आज जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अति गम्भीरावस्था में पहुँच चुके रोगियों को उपचार देने से हाथ खड़े कर देता है, ऐसे में 4000 वर्ष पुरानी भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की कारगरता आज भी बरकरार है। दिल्ली के 47 वर्षीय राज जैन ने एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि कुछ वर्ष पूर्व उनका एक ऑप्रेशन हुआ था, जिसके बाद उनको संक्रमित रक्त चढ़ाने से हेपेटाइटिस सी का संक्रमण हुआ और पीलिया रोग हो गया। देश के बड़े-से-बड़े हस्पतालों में इलाज करवाया गया लेकिन मर्ज़ बढ़ता ही गया।
आखिर में स्थिति यह हुई कि जिगर भी सिकुड़ गया तथा पेट में पानी भरने से पेट फूल गया। ऐलोपथिक डॉक्टरों ने इसे सिरोसिस ऑफ लिवर तथा ऐसाइटिस रोग बताकर यह कह दिया की इसका पूरी दुनिया में कोई इलाज सम्भव नहीं है। फिर उन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉक्टर हरीश वर्मा का पता चला और उनका इलाज शुरू किया। डॉक्टर वर्मा की दवाइयों से दो सप्ताह के भीतर फूला हुआ पेट ठीक हो गया तथा पानी भरना बन्द हो गया। जहाँ एक बूँद पानी की अन्दर नहीं जाती थी, वहाँ अब राज जैन पूरा खाना खाती है तथा सैर भी करती है।
डॉक्टर हरीश वर्मा से जब उनकी दवाइयों के बारे में पूछा गया, तो उन्होने बताया कि हेपेटाइटिस सी का संक्रमण होने से रोगी को अत्यन्त थकावट महसूस होती है तथा पीलिया रोग हो जाता है। यदि उसका ठीक ढंग से इलाज न किया जाए, तो रोगी का जिगर सिकुड़ जाता है तथा सिरोसिस रोग हो जाता है। इस रोग को आयुर्वेद के प्राचीन गन्थों में यकृद्धाल्योदर कहा गया है। सिरोसिस के बाद रोगी को जलोदर यानी ऐसाइटिस हो जाता है तथा कभी-2 लिवर में कैन्सर भी हो जाता है। आजकल खून की जाँच करके हेपेटाइटिस सी का पता शुरुआती अवस्था में ही लगाया जा सकता है।
डॉक्टर वर्मा ने कहा कि मैंने आयुर्वेद के प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों के आधार पर ही आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी ईज़ाद की है। इस थैरेपी के दौरान तीन प्रकार की जड़ी बूटियों के समूह एक ही समय पर दिये जाते हैं।
प्रथम समूह मेंं भूमी-आँवला, गिलोय, कालमेघ आदि दिये जाते हैं जो कि रक्त में वायरस के स्तर को कम करते हैं। दूसरे समूह में पुनर्नवा, भृंगराज, मकोय आदि दिये जाते हैं, जो कि जिगर की क्षतिग्रस्त कोषिकायों को नया बनाते हैं। तीसरे समूह में मूली, अपामार्ग, अर्क, चिरायता आदि दिये जाते हैं, जो कि जिगर में से विजातिय द्रव्यों को निकालकर जिगर की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं। बकौल डॉक्टर वर्मा हेपेटाइटिस सी के रोगियों के लिए आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी ऐलोपेथिक दवाइयों इन्टरफिरोन तथा रिबावाइरिन’ के मुकाबले में बहुत ही सस्ती है तथा उनका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पडता। डॉक्टर वर्मा ने कहा अब तक आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी से हेपेटाइटिस ए, बी, सी तथा सिरोसिस के हज़ारों रोगियों को लाभ हुआ है।
आईसीएमआर जैसी संस्थाओं की भूमि-आँवला, कालमेघ, गिलोय कुटकी आदि पर रिसर्च करके उन्हें पेटेन्ट कर लेना चाहिए अन्यथा यह जडी बूटियाँ भी नीम और हल्दी की तरह विदेशियों के हाथ में चली जाएँगी।