आप की छाप

फोटो:विकास कुमार

अन्ना हजारे की अगुवाई वाले जनलोकपाल आंदोलन को बगैर किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचाए जब अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर राजनीतिक दल बनाकर व्यवस्था में शामिल होकर बदलाव की लड़ाई लड़ने की घोषणा की तो बहुत लोगों ने उनकी आलोचना की. कहा गया कि ऐसे प्रयोग पहले भी हुए हैं और चुनावी राजनीति में केजरीवाल टिक नहीं पाएंगे. यह भी कहा गया कि इससे जनलोकपाल की लड़ाई पूरी नहीं होगी. अन्ना हजारे भी सीधे सियासी दल बनाकर राजनीति में उतरने के खिलाफ थे. फिर भी केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर सियासी मैदान में ताल ठोकने का फैसला किया. दिल्ली के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि केजरीवाल का फैसला सही था. भले ही उनकी पार्टी को दिल्ली में सरकार बनाने के लिहाज से कुछ कम सीटें मिली हों लेकिन इतने कम समय में ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की राजनीति में सालों से स्थापित कई नियमों को बदल दिया है और सियासत की एक नई लीक गढ़ी है. केजरीवाल का असर चुनाव से पहले भी दिख रहा था और चुनाव के बाद भी दिख रहा है. मौजूदा सियासी परिस्थिति में इन बदलावों को एक-एक कर समझना जरूरी है.

साफ-सुथरी छवि
पिछले दो दशक में सियासत का चरित्र कुछ इस कदर बदला है कि राजनीति का दूसरा नाम गुंडागर्दी हो चला था. लोग यह मानने लगे थे कि ईमानदार और सज्जन आदमी के लिए तो राजनीति है ही नहीं. कहा जाने लगा था कि राजनीति में सफल होना है तो कोई संगीन अपराध करके जेल जाना एक अनिवार्यता है. जो लोग चुनकर आ रहे थे उनके बारे में हुए अध्ययन भी यह बता रहे थे कि जीतने वालों में आपराधिक रिकाॅर्ड वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने खुद अपना उदाहरण पेश करते हुए यह दिखाया कि ईमानदार और मेहनती लोग भी राजनीति कर सकते हैं. उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से शीला दीक्षित सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर किया और भाजपा को मजबूर किया कि वह अपनी ओर से मुख्यमंत्री पद का एक ऐसा उम्मीदवार दे जिसकी छवि साफ-सुथरी हो. यह केजरीवाल का ही असर था कि भाजपा ने अंतिम समय पर विजय गोयल को पीछे करके हर्षवर्धन को आगे किया और उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया.

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यूं होता तो क्या होता

यदि ‘आप’ दिल्ली के  बजाय दूसरे राज्य से लड़ती

आप के नेता और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि देश भर में राजनीतिक विकल्प का संदेश पहुंचाने के लिए दिल्ली सबसे मुफीद जमीन थी. साफ है कि आप ने खुद अपनी सफलता को लेकर दूसरे राज्यों को दिल्ली के मुकाबले कम आंका था. इसकी दो प्रमुख वजहें हो सकती हैं. पहली यह कि आप का संगठन दूसरे राज्यों में दिल्ली के मुकाबले उतना मजबूत नहीं है और दूसरा कारक यह कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस बार स्थानीय सरकारों की उपलब्धियों और नाकामियों के साथ ही मोदी फैक्टर को लेकर भी जबर्दस्त हवाबाजी मचाई जा रही थी. इस सबको जानते हुए अरविंद केजरीवाल की टीम ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत दिल्ली को चुना जो कि उनके पक्ष में गया. दूसरे राज्य में ‘आप’ को शायद ही इतना समर्थन हासिल होता.

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अलग-अलग घोषणापत्र
पहली बार ऐसा हुआ कि हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी किए गए हों. अब तक होता यह था कि एक घोषणापत्र जारी हो गया और उसी पर चुनाव हो जाता था. सच्चाई तो यह है कि घोषणापत्र एक औपचारिकता भर रह गया था. जबकि यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि हर क्षेत्र की अपनी समस्याएं हैं और इसलिए उनके समाधान का रास्ता भी अलग-अलग होगा. इस बात को अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने समझा और उसने हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी किया. इसके बाद भाजपा भी हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी करने के लिए बाध्य हुई.

लोकप्रिय घोषणाएं
आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में लोकप्रिय घोषणाओं की झड़ी लगा दी. उसने यह कहा कि अगर उसकी सरकार बनी तो बिजली की कीमतों में 50 फीसदी की कटौती होगी. एक निश्चित सीमा तक पानी भी मुफ्त में देने की बात आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में की गई. इन घोषणाओं की इस आधार पर आलोचना तो हुई कि सरकार की माली हालत ऐसी लोकप्रिय घोषणाओं के क्रियान्वयन में सबसे बड़ा रोड़ा है, लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा और कांग्रेस ने भी दिल्ली के चुनावों में ऐसी घोषणाओं की झड़ी लगा दी. आम आदमी पार्टी की तर्ज पर भाजपा ने भी यह घोषणा कर दी कि अगर उसकी सरकार बनेगी तो बिजली की कीमतों में वह 30 फीसदी की कमी करेगी. वहीं सत्ता पर काबिज कांग्रेस भी केजरीवाल की तरह यह बात करने लगी कि अगर वह फिर से सत्ता में आई तो पानी पर मिलने वाली रियायत बढ़ाई जाएगी.

जनता की भागीदारी
अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के चयन से लेकर घोषणापत्र बनाने और चंदा वसूलने तक में जिस तरह से आम लोगों को शामिल किया उससे भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों पर भी यह दबाव बढ़ा कि वे भी अपनी गतिविधियों में जनता की भागीदारी बढ़ाएं. हालांकि, कई लोगों का यह कहना है कि उम्मीदवारों के चयन में जिस लोकतांत्रिकता का दावा केजरीवाल करते हैं, सच्चाई उससे काफी अलग है. लेकिन इसके बावजूद आम आदमी पार्टी की विभिन्न गतिविधियों में आम लोगों की भागीदारी दिख रही थी. जबकि दूसरी पार्टियों के साथ ऐसा नहीं था. वहीं घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में आम आदमी पार्टी ने आम लोगों को शामिल किया. इसका असर इस रूप में हुआ कि कांग्रेस 2014 लोकसभा चुनाव के लिए घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में आम लोगों को शामिल करने के लिए अभी से बाकायदा एक वेबसाइट चला रही है. उम्मीद की जा रही है कि केजरीवाल की सफलता के बाद अब अन्य पार्टियां भी अपनी गतिविधियों में आम लोगों को शामिल करने की कोशिश करेंगी.

पहले आप
अगर कहीं चुनाव हो और कोई दल बहुमत से दो-चार सीट पीछे हो तो आम तौर पर जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हो जाती थी ताकि किसी भी तरह से सरकार बन सके. यह इतना आम हो चुका था कि लोगों को भी इस पर कोई आश्चर्य होना बंद हो गया था. लेकिन इस बार जब दिल्ली के चुनावी नतीजे आए और एक निर्दलीय के समर्थन के बाद भाजपा को सरकार बनाने के लिए जब सिर्फ तीन विधायकों का बंदोबस्त करना था तब भी पार्टी ने साफ तौर पर यह कह दिया कि उसे स्पष्ट जनादेश नहीं है इसलिए वह विपक्ष में बैठेगी. भाजपा ने यह भी कहा कि आम आदमी पार्टी को सरकार बनानी चाहिए. वहीं आम आदमी पार्टी कह रही है कि भाजपा सरकार बनाए.

भाजपा के सूत्रों का कहना है कि संसदीय दल की बैठक में खुद नरेंद्र मोदी ने आप की लोकप्रियता को देखते हुए यह कहा कि जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की कोशिश दिल्ली में नहीं होनी चाहिए. भाजपा में यह राय बनी कि अगर जोड़-तोड़ से सरकार बनाई तो इसका खामियाजा पार्टी को लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा.