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उत्तराखंड में यह अब तक की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा है. राहत कार्य में जुटी सेना की मध्य कमान के जीओसी ले.जनरल अनिल चैत बताते हैं, ‘यह आपदा करीबन 40,000 वर्ग किमी में फैली है. पूरब से पश्चिम तक करीब 360 किमी लंबाई में इसका असर पड़ा है.’ आधिकारिक रूप से मौतों की संख्या का आंकड़ा 1000 से कुछ अधिक पहुंच चुका है. बताया जा रहा है कि इस आपदा ने चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ सहित उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में कुल मिलाकर करीब 16 लाख लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है जिनमें से एक लाख के करीब बेघर हो गए हैं. इसके बाद एक नई बहस भी छिड़ गई है- क्या यह आपदा प्राकृतिक थी या यह इंसान द्वारा प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ का परिणाम है? पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, ‘हिमालय क्षेत्र में तो आपदाएं हर साल आती ही रहती हैं, पर जब जान-माल का नुकसान होता है तभी हल्ला मचता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘मानव ने प्रकृति को नहीं समझा. वह नदी के रास्तों में अवरोध खड़े कर रहा है.
नदी का रास्ता रोका जाएगा, इंसानी गतिविधियां अनावश्यक रूप से बढ़ाई जाएंगी तो नुकसान तो होगा ही.’ यही हुआ. अलग-अलग आपदाग्रस्त इलाकों के कुछ उदाहरण साफ बताते हैं कि इस बार भले ही तीन दिन तक हुई भारी वर्षा से खतरा पैदा हुआ हो, लेकिन नुकसान का बड़ा कारण प्रकृति का तिरस्कार करने वाला इंसानी लालच ही रहा.
केदारनाथ में 14 जून से ही बारिश हो रही थी. भूगर्भ अध्ययन के लिए चर्चित संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के केदारनाथ के पास स्थित केंद्र में 15 जून शाम से लेकर 16 जून शाम तक 330 मिली वर्षा रिकॉर्ड की गई जो साल के इस समय के हिसाब से कई गुना ज्यादा थी. 16 जून की रात करीब साढ़े आठ बजे मंदिर के लगभग 500 मीटर पीछे बाईं तरफ स्थित पहाड़ी से सरस्वती गंगा में ढेर सारा पानी और मलबा आया. यह अपने साथ मंदिर के पीछे शंकराचार्य समाधि, लोक निर्माण विभाग के अतिथि गृह, भारत सेवा आश्रम और अन्न क्षेत्र की बड़ी धर्मशाला को बहाकर ले गया. इन भवनों में मौजूद सारे लोग बह गए.
लगभग इसी समय मंदिर के दाईं तरफ स्थित पहाड़ी से आने वाली दूध गंगा के साथ आए मलबे ने मंदाकिनी का रास्ता रोक दिया. इससे मंदिर के बाईं ओर बह रही मंदाकिनी का पानी अब मंदिर की तरफ बढ़ने लगा. साफ है कि पहले दिन आए मलबे ने दूसरे दिन के बड़े नुकसान के लिए रास्ता बना दिया था. पहली अनहोनी से बचे लोगों को भी इसका आभास हो गया था. उन्होंने ऊंचाई पर स्थित मंदिर परिसर में शरण लेना शुरू कर दिया था. 17 जून को मंदिर में सुबह की पूजा हो चुकी थी.
लगभग साढ़े सात बजे भयंकर तूफान शुरू हुआ. टिन की छतें पत्तों की तरह उड़ने लगीं. केदारनाथ के पुजारी बागीश लिंग बताते हैं, ‘पूजा के बाद मैं सामान को भंडार में रख रहा था कि एक जोरदार आवाज सुनाई दी. कुछ ही देर बाद मंदिर के दाईं ओर लगभग चार किमी ऊपर स्थित चैरबाड़ी ताल (गांधी सरोवर) से भयंकर गड़गड़ाहट के साथ पानी आता दिखा.’ एक स्थानीय प्रत्यक्षदर्शी कुंवर सिंह शाह बताते हैं कि इसे मंदिर तक आने में10 मिनट ही लगे. पानी अपने साथ मलबा और बड़े पत्थर लाया.
पुजारी बागीश लिंग बताते हैं, ‘मलबे से के दारनाथ मंदिर परिसर भर गया. मंदिर के अंदर भी पानी भरने लगा तो मैं मंदिर के खंबों पर चढ़ गया और केदारनाथ की विग्रह मूर्ति (जिसकी कपाट बंद होने के बाद पूजा होती है) को भी किसी तरह ऊपर कर लिया.
पानी 10 मिनट रहा और फिर मंदिर के पश्चिमी दरवाजे को तोड़ कर बाहर चला गया. फिर मैंने बाहर आकर देखा तो हर तरफ तबाही का दृश्य था.’ केदारनाथ से शुरू हुई बर्बादी की यह कहानी नीचे घाटी में दसियों किलोमीटर तक फैल गई. उत्तराखंड में इस बार की आपदा में सबसे
अधिक नुकसान केदारनाथ से लेकर गौरीकुंड और सोनप्रयाग तक हुआ है. आधिकारिक रूप से मौतों की संख्या करीब 1000 बताई जा रही हो, लेकिन इस घाटी के हालात बता रहे हैं कि यह आंकड़ा समय के साथ इससे कई गुना ज्यादा हो जाएगा. केदारनाथ पुरी मलबे से पूरी तरह से तहस-नहस हो चुकी है. उससे सात किमी नीचे बसा रामबाड़ा तो नक्शे से ही गायब है, जबकि आपदा से पहले यह यात्रा का सबसे भीड़भाड़ वाला पड़ाव था. रामबाड़ा से सात किमी नीचे गौरी कुंड में सैकड़ों गाड़ियां बहीं और सैकड़ों श्रद्धालुओं की मौत भी हुई.
आगे बढ़कर इस मलबे ने सोनप्रयाग में कार पार्किंग और दर्जन भर होटल और घर बहाए हैं. इसके बाद घाटी में पहुंचे इस पानी से भले ही खास जीवनहानि न हुई हो, लेकिन जो नुकसान हुआ उससे यहां के लोगों को उबरने में कई साल लगेंगे. मंदाकिनी नदी पर बने दर्जन भर पुल बह गए हैं. पहाड़ में पुल ही गांवों की जीवन रेखा यानी सड़कों को जोड़ने वाले अहम बिंदु होते हैं.
नदी तट पर बने सैकड़ों मकान तो इस तबाही का सबसे आसान शिकार थे, लेकिन पानी के साथ बह रहे लाखों टन मलबे और पेड़ों के चलते कई जगहों पर नदी रास्ता भी भटक गई. चंद्रापुरी और सौड़ी जैसे गांवों में उसने अपने मूल रास्ते से एक किमी ऊंचाई पर बसा इलाका भी साफ कर दिया. यहां के लोगों के लिए यह वास्तव में अनहोनी थी. लेकिन हिमालय के इन इलाकों में पिछले कुछ समय से जो हो रहा था उसे देखते हुए यह अनहोनी अवश्यंभावी थी. उसे बस मौके का इंतजार था.
तीर्थों में बेतहाशा निर्माण
रिकॉर्ड बताते हैं कि 1883 में केदारनाथ में मंदिर के अलावा केवल दो-तीन झोपड़ियां ही थीं. लेकिन आज के केदारनाथ में चप्पे-चप्पे पर भवन बन गए थे. यहां तक कि पुरी के दोनों ओर बह रही मंदाकिनी नदी के पाट को भी नहीं छोड़ा गया था. केदारनाथ में किसी भी निर्माण को नियंत्रित करने के लिए सख्त नियम-कायदे बने हुए हैं, लेकिन लगता है वहां बनने वाले अवैध भवनों को रोकना किसी के बस में नहीं था. रामबाड़ा से लेकर गौरीकुंड तक ऐसा ही हाल था. पिछले साल केदारनाथ यात्रा पर आए नैनीताल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने तीर्थ की ऐसी बुरी हालत देखकर उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार के माध्यम से खुद ही एक जनहित याचिका दाखिल करवाई थी. अदालत ने केदारनाथ में अवैध अतिक्रमण ध्वस्त करने का आदेश दिया था. राजस्व विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि इस आदेश के बाद केदारनाथ में 35 बड़े अतिक्रमण और 55 छोटे अतिक्रमण चिह्नित किए गए थे. प्रशासन भले ही न्यायालय का आदेश लागू न करा पाया हो लेकिन प्रकृति ने खुद ही ये निर्माण ध्वस्त कर दिए.
गढ़वाल के पूर्व कमिश्नर सुरेंद्र सिंह पांग्ती बताते हैं, ‘मैं 1986 में केदारनाथ गया था. उस समय वहां थोड़े मकान थे लेकिन लोग अपने मकान बनाने के लिए और ठेकेदार सरकारी कामों के लिए मंदिर के पीछे स्थित बड़ी-बड़ी चट्टानों को तोड़ रहे थे. तब मैंने इसका विरोध भी किया था. 2013 में जब मैं केदारनाथ गया तो मंदिर के पीछे स्थित बड़े पत्थर नहीं थे और पुरी में मकान ही मकान बन गए थे.’ विशेषज्ञ बताते हैं कि करीब 1000 साल पुराने इस मंदिर को बहुत सूझ-बूझ से उस शिलाखंड के आगे बनाया गया जो ग्लेशियरों का चट्टानरूपी अवक्षेप होने के चलते बहुत मजबूत था. ऐसी चट्टान को भूगर्भ विज्ञान की भाषा में मोरेन कहते हैं. मंदिर के अगल-बगल वाला क्षेत्र मंदाकिनी का प्राकृतिक रास्ता था जिसे उसकी पूर्वी और पश्चिमी वाहिका कहा जाता है. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लेकिन जानकारों के मुताबिक लोकपरंपरा जानती थी कि वह कभी भी अपने छोड़े रास्ते पर भी चल सकती है इसलिए बीते 1000 सालों के एक बड़े हिस्से में मंदिर के अगल-बगल कोई खास निर्माण नहीं किया गया. नहीं तो जिस सभ्यता ने वहां इतना भव्य मंदिर बनाया वह वहां रहने के लिए कुछ और भव्य भवन भी बना ही सकती थी.
लेकिन बीते कुछ समय के दौरान वह लोकपरंपरा भुला दी गई. इसकी जगह एक सख्त कानून के उतने ही सख्त क्रियान्वयन को लेनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. केदारनाथ एक कस्बा बन गया. मोरेन का बड़ा हिस्सा तोड़ दिया गया. विशेषज्ञों का मानना है कि मोरेनरूपी वे बड़ी चट्टानें अपनी जगह होतीं तो पानी और मलबे का बड़ा कोप वे झेलतीं और जान-माल का नुकसान कम होता. ऐसा ही तब भी होता जब इस तीर्थ का ऐसा अनावश्यक विस्तार न किया गया होता.
केदारनाथ के बाद 16-17 जून की आपदा में सबसे बड़ा नुकसान बदरीनाथ मार्ग पर स्थित पांडुकेश्वर-गोविंदघाट गांवों में हुआ. इसी गांव के एक हिस्से गोविंदघाट से दुनिया में सबसे ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारे हेमकुंट साहिब और फूलों की घाटी का पैदल रास्ता जाता है. पांडुकेश्वर गांव का आधा हिस्सा और गोविंद घाट का गुरुद्वारा व अधिकांश होटल अलकनंदा नदी के भारी और तेज बहाव ने नष्ट कर दिए हैं.
गोविंदघाट तो मानवीय भूल का विलक्षण नमूना है. उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में कानूनन 12 मीटर तक ही भवन निर्माण हो सकता है. लेकिन हर दिन यहां से हेमकुंट साहिब जाने वाले पांच हजार यात्रियों के रहने के लिए यहां नदी के पाट को घेर कर गुरुद्वारा और आठमंजिला धर्मशालाएं तक बना दी गई थीं. यही हाल होटलों और कार पार्किंगों का भी था. जगह नहीं होने के कारण गोविंदघाट में अधिकांश होटल और पार्किंग नदी से लगकर बनाए गए थे. अब उनमें से अधिकांश अलकनंदा में समा गए हैं. अकेले गोविंदघाट में सैकड़ों वाहन, दर्जनों होटल और एक हेलीकाप्टर बह गया है.
नदी किनारे बसी बस्तियां और घर
इस इलाके में एक पुरानी कहावत है, ‘ नदी-तीर का रोखड़ा जत-कत सौरो पार’ यानी नदी के किनारे बसने वालों के वंश का कभी भी नाश हो सकता है. सड़कों का जाल बिछने से पहले उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में नदियों के एक किलोमीटर दायरे में किसी भी गांव की बसाहट नहीं थी. उत्तराखंड में सड़कों के निर्माण से पहले यात्राएं चट्टी व्यवस्था पर होती थीं. चट्टी यानी रात में ठहरने का पड़ाव.
हर पांच मील पर एक चट्टी होती थी जहां आस-पास के गांवों के लोग यात्रियों को राशन और चौका-बर्तन उपलब्ध कराते थे. श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, गौचर, चटवापीपल, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और चमोली सहित तब सारे गांव भले ही अलकनंदा नदी के किनारे थे, लेकिन कोई भी यात्रा-चट्टी नदी किनारे नहीं बनाई गई थी. चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में सड़कों का निर्माण 1950 के बाद हुआ. ये सड़कें नदियों के किनारे बनाई गईं.
नतीजा यह हुआ कि बस्तियां और बाजार नदी के नजदीक बसने लगे. इन बस्तियों में से अधिकांश का दर्जा अभी भी गांव का ही है. उत्तराखंड में गांवों में भवन निर्माण करने के लिए किसी वैधानिक इजाजत की जरूरत नहीं होती है इसलिए नदी किनारे इन गांवों के खेतों में बड़े-बड़े होटल बनने लगे. इनमें से अधिकांश नदी के साथ बह गए हैं. यानी न तो परंपरागत ज्ञान से सबक लिया गया और न ही उनको रोकने वाला कानून ही मौजूद रहा. कस्बों में भवन निर्माण के नियम होने के बावजूद नदियों के तटों पर खूब अवैध निर्माण हुआ है.
पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट बताते हैं, ‘हाल ही में बहे गढ़वाल मंडल विकास निगम के पीपलकोटी, स्यालसौड़ और गबनीगांव स्थित रेजार्ट नदी के तट पर ही बसे थे. जब सरकारी विभाग इस तरह के निर्माण करते हैं तो निजी क्षेत्र के लोग भी उनका अनुकरण करते हैं.’ इस बार की आपदा में मंदाकिनी नदी ने गौरीकुंड से रुद्रप्रयाग तक नदी किनारे बने सैकड़ों मकानों को निगल दिया. यही हाल उत्तरकाशी में रहा.
हेलिकॉप्टर सेवा
केदारनाथ की ऊंचाई के इलाकों को उत्तराखंड में बुग्याल कहते हैं. बुग्यालों में स्थानीय निवासी गर्मियों में अपनी भेड़ों को चराने जाते हैं या फिर सावन के महीने पूजा के लिए ब्रह्म कमल लेने. बुग्यालों की जीवन पद्धति ही अलग है. इन भेड़ पालकों द्वारा बुग्यालों में चिल्लाने पर पूरी मनाही होती है, यहां तक खांसने से भी परहेज किया जाता है. भेड़पालकों का मानना है कि चिल्लाने से आवाज गूंजती है और हिवालें (ग्लेशियर) टूटते हैं.
लेकिन तबाही से पहले तक हाल यह था कि गुप्तकाशी से केदारनाथ के लिए 10 कंपनियों के 17 हेलिकॉप्टर रोज औसतन 170 बार उड़ान भर रहे थे. लैंडिंग के लिए जगह खाली न होने के कारण ऊपर उड़ने वाला हेलिकॉप्टर केदार पुरी के चक्कर लगाता है. इससे ध्वनि प्रदूषण तो होता ही है इसके पंखों और इंजन से पैदा होने वाली आवाज चारों ओर के पहाड़ों से टकराकर ईको यानी गूंज पैदा करती है. लोकपरंपरा ने अपने अनुभव से इन जगहों के साथ जो व्यवहार विकसित किया था उसके संदर्भ में देखा जाए तो हेलिकॉप्टर की इन उड़ानों ने केदारनाथ के आसपास के ग्लेशियरों को कितना नुकसान पहुंचाया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
केदारनाथ की तरह गोविंदघाट से भी हेमकुंट साहिब के लिए हेलिकॉप्टर सेवाएं चलती थीं. यह भी एक रहस्य ही है कि पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क और फूलों की घाटी जैसे क्षेत्र होने के बाद भी इन कंपनियों को हेलीकाप्टर सेवा चलाने की इजाजत कैसे मिल गई.
10 हेलिकॉप्टर कंपनियों की केदारनाथ के लिए चल रही सेवा बंद कराने के लिए स्थानीय लोग 14 जून से आंदोलन भी कर रहे थे. लेकिन रसूखदार लोगों की इन कंपनियों को आंदोलन से रोज करोड़ों रुपये का नुकसान न हो इसके लिए गुप्तकाशी के पास स्थित उनके हैलीपैड पर पीएसी तैनात कर दी गई. प्रशासन व पुलिस के बड़े अधिकारी इसी कारण दो दिन से केदारनाथ में डेरा डाले बैठे थे. यह अलग बात है कि ऐसी प्रशासनिक तत्परता आपदा के दौरान दुर्लभ हो गई.
बिजली परियोजनाएं और नदी की बदलती आदत
बदरीनाथ घाटी में पांडुकेश्वर से लगभग12 किमी ऊपर बदरीनाथ की तरफ 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना का बैराज बना है. यहां से अलकनंदा का पानी रोककर उसे सुरंग के जरिए पावर हाउस में पहुंचा दिया जाता है. सर्दियों और गर्मियों में इस बैराज से लेकर विष्णुप्रयाग यानी लगभग 15 किमी तक अलकनंदा में इतना कम पानी रहता है कि इसे बच्चे भी पार कर सकते हैं. पांडुकेश्वर के लोग बताते हैं कि उस दिन अचानक पानी बढ़ने से परियोजना वालों ने सारा पानी नदी में छोड़ दिया. बाद में बढ़ते पानी और उसके साथ आए मलबे ने बैराज भरते हुए उसके पास की सड़क को तोड़कर अपना रास्ता बना लिया.
स्थानीय निवासी बताते हैं कि पहले जब नदी में बारहों महीने पानी रहता था तो वह धीरे-धीरे अपने तट और रास्ते को बना कर कम नुकसान करती थी. लेकिन अब कई सालों से अलकनंदा नदी में पांच महीने पानी नहीं रहता है. बरसात के महीनों के दौरान अचानक भारी पानी बहने से नदी के किनारों को अधिक नुकसान होता है. इस बार भी भारी बारिश और विष्णुप्रयाग परियोजना से छूटे भारी पानी ने नदी से एक किमी ऊपर बसे पांडुकेश्वर गांव का आधा हिस्सा निगल दिया.
यही हाल केदारनाथ घाटी का भी है. मंदाकिनी नदी पर इस समय दो बड़ी और उसकी सहायक नदी कालीगंगा पर दो छोटी बिजली परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं. 76 मेगावॉट की फाटा-ब्योंगगाड परियोजना और 99 मेगावॉट की सिंगोली-भटवाड़ी परियोजना. इन परियोजनाओं के लिए बन रही मुख्य और सहायक सुरंगों के निर्माण से जानकारों के मुताबिक 30 लाख घनमीटर मलबा निकला. इस मलबे के लिए कोई उचित डंपिंग ग्राउंड नहीं बनाया गया बल्कि इसे मंदाकिनी किनारे फेंक दिया गया. यह मलबा पानी के विशाल प्रवाह के साथ टूट कर आए पेड़ों के साथ संकरी पहाड़ी नदियों पर जगह-जगह पर छोटे-छोटे अस्थाई बांधों की श्रंखला बनाता है. ये बांध बनते-टूटते रहते हैं और अचानक पानी का प्रवाह बढ़ाते रहते हैं. मंदाकिनी नदी में भी इस बार अनियमित-अनियंत्रित पानी और उसमें बहते मलबे ने गौरीकुंड से लेकर रुद्रप्रयाग के दर्जन भर पुल बहाए और इतनी ही बस्तियों को निगल लिया.
बदरीनाथ के बाद आपदा की सबसे ज्यादा मार उत्तरकाशी इलाके पर पड़ी. यहां पिछले साल भी भारी तबाही हुई थी. उसका सबसे बड़ा कारण असीगंगा से आने वाले पेड़ और मलबा थे. असीगंगा पर बनने वाली जलविद्युत परियोजना के लिए सैकड़ों पेड़ काटे गए थे और टनों मलबा खोदा गया था. यही मलबा पिछले साल आपदा का कारण बना. इस बार भी असीगंगा से आने वाले मलबे ने ही भागीरथी नदी में मिलकर उत्तरकाशी में तबाही मचाई. साफ है कि सबक नहीं सीखा गया.
आपदा में गढ़वाल के सबसे बड़े कस्बे श्रीनगर को बड़ा नुकसान हुआ. श्रीनगर में अकेले एसएसबी अकादमी को 100 करोड़ रु की क्षति हुई है. श्रीनगर से पहले जीवीके परियोजना का बैराज बना है. इस बैराज के पानी से यहां प्रसिद्ध धारी देवी मंदिर को डूबना था. स्थानीय धर्मावलंबी और साधु-संत देवी की मूर्ति को हटाने का विरोध कर रहे थे. श्रीनगर के स्थानीय निवासी बताते हैं कि कंपनी ने बैराज के गेटों को बंद कर के धारी देवी मंदिर तक पानी बढ़ने दिया और उसके बाद धारी देवी की मूर्ति को डूबने का बहाना बना कर शिफ्ट करा दिया गया. जो काम सालों से नहीं हो रहा था कंपनी ने पानी के बढ़ने का बहाना बनाकर कर दिया. धारी देवी की मूर्ति को हटाने के बाद कंपनी ने अपने प्रोजेक्ट और पावर हाउस की सुरक्षा के लिए बैराज के सारे गेट खोल दिए. उसी के बाद श्रीनगर कस्बे के एक हिस्से में तबाही मच गई. स्थानीय लोगों का मानना है कि श्रीनगर में हुई तबाही का कारण एक साथ छोड़ा गया यह पानी भी था.
इस आपदा में नुकसान की एक बड़ी वजह भूस्खलन भी रही है जिसने जगह-जगह सड़कों का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया. पहाड़ों में सुरंगें या सड़कें बनाने के लिए विस्फोटकों का व्यापक प्रयोग इन भूस्खलनों में हुई बढ़ोत्तरी का अहम कारण है. बड़े पैमाने पर विस्फोटकों के प्रयोग से पहले से ही कच्चा हिमालय और भी कमजोर हो रहा है. विशेषज्ञों के मुताबिक इन विस्फोटों के कारण धरती में छोटे-छोटे भूकंप पैदा होते हैं. ट्रक या बस जैसी बड़ी गाड़ियों के वहां से गुजरने से भी ऐसे सूक्ष्म भूकंप बनते हैं. रोज लाखों की तादाद में उठने वाले और हिमालय के भीतर पहले से ही मौजूद अनगिनत दरारों को बार-बार-बार कंपाने वाले ये भूकंप पहाड़ों को कमजोर करते जाते हैं. यह कमजोरी भूस्खलन और बर्बादी का कारण बनती है.
बेकाबू गाड़ियां
जब चट्टी व्यवस्था से सड़क यात्रा का जमाना आया तो पहले-पहल पहाड़ों में गेट व्यवस्था लागू की गई. यह एक तरह से नियंत्रित यातायात की व्यवस्था थी. एक निश्चित स्थान से एक निश्चित समय पर गाड़ियों को दूसरे निश्चित स्थान तक भेजा जाता था. बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व मुख्य कार्याधिकारी जगत सिंह बिष्ट बताते हैं, ‘गेट व्यवस्था के चलते लोग यात्रा मार्ग के बीच बने कस्बों में भी रुकते थे. अब सारे के सारे यात्री ऋषिकेश से एक ही दिन में बदरीनाथ, गौरीकुंड ,रामबाड़ा व केदारनाथ पहुंच जाते हैं जिससे इन जगहों पर अथाह भीड़ हो जाती है.’ इस बार आपदा के बाद बदरीनाथ, केदारनाथ और गौरीकुंड में फंसे यात्रियों की इस बड़ी संख्या को वहां से निकालना भारी चुनौती रही.
[box]बांधों के चलते कई महीने नदियां करीब सूखी रहती हैं और बारिश में अचानक पानी आने से वे किनारों पर ज्यादा कटाव करने लगती हैं[/box]
हाल की आपदा में भले ही बदरीनाथ में कोई नुकसान न हुआ हो, लेकिन पांडुकेश्वर-गोविंदघाट में सड़क खत्म हो जाने से वहां 10 हजार के लगभग यात्री फंस गए. और जगहों पर हो रही मौतों से बदरीनाथ में फंसे यात्रियों, उनके परिजनों और उनके प्रदेशों की सरकारों ने हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि वहां फंसे यात्रियों में से अधिकांश को हवाई मार्ग से जोशीमठ लाना पड़ा. बदरीनाथ में फंसे यात्रियों को लाने में स्थानीय प्रशासन को अतिरिक्त ऊर्जा लगानी पड़ी. यह ऊर्जा केदारनाथ में ज्यादा राहत पहुंचाने में लग सकती थी. इस तबाही में केदारनाथ में सब कुछ खत्म हो गया है. जैसा कि मंदिर के पुजारी कहते हैं, ‘बचा है तो वही जो 1000 साल पहले भी था. यानी सिर्फ मंदिर.’ शायद प्रकृति ने अपना संदेश दे दिया है. क्या हम अब भी उसे समझेंगे?
(महिपाल कुंवर और रॉबिन चौहान के सहयोग के साथ)