रा के जीवन से जुड़े ऐसे प्रतीक चुनना जिन्हें लोग-जहान एकदम आसानी से दिमाग में बैठा लें. हैंडपंप, हवाई जहाज, साइकिल, लालटेन से लेकर तृण-मूल तक तमाम नाम हैं. तो क्या चिह्न मतदाताओं पर इतना असर डालते हैं कि उनके वोट को प्रभावित कर सकें? शायद नहीं. मतदाता वोट अपने मन से देता है जबकि उसके सामने दस चिह्न विकल्प के तौर पर होते हैं जो सिर्फ अलग-अलग व्यक्तियों और विचारों को उन चिह्नों से जोड़ने का काम करते हैं न कि उसके वोट को.
अब अगर चुनाव आयोग को लगने लगा है कि मायावती की मूर्तियों और हाथी से जनता का मन भटक जाएगा तो यहां कुछ विचार और दिए देते हैं. इससे चुनाव (आयोग के मुताबिक) और भी स्वच्छ, निर्मल हो सकने की संभावना बढ़ जाएगी. अमूमन देश भर के हर शहर-कस्बे में चौराहों पर लगी इंदिरा, जवाहर और राजीव की मूर्तियों को चुनाव से पहले चादर ओढ़ा देना चाहिए. हमारे देश के ट्रांसपोर्ट विभाग के पास साइकिल चालकों का रिकॉर्ड नदारद है. लेकिन सवा सौ करोड़ की आबादी में एक करोड़ साइकिलें तो होंगी ही, हो सके तो सभी साइकिलों को चुनाव तक चलने से रोक दिया जाए बल्कि हो सके तो उन्हें उनके मालिक चुनाव तक अपने घर के अंदर पर्दानशीं रखें. आज भी देश के छह लाख गांवों में लोग धड़ल्ले से लालटेन जलाकर अपनी जिंदगी में रोशनी जगमगाए हुए हैं. लेकिन चुनाव निष्पक्ष होने चाहिए, इसलिए चुनाव आयोग से गुहार है कि चुनाव निपटने तक सारे घरों की लालटेन बुझवा दे. अंधेरा चलेगा, लालटेन नहीं.
अब एक गंभीर सलाह जो शरद यादव की तरफ से आई है, कम से कम आयोग के सलाहकारों से तो बेहतर ही है, आयोग उस पर गौर फरमाए तो बेहतर होगा. ‘मायावती के पार्क, उनकी मूर्तियां और असंख्य हाथी उनके सद्कर्मों, धतकर्मों और खटकर्मों की बानगी खुद-ब-खुद हैं. ढकने की बजाय खुला होने पर जनता भ्रष्टाचार को ज्यादा गहराई से महसूस करेगी.’