1940 के दशक के उत्तरार्द्ध के भारतीय समाज, महाराष्ट्रीय संस्कृति तथा हिंदी फिल्म (संगीत) उद्योग को थोड़ा-बहुत जाने बिना लता मंगेशकर के कठिन संघर्ष, अद्वितीय प्रतिभा और महान उपलब्धि को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. गांधी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देश सर्वतोन्मुखी मुक्तिकामी आधुनिकता के द्वार पर खड़ा हुआ था. सिनेमा भी आमूल बदलने वाला था. ऐसे में पितृहीन, दोशीजा लता की नम्य आवाज स्वाधीनता की ओर बढ़ती हुई नयी, कुछ आधुनिक, कुछ पारंपरीण, किशोरी-युवती की गैर-पेशेवर, निर्दोष आवाज थी.
‘लता के आविर्भाव के बाद संगीत-निर्देशकों को एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गए’
लोक कलाकार पिता दीनानाथ तथा महाराष्ट्र, विशेषतः भेंडीबाजार घराने, की मिली-जुली मंचीय तथा शास्त्रीय परंपराओं में पली-बढ़ी, अविवाहित रहकर अपनी विधवा मां और बेसहारा भाई-बहनों का आसरा बनने का संकल्प करने वाली लता को प्रकृति ने अप्रतिम कंठ दिया ही था. ऐसी नारी भीष्म-प्रतिज्ञा शायद मराठी समाज और संस्कृति में ही संभव थी. हिंदी पार्श्वगायन में लता के प्रारंभिक तीन वर्ष संघर्ष के थे किंतु ठीक इन्हीं वर्षों में उन्होंने नूरजहां और शमशाद बेगम जैसी बड़ी गायिकाओं सहित सभी पूर्ववर्ती स्त्री-कंठों को अनचाहे ही कारुणिक रूप से सीमित या पुराना सिद्ध कर डाला. शायद अपने जमानों में सिर्फ एला फिट्जेरल्ड ने अमेरिका में, उम कुलसुम ने मिस्र में, एदीत प्याफ़ ने फ्रांस में और नाना मूस्हूरी ने यूनान में ऐसा कारनामा अंजाम दिया था. लेकिन जिस लता की आवाज सारी दक्षिण एशियाई नारी के जीवन की सभी भावनाओं और पड़ावों की आवाज बन गई, वैसा अब तक संसार में कहीं और नहीं हो पाया है. उन्हें यदि कभी चुनौती मिली भी तो अपनी छोटी बहन आशा से ही. यह भी एक पारिवारिक विश्व कीर्तिमान है.
लता के आविर्भाव के पहले जैसे हिंदी फिल्म संगीत-निर्देशकों का एक हाथ बंधा हुआ था. लता के कंठ ने उनकी प्रतिभा को नित-नयी उड़ान और चुनौती दी. उन्हें एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गये. अनिल विश्वास (तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, याद रखना चांद-तारों), खेमचंद प्रकाश (आएगा आने वाला), सी रामचंद्र (ये जिंदगी उसी की है, धीरे से आ जा री अंखियन में, कटते हैं दुख में ये दिन), नौशाद (बचपन की मुहब्बत को, जाने वाले से मुलाकात न होने पाई, मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार, फिर तेरी कहानी याद आई), रोशन (हे री मैं तो प्रेम दीवानी, देखो जी मेरा जिया चुराए, सखी री मेरा मन उलझे), शंकर जयकिशन (मेरी आंखों में बस गया, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, मेरे सपने में आना रे, मुरली बैरन भई), मदन मोहन (प्रीतम मेरी दुनिया में, सपने में सजन से दो बातें, माई री मैं कासे कहूं, मेरी वीणा तुम बिन रोए), सचिनदेव बर्मन (तुम न जाने किस जहां में, ठंडी हवाएं, आंख खुलते ही), वसंत देसाई (दिल का खिलौना हाय टूट गया, तेरे सुर और मेरे गीत), गुलाम मोहम्मद (शिकायत क्या करूं, रात है तारों भरी, चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, ठाढ़े रहियो ओ बांके यार), खय्याम (बहारों मेरा जीवन भी संवारो, आप यूं फासलों से गुजरते रहे, दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया), राहुलदेव बर्मन (पार लगा दे, रैना बीती जाए, शर्म आती है मगर), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी, कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार, आया आया अटरिया पे कोई चोर, बड़ा दुख दीना तेरे लखन ने), हेमंत कुमार (मन डोले मेरा तन डोले, छिप गया कोई रे, कहीं दीप जले कहीं दिल) तथा जयदेव, चित्रगुप्त, रवि, कल्याणजी-आनंदजी, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी आदि अन्य संगीतकारों की कुछ बेहतरीन धुनें लता के स्वर से ही चरितार्थ हो सकीं. उन्होंने आज के युवतर संगीतकारों के लिए भी अपना सर्वश्रेष्ठ गाने की कोशिश की है. आज के डिजिटल और सिंथेसाइजर युग में तो मुर्गे-मुर्गियां भी कोयल और बुलबुल बना दिए जा रहे हैं, जबकि लता ने सिर्फ अपनी मेहनत, लगन, आवाज़ और प्रतिभा के बल पर जीते-जी अमरत्व प्राप्त किया है.
उनके गीत आज भी लाखों की तादाद में बिकते हैं. अस्सी से लेकर आठ साल तक के करोड़ों श्रोता उन्हें रोज सुनते हैं. इंटरनेट ने उनके हजारों गानों को, जिनमें से कई नायाब थे, भूमंडलीय बना दिया है. वे सार्क-भावना का स्वर्णिम अवतार हैं. लता के सर्वश्रेष्ठ गीत कितने-कौन से हैं, इस पर कभी सर्वसम्मति नहीं हो सकती. यह कुछ-कुछ ‘हर ख्वाहिश पे दम निकले’ वाला गालिबाना मामला है. हर लता-प्रेमी के पास अपनी एक फेहरिस्त है, जिसे लेकर वह मरने-मारने पर आमादा हो जाता है. हम इसी में धन्य हैं कि जिस वक्त और फिजा में वे आलाप लेती हैं, उनमें हम भी सांस लेते हैं और इस खुशफहमी में जीते हैं कि लता को कोई और हमसे ज्यादा सराह और समझ ही नहीं सकता.