किसी आदिवासी व्यक्ति के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का सर्टिफिकेट सिर्फ़ उसे सरकारी नौकरियों और सरकारी योजनाओं का फ़ायदा लेने मात्र के लिए नहीं होता है, बल्कि वह उसकी पहचान, परंपरा, संस्कृति और अधिकारों का भी आधार होता है। लेकिन मध्य प्रदेश में ऐसे कई आदिवासी समुदाय हैं, जिन्हें अनुसूचित जनजाति के सर्टिफिकेट के लिए मशक़्क़त करनी पड़ रही है।
मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदाय भील, भिलाला, पटेलिया जो मध्य प्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचित जनजाति सूची में क्रमांक 07 पर दर्ज हैं। इस समुदाय के लगभग 75,000 लोग मध्य प्रदेश के ही झाबुआ, अलीराजपुर, धार आदि ज़िले से अपना घर परिवार ज़मीन-जायदाद सब छोडक़र 50 वर्ष पूर्व श्योपुर ज़िले में चले गये। यह आबादी श्योपुर ज़िले के लगभग 35 गाँवों में निवासरत है।
इन समुदायों को श्योपुर ज़िले में वर्ष 2010 तक हस्तलिखित और वर्ष 2014 तक ऑनलाइन डिजिटल स्थायी अनुसूचित जनजाति का सर्टिफिकेट दिया जाता था। किन्तु वर्ष 2014 के बाद सम्बन्धित अनुविभागीय अधिकारियों द्वारा आदिवासी आवेदकों को 1950 की स्थिति में निवास की पुष्टि न होने का कारण बताकर अनुसूचित जनजाति के सर्टिफिकेट के लिए किया गया आवेदन निरस्त कर दिया जाता है। यदि श्योपुर के आदिवासी सन् 1950 की स्थिति में झाबुआ, अलीराजपुर, धार ज़िले में निवासरत अपने पूर्वजों के पता से आवेदन करते हैं, तो सम्बन्धित अनुविभागीय अधिकारी द्वारा निवास व जाति तथा परिवार की पुष्टि न होने का हवाला देकर उक्त आवेदन को भी निरस्त कर दिया जाता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ज़िले के बरगवां में लगाई चौपाल और उसके बाद पीएम के कार्यक्रम से पहले कराहल आने पर इस सम्बन्ध में आश्वासन दे चुके हैं। इसके बावजूद इन तीनों आदिवासी समुदायों को जाति प्रमाण-पत्र पाने के लिए भटकना पड़ रहा है। इस प्रकार श्योपुर ज़िले में निवासरत इन तीनों आदिवासी समुदाय के युवाओं जहाँ छात्रवृत्ति, नौकरी एवं अन्य सरकारी योजनाओं से वंचित हो रहे हैं, वहीं इस समुदाय के लगभग 75,000 लोगों के समक्ष अपनी पहचान का भी संकट खड़ा हो गया है।
मध्य प्रदेश के सिवनी और छिंदवाड़ा में निवासरत गोंड जनजाति की उपजाति अगरिया समुदाय, जिन्हें गोंडी लोहार का दर्जा दिया गया है; को भी अनुसूचित जनजाति के सर्टिफिकेट के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। अगरिया समुदाय की आबादी लगभग 2,00,000 है। इन्हें लौह धातु का खोजकर्ता भी कहा जाता है। माना जाता है कि अगरिया लोग आदिकाल से लोहा गलाकर लौह अयस्क की गर्म भट्टी पर औज़ार बनाने का कार्य करते रहे हैं। अगरिया लोगों का नेग, दस्तूर, संस्कृति, रीति-रिवाज़ सब गोंड आदिवासी समुदाय के अन्य उपजातियों की तरह ही है। अगरिया लोगों का रहन-सहन, रिवाज़, परम्परा, सब कुछ अन्य हिन्दू (ओबीसी) लोहारों से भिन्न है। फिर भी मध्य प्रदेश सरकार अगरिया जनजाति के लोगों को लोहार जाति का मानकर ओबीसी का सर्टिफिकेट जारी करती है।
लौह प्रगलक अगरिया जनजाति, ज़िला सिवनी इकाई के अध्यक्ष प्रमोद कुमार बामनिया कहते हैं- ‘हमारा समाज आदिकाल से ही लोहा गलाने का कार्य करता रहा है। आज के समय में अगरिया जनजाति काफ़ी पिछड़ा और वंचित समाज है। सरकारी नौकरियों में हमारी भागादीरी नहीं है। हम लोग गोंड जनजाति के उपजाति में आते हैं, फिर भी मध्य प्रदेश सरकार हमें जनजाति का सर्टिफिकेट नहीं दे रही है।’
प्रमोद कुमार बामनिया आगे कहते हैं- ‘जिस प्रकार गोंड क्षेत्र में गाय चराने वाले गोंड जनजाति की उपजाति गोवारी को गुडेरा अहीर कहते हैं और उन्हें मध्य प्रदेश शासन द्वारा गोंड गोवारी जनजाति का सर्टिफिकेट दिया जाता है तो हमें क्यों जनजाति सर्टिफिकेट से वंचित रखा जा रहा है। जबकि सम्पूर्ण आदिवासी गोंड परधान व अन्य आदिवासी समाज भी अगरिया को आदिवासी मानता है, तो मध्य प्रदेश शासन हमें जनजाति सर्टिफिकेट क्यों नहीं दे रहा है?’
बामनिया सरकार से सवाल करते हैं- ‘मध्य प्रदेश के जनजाति सूची क्रमांक-16 में अंकित गोंड जाति की उपजाति अगरिया / गोंडी लुहार की स्पष्ट व्याख्या नहीं की जाकर सिर्फ़ अगरिया क्यों किया गया है। आज शासन आज़ादी का 75वीं वर्षगाँठ मना रहा है; लेकिन जो समाज पीछे छुट गया है। शासन उस समाज को आगे लाने का प्रयास क्यों नहीं कर रहा है? अगरिया और गोंडी लुहार एक ही हैं, फिर शासन स्पष्ट व्याख्या क्यों नहीं कर रहा है, क्यों अगरिया लोगों को जनजाति सर्टिफिकेट से वंचित किया जा रहा है?’
परिवार एजुकेशन में एजुकेशन को-ऑर्डिनटर मुन्ना पटेलिया कहते हैं- ‘श्योपुर ज़िले के कराल ब्लॉक में भील, भिलाला और पटेलिया समाज के सन् 2013 तक जब ऑफलाइन अनुसूचित जनजाति प्रमाण-पत्र बनते थे। लेकिन 2014 से ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू कर दी गयी, तबसे अनुसूचित जनजाति के सर्टिफिकेट देने में प्रशासनिक अधिकारी आनाकानी कर रहे हैं। अधिकारी बोलते हैं कि आप लोग पहले जहाँ के (इंदौर संभाग के सभी ज़िलों के) स्थायी निवासी थे, वहीं से सर्टिफिकेट बनवाकर लाओ। जबकि इंदौर संभाग से इन जातियों के लगभग 75,000 लोग 50-55 साल पहले चंबल संभाग के श्योपुर ज़िले की कराल तहसील में बस गये थे। अब जब तीसरी पीढ़ी यहाँ की मूल निवासी हो चुकी है, तो फिर इंदौर संभाग में किसी को वहाँ का कोई अधिकारी सर्टिफिकेट कैसे देगा? दूसरी बात यह है कि एक परिवार में मान लीजिए छ: लोग हैं, जिनमें दो का अनुसूचित जनजाति प्रमाण-पत्र कराल का है और चार सदस्यों का इंदौर संभाग का है, तो उन्हें कोटे से राशन नहीं मिलता। राशन वितरक बोलते हैं कि आप अपने पुराने मूल निवास से जाकर राशन लीजिए। इस तरह की और भी कई समस्याएँ हम लोगों के सामने आ रही हैं, जिनका समाधान सरकार को करना चाहिए।’
इसी तरह बैतूल ज़िले गायकी जाति को भी वर्ष 2017 से अनुसूचित जनजाति का सर्टिफिकेट नहीं मिल पा रहा है। पिछले दिनों गायकी समुदाय के लोगों ने बैतूल में प्रदर्शन भी किया और चेतावनी दी कि यदि उनकी समस्याओं का हल नहीं होगा, तो वे मिलकर मुख्यमंत्री आवास पर भी धरना देंगे।
गायकी जाति मध्य प्रदेश शासन के राजपत्र में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की सूची में क्रमांक 16 पर अंकित है। बैतूल ज़िला प्रशासन के अधिकारी गायकी जाति द्वारा दिये जा रहे लिखित रिकॉर्ड दस्तावेज़ों को भी अमान्य कर रहे हैं, जबकि बैतूल ज़िले में वर्ष 2017 तक गायकी जाति को अनुसूचित जनजाति का सर्टिफिकेट जारी किया जाता था। इस सम्बन्ध में कलेक्टर ज़िला बैतूल एवं अनुविभागीय अधिकारी मुलताई का कहना है कि ‘गायकी जाति किस वर्ग में सम्मिलित हैं? इसके स्पष्ट दिशा-निर्देश कार्यालय में अप्राप्त हैं।’
विधानसभा में 14 मार्च 2022 को प्रश्न क्रमांक-1524 के उत्तर में जनजाति कार्यमंत्री कुमारी मीना सिंह मांडवे ने बताया था कि ‘बैतूल ज़िले में गायकी समाज को परीक्षण उपरांत अनुसूचित जनजाति के प्रमाण-पत्र जारी किये जा रहे हैं।’
क्या है संविधान में प्रावधान?
भारत के तमाम आदिवासी समुदाय, जिन्हें भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा गया है। संविधान के अनुच्छेद-342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति में नोटिफाइड किया गया है। किसी भी आदिवासी व्यक्ति के लिए अनुसूचित जनजाति का सर्टिफिकेट सिर्फ़ सर्टिफिकेट नहीं होता है, बल्कि वह उनकी पहचान, परम्परा, रीति-रिवाज़, संस्कृति और उनके संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा होता है। आदिवासी समुदाय आज भी अपनी परम्परा और संस्कृति और अपने परम्परागत रीति रिवाज़ों को पूरे मन से मानते हैं। चाहे वह जन्म हो या फिर शादी-ब्याह, आदिवासी अपने पारम्परिक रीतियों को बड़े उत्साह के साथ जीते हैं। आदिवासियों के जीवनशैली की $खासियत यह है कि इनसे कभी प्रकृति को हानि नहीं पहुँचती है।