छत्तीसगढ़ में मध्य प्रदेश से आए बाबू विधानसभा सचिव बने हुए हैं और चपरासी प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था संभाल रहे हैं. अनिल मिश्रा की रिपोर्ट.
हाल ही में छत्तीसगढ़ के विधि विभाग में चपरासियों के पद निकले तो बेरोजगार युवाओं का रेला उमड़ पड़ा. सात पदों के लिए पांच हजार बेरोजगारों ने इंटरव्यू दिया. इसमें से कई इंजीनियरिंग और कंप्यूटर में डिप्लोमाधारी थे. आखिर उच्च शिक्षितों में चपरासी बनने की ललक क्यों? जवाब इंटरव्यू की लाइन में लगे एक युवा ने दिया, ‘अगर तकनीशियन बने तो जिंदगी में ज्यादा से ज्यादा इंजीनियर तक पहुंच पाएंगे. और अगर मंत्रालय में चपरासी का पद हासिल हो गया तो दस-पंद्रह साल बाद चीफ इंजीनियरों को भी हमारा ही आदेश मानना पड़ेगा.’ दरअसल छत्तीसगढ़ में विधानसभा से लेकर मंत्रालय तक में ऐसी ही विसंगतियां देखने को मिलती हैं जिनके बाद यह जवाब अतिशयोक्ति नहीं लगता. नया प्रदेश छत्तीसगढ़ स्थानीय लोगों के सपनों का प्रदेश भले न बन पाया हो लेकिन यह बंटवारे के तहत मध्य प्रदेश से यहां आए अधिकारियों और कर्मचारियों के सपनों का प्रदेश जरूर बन गया है.
पहले विधानसभा सचिवालय की ही बात करते हैं जहां प्रदेश की जनता की बेहतरी के लिए कानून बनाए जाते हैं. छत्तीसगढ़ विधानसभा के वर्तमान सचिव देवेंद्र वर्मा आज की स्थिति में मध्य प्रदेश कैडर में हैं और उनका पद अनुसंधान अधिकारी है जो बड़े बाबू के स्तर का पद है. मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद कर्मचारियों के बंटवारे के लिए एक व्यवस्था बनाई गई थी. बताया जाता है कि वर्मा ने इस बंटवारे और आवंटन का फायदा उठाया और अपने पद से तीन ग्रेड ऊपर सचिव का पद हासिल कर लिया. दरअसल बंटवारे के वक्त यह तय किया गया था कि कर्मचारियों से यह पूछा जाएगा कि वे कहां जाना चाहते हैं. कर्मचारियों की सहमति के बाद अंतिम सूची जारी होने पर अगर छत्तीसगढ़ को पर्याप्त कर्मचारी नहीं मिल पाते तो ऐसी स्थिति में प्रतिनियुक्ति पर अधिकारियों और कर्मचारियों की तैनाती करके काम चलाया जाएगा. वर्मा ने मध्य प्रदेश कैडर मांगा था.
मध्य प्रदेश सरकार के 11 मई, 2004 के राजपत्र में वर्मा का नाम मध्य प्रदेश कैडर में अनुसंधान अधिकारी के रूप में दर्ज है.
आरटीआई से मांगी गई जानकारी में भी मध्यप्रदेश विधानसभा ने जनवरी 2012 में उन्हें मध्य प्रदेश विधानसभा में अनुसंधान अधिकारी बताया है, जबकि वर्मा सितंबर, 2004 से छत्तीसगढ़ में विधानसभा सचिव हैं. उन पर आरोप लगता है कि वे मौके का फायदा उठाने यहां चले आए और इसके लिए उन्होंने प्रतिनियुक्ति के नियमों का पालन भी नहीं किया. 6 जुलाई, 2001 को वे इस नए राज्य में प्रमोशन पाकर उप-सचिव बने थे, दो साल बाद 29 सितंबर, 2003 को अपर-सचिव बनाए गए और एक सितंबर, 2004 को सचिव बन गए. जबकि प्रमोशन के लिए सरकारी नियम यह है कि कम से कम पांच साल में ही एक प्रमोशन मिल सकता है. और भी अहम बात यह है कि वे मध्य प्रदेश कैडर में हैं लिहाजा उनका प्रमोशन हो ही नहीं सकता था. आरोप है कि सत्ता की नजदीकी ने एक बाबू को नियमों के विरुद्ध एक बड़ा अफसर बना दिया जबकि विधानसभा में उनसे वरिष्ठ पद के कम से कम चार अफसर हैं जो उनके खिलाफ डर के मारे खामोश बैठे हैं. नियम विरुद्ध सचिव बने वर्मा पर विधानसभा में नियुक्तियों में भी मनमानी के आरोप हैं.
कहा जाता है कि सुरक्षा अधिकारी और अन्य पदों पर 50 से ज्यादा लोगों को बीते कुछ सालों में उन्होंने सीधे नियुक्ति दे दी. इसके लिए न कोई विज्ञापन निकाला गया, न इंटरव्यू हुए और यहां तक कि आरक्षण के नियमों का पालन तक नहीं किया गया. विधानसभा के दूसरे कर्मचारियों ने उन पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया और भूख हड़ताल तक की लेकिन वर्मा का कुछ नहीं बिगड़ा. यह भी आरोप है कि मीडिया को विधानसभा का पास देने में भी उनकी मनमानी चलती है. यही नहीं, विधानसभा सचिव ने पूरे देश के कानून को धता बताते हुए विधानसभा में आरटीआई के आवेदन का शुल्क 10 की जगह 500 रु कर दिया है. पूर्व विधायक और भाजपा के बागी नेता वीरेंद्र पांडे कहते हैं, ‘वर्मा मध्य प्रदेश कैडर में हैं, इसलिए उनका यहां प्रमोशन हो ही नहीं सकता था.
लेकिन नेताओं की जी हुजूरी करके उन्होंने अपनी राह बनाई. वे अपने पद से ऊपर का वेतन ले रहे हैं, लेकिन शिकायतों के बाद भी सरकार खामोश है. विधानसभा के दूसरे कर्मचारियों के ग्रेडेशन और प्रमोशन में भी वे निमयों को ताक पर रखकर कार्रवाई कर रहे हैं.’ लेकिन खुद वर्मा इन आरोपों से बिलकुल विचलित नहीं दिखते. वे कहते हैं कि उन्होंने हमेशा ईमानदारी का साथ दिया है. उनका दावा है कि 1985 में लाइब्रेरियन के पद पर भर्ती के बाद उनके नियमानुसार चार प्रमोशन हुए और वे सचिव बने. इससे ज्यादा पूछने पर वे नो कमेंट कह कर चुप हो जाते हैं. वीरेंद्र पांडे अब इस मामले में हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाने की तैयारी कर रहे हैं. मामला चलेगा या नहीं यह अभी तय नहीं, लेकिन इस बीच अगले साल वर्मा रिटायर हो जाएंगे.
अब मंत्रालय का हाल देखिए. नक्सलवाद से जूझ रहे प्रदेश में गृह विभाग के उपसचिव विलियम कुजूर के आफिस में एक डीएसपी रैंक के अफसर आते हैं और उन्हें सैल्यूट मारते हैं.
डीएसपी वहां डीजीपी की सेवा पुस्तिका संबंधी फाइल के बारे में पूछने आए हैं. जिस उपसचिव को वे सैल्यूट मार रहे हैं, उनकी सरकारी रिकॉर्ड में शैक्षणिक योग्यता हायर सेकेंडरी है. यानी मध्य प्रदेश के पुराने नियमों के अनुसार 11वीं पास. शायद ही पूरे देश में कहीं ऐसा होता होगा जहां नॉन ग्रैजुएट उपसचिव प्रदेश के पुलिस विभाग के मुखिया की सर्विस बुक देखते हों. यह अकेला मामला नहीं है. मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद यहां आए मंत्रालयीन कैडर के मैट्रिक पास अवरसचिव और उपसचिव राज्य में आईएएस अधिकारियों को आदेश दे रहे हैं. यह सच है लेकिन कम ही लोगों को पता है कि जो लोग राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था चला रहे हैं उनकी योग्यता चपरासियों से ज्यादा नहीं. इनमे से बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने अपनी नौकरी चपरासी के पद से ही शुरू की थी.
नए राज्य में आने पर इन्हें एक प्रमोशन तो तुरंत मिल गया. आरोप है कि उसके बाद से हर तीसरे साल इन लोगों ने प्रमोशन पाने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया. इस तरह नौ साल में उन्हें तीन प्रमोशन मिल चुके हैं और अब चौथे प्रमोशन का समय है. मध्य प्रदेश में जो चपरासी थे वे यहां आते ही एलडीसी बने. फिर यूडीसी और सेक्शन ऑफिसर बन गए. अब वे अंडर सेक्रेटरी बनने वाले हैं. जो बाबू थे वे अब डिप्टी सेक्रेटरी हैं और ज्वाइंट सेक्रेटरी बनने की तैयारी कर रहे हैं. यहां मंत्रालय में दो तरह के अफसर हैं. एक मंत्रालय कैडर के और दूसरे राज्य प्रशासनिक सेवा के. अंडर सेक्रेटरी स्तर पर मंत्रालय और राज्य सेवा अधिकारियों का अनुपात 60 और 40 का है. डिप्टी सेक्रेटरी स्तर पर यह अनुपात 80 और 20 है. राज्य सेवा के पद खाली हैं जिन पर मंत्रालय कैडर के अधिकारियों को प्रमोट करके बैठाने का प्रस्ताव है. यानी भविष्य में पूरा तंत्र ही मैट्रिक पास अधिकारियों के अधीन होगा.
तहलका के पास उपलब्ध सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक मंत्रालय कैडर के आठ डिप्टी सेक्रेटरियों में से सिर्फ एक ने ही ग्रैजुएशन किया है जबकि अंडर सेक्रेटरी के कुल 46 पदों में से 12 ग्रैजुएट हैं और सेक्शन ऑफिसर के 92 पदों की भी स्थिति यही है. पूरे प्रदेश में पिछले 12 साल में किसी का प्रमोशन नहीं हुआ है, लेकिन मंत्रालय में हर तीसरे साल प्रमोशन होता है. गृह विभाग के उपसचिव विलियम कुजूर कहते हैं, ‘मैंने इस पद पर आने में बहुत मेहनत की है.’ लेकिन नक्सल प्रभावित प्रदेश में गृह विभाग में अल्प शिक्षित अफसर से कितनी उम्मीद की जा सकती है? उधर, मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव वरिष्ठ आईएएस अफसर एन बैजेंद्र कुमार का तर्क है कि शिक्षा से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. वे कहते हैं, ‘इनके पास अनुभव है, जो भी जिम्मेदारी दी जाती है उसका पालन करते हैं. आदिवासी राज्य में मध्य प्रदेश के कर्मचारी आना नहीं चाहते थे, इसलिए उनके लिए प्रमोशन की पॉलिसी बनाई गई.’ लेकिन सरकार के मंत्रालय में सेक्शन ऑफिसरों की भर्ती कर्मचारी चयन आयोग से की जाती है जबकि यहां तो सचिव के पद तक चपरासी प्रमोट हो जाते हैं. इसका कोई संतोषजनक जवाब किसी के पास नहीं है. एक अधिकारी कहते हैं, ‘यहां चपरासी से अफसर बने बाबुओं का ही जलवा है. सरकार उनकी ही सुनती है और अगर हम कुछ बोलेंगे तो जाहिर सी बात है कि नक्सली इलाकों में भेज दिए जाएंगे. क्या होगा इस प्रदेश का?