शिवेंद्र राणा
चंद्रयान, जी20 के चमक-दमक से लेकर नारी शक्ति वंदन बिल के शोर में घोसी उपचुनाव की हार की समीक्षा दब गयी या सत्ताधारी दल द्वारा रणनीतिक रूप से दबा दी गयी। ये एक साधारण-सा तथ्य है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। वरना वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात का अपना गढ़ छोडक़र उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी यूँ ही नहीं आये थे।
देश में हर अच्छी चीज़ के लिए प्रधानमंत्री को श्रेय देने वाले भाजपाई घोसी की हार पर मौन हैं। हालाँकि इस समय भाजपा के कार्यकर्ताओं की स्थिति वैचारिक रूप से बड़ी विकट है। उन्हें पता ही नहीं है कि किसका विरोध करना है और किसका समर्थन? कल तक जिस दारा चौहान द्वारा भाजपा-संघ के कटु विरोध के कारण भाजपाइयों के बीच उन पर लानत-मलानत भेजने की होड़ थी, अब उन्हीं चौहान को पालकी पर ढोना पड़ रहा है। भाजपा ने जो दुर्गति अपने कॉडर की कर रखी है, वह किसी भी दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता की नहीं है।
इस समय भाजपा देश भर के अवसरवादियों और भ्रष्ट राजनीतिक तत्त्वों की सबसे बड़ी आश्रयदाता है। चूँकि वह सत्ता के स्वर्णिम काल में है, इसलिए येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की नैतिकताविहीन परिकल्पना उसके शुभ-अशुभ के मूल्यांकन की क्षमता को बाधित कर रही है। सत्ता का ज्वार इतना तीव्र है कि पार्टी अपने उन कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को भी अपमानित करने से नहीं चूक रही, जिन्होंने अपना पूरा जीवन, सर्वस्व पार्टी के लिए होम कर दिया। सन् 2014 से पहले जो पार्टी और विचारधारा के संघर्ष के लिए सदन से सडक़ तक संघर्षों में प्राणपण से जुटे रहे, सत्ता मिलते ही उन्हें नये नेतृत्व ने न सिर्फ़ ठोकर मारी, बल्कि निरंतर अपमानित भी किया।
इसके विपरीत पार्टी अपनी विचारधारा से नितांत अपरिचित ही नहीं, बल्कि अपने कटु आलोचकों के लिए रेड कॉर्पोरेट बिछाने को व्यग्र है। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं ही नहीं, बल्कि संघ के स्वयंसेवकों में भी असन्तोष और असहजता की स्थिति पैदा हो गयी है। घोसी उपचुनाव में दारा चौहान को प्रत्याशी घोषित करना और कार्यकर्ताओं की नाराज़गी भी हार का एक प्रमुख कारण था। अत: इन्हीं वजहों को लेकर कॉडर अब नेतृत्व के समक्ष प्रश्नवाचक मुद्रा में है, जिसे टालना न संघ के लिए सम्भव है और न भाजपा के लिए।
अब यहाँ मातृ संगठन के रूप में संघ की भूमिका बढ़ जाती है; लेकिन उसकी वैचारिक स्पष्टता की महिमा अपरंपार है। उत्तर प्रदेश में सांगठनिक कील-काँटे दुरुस्त करने के उद्देश्य से संघ प्रमुख मोहन भागवत भी तीन दिवसीय लखनऊ दौरे पर रहे। लेकिन इन मुद्दों पर उन्होंने वही रटा-रटाया बयान दिया, जो उन समेत संघ का शीर्ष नेतृत्व पिछले कई वर्षों से देता आ रहा है। जैसे कि ‘जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। संघ का काम किसी को हराना या जिताना नहीं है। संघ का कार्य हिन्दू समाज को जागृत और संगठित करना है। भाजपा का अपना एजेंडा है। वह जो करेगी, उसी तरह का उसे प्रतिफल मिलेगा। आगे कैसे करना है। इस पर भी उन्हें गम्भीरता से सोच-विचार करना चाहिए। संघ उसमें दख़ल नहीं देगा।’
अब देखिए, सन् 2015 में भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के हाथों अपमानजनक पराजय के बाद भी भागवत ने ऐसा ही बयान दिया था कि ‘भाजपा जैसा करेगी, वैसा ही भरेगी। उसका आकलन उसके कार्यों से किया जाएगा। संघ का इससे कोई लेना-देना नहीं है।’ लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? अल्फ्रेड नोबेल कहते हैं- ‘कृषि के बाद पाखण्ड हमारे युग का सबसे बड़ा उद्योग है।’
इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत में सामाजिकता हो या सांस्कृतिक आन्दोलन अथवा राजनीति सबमें पाखण्ड की अभिव्यक्ति चरम पर है। यदि संघ का भाजपा के कार्यों से कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर प्रश्न यह है कि लोकसभा-विधानसभा या चाहे कोई भी चुनाव हो, संघ पूरे दल-बल के साथ भाजपा के साथ सक्रिय क्यों दिखता है? यदि संघ भाजपा सरकारों के कार्यशैली पर कोई नियंत्रण रखने में सक्षम नहीं है, उसकी जवाबदेही नहीं तय कर सकता, तो फिर उसे भाजपा के पक्ष में मतदान की अपील और राजनीतिक लामबंदी पैदा करने का क्या अधिकार है? पर ऐसे सवालों का संघ के पास वही यांत्रिक बयान होगा, जिस पर चर्चा खीझ पैदा करेगी। ज़िम्मेदारी के बिना अधिकार के विचार को संघ नेतृत्व ही परिभाषित कर सकता है; क्योंकि उसके कार्यों एवं बयानों में जो विरोधाभास है, उसका विश्लेषण आम आदमी के बूते की बात नहीं है।
घोसी उपचुनाव में दलित और पिछड़े तो ख़िलाफ़ थे ही, सवर्ण जातियाँ, जिनका वोट भाजपा अपनी बपौती मानती रही है; उसका एक बड़ा भाग विपक्ष के खाते में गया है। हालाँकि देश में हर छोटी-बड़ी घटना के लिए मोदी-मोदी की जय-जयकार करने वाले भाजपाई उपचुनाव की हार पर चर्चा नहीं करना चाहते। अगले आम चुनाव के लिए यह हार एक बड़ा संदेश है। मोदी के देवत्व के नारों में भाजपाई बिग्रेड चाहे जितना झुठलाए, किन्तु सत्य यही है कि जनता का एक बड़ा वर्ग इस सरकार की कार्यशैली और उसके कई बेतुके फ़ैसलों चिढ़ा हुआ है। इसलिए जितना भाजपाई 2024 की राह आसान बता रहें हैं, वह भ्रमपूर्ण स्थिति है। उन्हें भी पता है कि अगले आम चुनाव की राह में कई मुश्किलें हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि एंटी-इनकम्बेसी के सहारे कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अब धीरे-धीरे मज़बूत हो रहा है। लेकिन कैसे? इसकी मुख्य वजह सत्तारूढ़ दल का अहंकार है। सत्ता का तामस सँभालना अत्यंत दुष्कर है। भाजपा भी इसका अपवाद नहीं। अटल-आडवाणी के काल में संजोये जद(यू), शिवसेना एवं अकाली दल जैसे पुराने सहयोगी एक-एक करके छिटकते गये। अब नयी सहयोगी बनी अन्नाद्रमुक ने भी अपना हाथ छुड़ा लिया। राजनीतिक समीकरण इसकी एक वजह हो सकती है; लेकिन भाजपा का सत्ताजनित अहंकार इसका एक बड़ा कारण है। यह अहंकार का भाव सिर्फ़ पार्टी तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके मातृ संगठन संघ तक में प्रविष्ट हो चुका है।
अपने लखनऊ यात्रा के दौरान संघ प्रमुख का अपने कॉडर के लिए संदेश था- ‘स्वयंसेवक का आचरण और व्यवहार ठीक हो। उनके व्यक्तित्व में सादगी हो। समाज में उनकी प्रामाणिकता हो। तभी लोग संघ के प्रति आकर्षित होंगे और उसकी विचारधारा से जुड़ेंगे।’ लेकिन वास्तविकता थोड़ी अशुभ है। पिछले एक दशक में संघ के पदाधिकारियों के व्यवहार परिवर्तन को देखिए, अहंकार से भरे हुए; सत्ता की शक्ति के प्रदर्शन में लिप्त; भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति आकर्षित; लेकिन सार्वजनिक जीवन में सादगी का पाखण्ड प्रदर्शित करते हुए। यह वास्तविकता है। बल्कि बड़े स्तर के पदाधिकारियों की स्थिति यह है कि कार्यालय में उनसे मिलने आये आगंतुकों से बात करने तक को वह अपना अपमान समझते हैं। जबकि एक समय था, जब संघ के प्रचारकों का त्याग, सौम्यता और कायिक-वाचिक निष्ठा उनके वैचारिक विरोधियों के बीच भी सराहनीय एवं आदर के साथ चर्चा का विषय बनी रहती थी। इसकी एक दूसरी वजह भी है। संघ की स्थापना के मूलभूत विचारों में कभी भी सत्ता भागीदारी की संकल्पना नहीं रही है; लेकिन अब तो संघ का शीर्ष नेतृत्व न सिर्फ़ राजनीतिक भाषणबाज़ी में लगा है, बल्कि खुलेआम राजनीतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन भी दे रहा है। यह उस प्रक्रिया का परिणाम है, जो पिछले एक दशक से अधिक समय से प्रभाव में है। गृहस्थ जीवन के विचार का त्याग करते हुए आजीवन राष्ट्र की सेवा के बोध से स्वयं को समर्पित करने वाले स्वयंसेवकों के बजाय संघ की सांगठनिक संरचना में बड़ी संख्या में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले लोगों का प्रवेश हुआ।
एक समय जनसंघ से लेकर भाजपा तक की राजनीतिक गतिविधियों में सहयोग के लिए ठेलकर भेजे जाने वाले पदाधिकारियों की जगह ऐसे वर्ग का प्रसार हो चुका है, जो संघ को राजनीतिक प्रतिष्ठा, संसद से लेकर विधानमंडलों तक जाने का एक माध्यम समझता है। वह संघ के अपने दायित्व से मुक्त होकर भाजपा के साथ जुडऩे को लालायित है। स्पष्ट शब्दों में कहें, तो संघ अब अघोषित राजनीतिक गतिविधियों के ऐसे केंद्र में परिवर्तित हो चुका है, जिसने अपने मूलभूत सांस्कृतिक सेवा के भाव को कहीं पीछे छोड़ दिया है। यही वजह है कि 2024 का आम चुनाव एक मायने में बहुत $खास होने वाला है। इसने संघ के सांस्कृतिक संगठन होने के मुखौटे को उतार दिया है। संघ बिरादरी न सिर्फ़ खुलकर चुनावी भाषा बोल रही है, बल्कि चुनावी रण में खुले में ताल ठोक रही है। शास्त्रीय नियमों के अनुसार, किसी भी संगठन की औसत आयु एक शताब्दी यानी सौ साल की होती है। सन् 1925 में स्थापित संघ भी अपने स्थापना की शताब्दी पूर्ण करने के समीप है। क्या सांस्कृतिक निष्ठा और राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित संघ पतनशीलता की ओर अग्रसर है? क्या यह संघ के नैसर्गिक सिद्धांतों एवं कार्यशैली में गिरावट का संकेत है? $खैर, यह एक अलग चर्चा का विषय है। लेकिन इससे संघ-भाजपा के ऊपर एक दशक की एकछत्र सत्ता के दुष्प्रभाव को स्पष्ट देखा-समझा जा सकता है। मातृ संगठन की वैचारिक निष्ठा में गिरावट का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव भाजपा समेत उसके दूसरे आनुषांगिक संगठनों पर भी पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि उपरोक्त विश्लेषण से दक्षिणपंथी बौद्धिक जगत परिचित नहीं है। असल में वर्तमान सत्ताधारी दल के नेता और कार्यकर्ता हों या संघ के कॉडर और पदाधिकारी सभी जानते हैं कि वर्तमान सरकार की दशा और दिशा दोनों ख़राब हैं। लेकिन कोई भी सार्वजनिक रूप से यही कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है; और जो यह प्रयास कर रहे हैं, उन्हें पार्टी और संगठन में अपमानित किया जाता है। जॉर्ज ऑरवेल कहते हैं- ‘समाज जितना ही सच्चाई से दूर होता जाएगा, उतना ही सच बोलने वालों से नफ़रत बढ़ती जाएगी।’
यही स्थिति संघ-भाजपा की है। वैसे संघ-भाजपा के काडर को एक बात के लिए दाद देनी होगी कि उनके एक बड़े वर्ग में असन्तोष होते हुए भी दिल पर पत्थर रखकर सरकार की अच्छी या अनर्गल हर बात का पुरज़ोर समर्थन कर रहे हैं। निर्मल वर्मा लिखते हैं- ‘आदमी को पूरी निर्ममता से अपने अतीत में किये कार्यों की चीर-फाड़ करनी चाहिए, ताकि वह इतना साहस जुटा सके कि हर दिन थोड़ा-सा जी सके।’ लेकिन आत्ममूल्यांकन के लिए भी आत्मसजगता बौद्धिक चेतना की आवश्यकता होती है। अत: सत्ता सुख के सागर में अबाध गोते लगा रहे वैचारिक तिलांजलि दे चुके वर्ग से इसकी उम्मीद मूर्खता होगी। लेकिन यदि सत्ताधारी वर्ग इस दिशा में थोड़ा प्रयत्न कर सके, तो भारतीय राजनीति के लिए शुभ होगा।
(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)