आत्मनिर्भर भारत और ज़मीनी हकीकत

क्या आप जानते हैं कि ओलंपिक के 123 साल के इतिहास में भारत ने कभी इन खेलों की मेजबानी नहीं की है। इसके लिए जो खेल ढाँचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) चाहिए, वह भारत के पास उपलब्ध नहीं है। ऊपर से इसके लिए बड़े पैमाने पर खर्चा करना होता है, जो भारत आसानी से वहन नहीं कर सकता। ओलंपिक मेजबानी की इस तस्वीर में यदि हम अपने देश के आॢथक ढाँचे को देखें, तो कमोवेश ओलंपिक ढाँचे जैसी ही तस्वीर उभरती है। आत्मनिर्भर भारत और मेड इन इंडिया के नये नारे देश की फज़ाँ में तब गूँजने शुरू हुए हैं जब चीन से पश्चिम देशों की नाराज़गी को देखते हुए कम्पनियों के बड़े पैमाने पर भारत आने की कल्पना की जा रही है। लेकिन क्या यह सचमुच इतना आसान होने वाला है? ऐसी ही तमाम शंकाओं और सम्भावनाओं पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट :-

भारत सरकार के वाणिज्य विभाग की रिपोर्ट। सरकार के आँकड़े कहते हैं कि पिछले साल अप्रैल से लेकर इस साल जनवरी तक भारत ने 28.40 लाख करोड़ रुपये का आयात किया। जबकि इसी अवधि में हमारा एक्सपोर्ट इससे कहीं कम महज़ 8.60 लाख करोड़ रुपये रहा। यानी माइनस 9.79 लाख करोड़ रुपये का ट्रेड बैलेंस। अमेरिका को अपना बड़ा व्यापारिक साझेदार बनाने की कोशिशों के बीच ‘मेड इन इंडिया’ के बाद ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा गूँजा है। यह नारा तब गूँजा है, जब सरकार के 20 लाख करोड़ रुपये के आॢथक पैकेज पर ही हज़ारों सवाल उठ खड़े हुए हैं।

आत्मनिर्भर भारत या मेड इन इंडिया का नारा वैसा ही लुभावना लग रहा है जैसा आज से 48 साल पहले इंदिरा गाँधी का गरीबी हटाओ का नारा लुभावना था और लोकप्रिय हुआ था। कुछ कोशिशें उस समय हुई भी थीं। लेकिन गरीबी आज भी उसी पायदान पर है। आज शायद उससे भी खराब स्थिति है। अगर नहीं होती, तो लॉकडाउन में भारत का एक बड़ा वर्ग यूँ भूखा-प्यासा सडक़ों पर नहीं होता। रेलवे ट्रैक, सडक़ों के अनजाने मोड़ों पर और भूख से इस तरह मौतें नहीं हो रही होतीं और न ही कोई पीडि़त होकर मौत को गले लगा रहा होता। लाखों लोगों का रोज़गार नहीं छिना होता। 14 साल की बच्ची 100 किलोमीटर पैदल चलकर और न जाने कितने ही मजबूर बच्चे, बड़े, बीमार और बूढ़े रास्ते में दम तोड़ रहे होते और 14 साल की ज्योति को अपने बुजुर्ग पिता को 1200 किलोमीटर दूर अपने घर तक साइकिल चलाकर न ले जाना पड़ता। कोई महिला प्रसव पीड़ा से सडक़ पर नहीं कराह रही होती। कोई गर्भवती महिला सिर पर बोझ उठाये और गोद में अपने मासूम को लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल नहीं चली होती।

तो क्या आत्मनिर्भर भारत का नारा भी एक राजनीतिक मुहावरा भर ही है? बिना मज़बूत ढाँचे और बिना ज़मीनी तैयारी के चीन से हज़ारों कम्पनियों के निकलकर भारत आ जाने की उम्मीद क्या एक कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं? क्या अमेरिका, इटली, जर्मनी या फ्रांस में रहते हुए किसी महँगे गैजेट पर मेड इन इंडिया लिखा देखने की यह चाह बस एक चाह ही रह जाएगी? ज़मीनी हकीकत तो कुछ यही कहती है।

आजकल यह विषय चर्चा में है कि चीन के वुहान से जिस तरह घातक वायरस निकलकर दुनिया को तबाह कर गया, उसी तरह निर्माण कम्पनियाँ वहाँ से निकलकर चीन को तबाह कर देंगी। कोविड-19 के बाद दुनिया के बहुत-से देशों में चीन के प्रति ज़बरदस्त नाराज़गी है, इसमें कोई दो राय नहीं है। चीन से छिटकने वाले इसी बाज़ार को भारत अपने लिए एक उम्मीद के रूप में देख रहा है।

मोदी सरकार के आत्मनिर्भर भारत और मेड इन इंडिया के नारे से कुछ समय पहले ही उनकी ही पार्टी भाजपा और आरएसएस से जुड़े रहे शेषाद्रिचारी ने एक ट्वीट किया था। इस ट्वीट में शेषाद्रिचारी ने लिखा था- ‘चीन से अपना बोरिया-बिस्तर समेट रही 50 कम्पनियों में से सिर्फ तीन ने भारत आने की इच्छा जतायी है। बाकी 47 कम्पनियाँ वियतनाम, फिलीपींस, बांग्लादेश आदि देशों में जाना चाह रही हैं।’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बातचीत करके बाहर से निवेश की ज़मीन टटोल रहे हैं। लेकिन इस बीच तथ्य यह भी है कि चीन में बिस्तर समेटनी वाली अपनी कम्पनियों को जापान और अमेरिका जैसे देश स्वदेश लौटने को कह रहे हैं। वे उन्हें मूविंग कास्ट देने का ऐलान कर चुके हैं। क्या भारत ऐसा ही ऑफर कम्पनियों को करने की स्थिति में है, अगर वह उन्हें अपनी ज़मीन पर लाना चाहे?

हाल में भाजपा शासित उत्तर प्रदेश से शुरू होकर एक कानूनी प्रस्ताव भी दूसरे राज्यों में पहुँचा है। वैसे तो यह कानून कामगारों की कब्र खोदने जैसा है। लेकिन इसे विदेशी निवेश को आकर्षित करने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा जा रहा है। यह है, लेबर लॉ (श्रम कानून) को तीन साल के लिए निलंबित कर देना। अर्थात् विदेशी कम्पनियों को यह जताने की कोशिश की जाने लगी है कि आप बस हमारे देश आ जाओ, मज़दूरों का जैसे मर्ज़ी इस्तेमाल करो। जितनी मर्ज़ी तनख्वाह दो। जब मर्ज़ी हो उन्हें निकालकर बाहर फेंक दो।

लेकिन नागरिकता कानून जैसे प्रावधानों से देश की जो छवि पिछले महीनों में विदेशों में बनी है, वह भी विदेशी निवेश के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा है। मोदी सरकार की छवि देश से बाहर एक कट्टरवादी हिन्दू पार्टी वाली सरकार की बन रही है, जिससे यह सन्देश जा रहा है कि यहाँ दूसरे धर्म के लिए अब वैसा सम्मान नहीं रहा। यह निवेश की दृष्टि से बहुत बड़ा झटका है; जिस पर कोई बात नहीं कर रहा।

बाहर की कम्पनियाँ ऐसे देश में निवेश से हिचकती हैं, जहाँ की सरकार की छवि एक कट्टरवादी सोच वाली सरकार की हो। नहीं भूलना चाहिए कि नागरिकता कानून लाने और जम्मू-कश्मीर में धारा-370 खत्म करने के एक तरफा फैसले के बाद विदेशों में भी भारत के खिलाफ खूब प्रदर्शन हुए थे। आिखर विदेशी कम्पनियों को यहाँ पैसा झोंकना है, तो उन्हें वैसा माहौल और सुविधाएँ भी चाहिए होंगी।

इसके विपरीत इंफ्रास्ट्रक्चर फ्रंट पर खोखली ज़मीन को सींचने के लिए कुछ नहीं हो रहा। देश में नौकरशाही और लालफीताशाही से कारोबार को मुक्त करने की दिशा में कुछ नहीं हो रहा। अपेक्षाकृत प्रगतिशील मंत्री की छवि रखने वाले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी एक महीने से कह रहे हैं कि दुनिया भर के देशों में चीन से नाराज़गी है और चीन छोडक़र जाने के लिए कई कम्पनियाँ तैयार हैं। ऐसे में उनको भारत आने के लिए आकर्षित करना चाहिए। लेकिन कैसे करना चाहिए? इसका रास्ता अभी वह भी नहीं सुझा रहे हैं।

चीन छोडऩे की तैयारी कर रही कम्पनियों के भारत आने के प्रति बहुत रुझान नहीं दिखाने से हमें जिस तरह सचेत होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। उलटे इससे मोदी सरकार की आॢथक प्रबन्धन की छवि पर बड़ा सवालिया निशान लगा है। हाल ही में घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के आॢथक पैकेज को बेहद कामचलाऊ उपाय के रूप में देखा जा रहा है।

सरकार समर्थक आॢथक विशेषज्ञों को छोडक़र देश के और यहाँ तक कि अन्य देशों के भारत के प्रति रुचि रखने वाले आॢथक विशेषज्ञ भी इससे कतई उत्साहित नहीं हैं। वे मान रहे हैं कि यह महज़ एक राजनीतिक घोषणा है, जिसका वर्तमान में भुखमरी झेल रहे लोगों को कोई लाभ नहीं मिलेगा। जिसके प्रति बड़े पैमाने पर लोगों में अविश्वास बन जाये, ऐसे आॢथक इंतज़ाम के चलते कैसे हम बड़े विदेशी निवेश की कल्पना भी कर सकते हैं।

आत्मनिर्भर भारत के मायने हैं, भारतीयों को किसी भी चीज़ के लिए किसी पर निर्भर न रहना पड़े। पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी (पाँच करोड़ लाख अर्थ-व्यवस्था) के नारे के बीच यदि हमारे आयात-निर्यात का ट्रेड बैलेंस  (व्यापार-जमा) ही 9.79 लाख करोड़ रुपये के घाटे (अप्रैल, 2019 से जनवरी 2020 के बीच) में गोते लगा रहा हो, तो समझा जा सकता है कि हमें अभी आत्मनिर्भर होने के लक्ष्य के लिए कितनी मेहनत की दरकार है।

यदि मोदी सरकार के समय की ही बात की जाए, तो वाणिज्य मंत्रालय का डाटा बताता है कि 2014-15 से 2019-20 के अप्रैल से जनवरी के बीच की अवधि के लिहाज़ से भारत ने कुल 115.85 लाख करोड़ रुपये का निर्यात किया, यानी अपना माल बाहर बेचा; जबकि इसके विपरीत विदेशों से जो माल आयात किया (खरीदा), उसकी राशि कहीं ज़्यादा 172.39 लाख करोड़ रुपये है।

इस लिहाज़ से भारत के आयात-निर्यात का यही व्यापारिक घाटा इन छ: वर्षों में भारी-भरकम रकम 56.54 लाख करोड़ रुपये का रहा। यह भी तब है, जब नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री सत्ता सँभालने के कुछ समय बाद ही मेक इन इंडिया लॉन्च किया। ज़ाहिर है या तो इसमें कमी रही है या इसे लेकर जो आँकड़े पेश किये गये, वे महज़ कागजी थे। सबसे बड़ी बात यह कि जिस चीन को हम आॢथक शक्ति के रूप में अपना प्रतिद्वंद्वी मानते हैं, अकेले उसी चीन से हमारा यह घाटा करीब 19.75 लाख करोड़ रुपये रहा, जो कि लगभग वर्तमान आॢथक पैकेज के बराबर के है।

हाल के वर्षों में चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी रहा है। चीन से व्यापारिक सहयोग की शुरुआत आॢथक विशेषज्ञ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के रहते ही हो गयी थी, जब हमने यूएई के मुकाबले 2011-12 में चीन को प्रमुखता देनी शुरू की। यह सिलसिला अभी चल रहा है; लेकिन पिछले दो साल से मोदी सरकार का रुख चीन से हटकर अमेरिका की तरफ हो गया है।

इसका एक कारण मोदी का अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रति झुकाव भी है। इससे पहले उनका झुकाव बराक ओबामा (जब वह अमेरिका के राष्ट्रपति थे) की तरफ था। एक तरह से अब अमेरिका ने चीन की जगह ले ली है और वह भारत के सबसे बड़े व्यापारिक सहयोगी के रूप में सामने आया है। वैसे यहाँ यह बताना भी दिलचस्प है कि यह लाभकारी रहा है। अमेरिका से व्यापार का मामला भारत के लिए लाभकारी साबित हुआ है और यह इस साल जनवरी तक के आँकड़ों के लिहाज़ से करीब-करीब 90 हज़ार करोड़ प्लस में है। यहाँ खतरे अमेरिका की नीति के ही हैं, जिसके बारे में माना जाता है कि वह चारा डालकर गर्दन कलम करता है।

यह बहुत दिलचस्प है कि चीन से आज जो कम्पनियाँ बाहर निकल रही हैं, उनमें से काफी कम्पनियाँ वियतनाम की ओर रुख कर रही हैं। वियतनाम चीन की ही तरह एक कम्युनिस्ट देश है और वहाँ का श्रम कानून लगभग चीन की ही तरह है। यहाँ यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि वियतनाम में आॢथक उदारीकरण 1990 के आसपास कमोवेश उसी समय शुरू हुआ, जब भारत में हुआ। चीन में विदेशी कम्पनियों को जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा आकर्षित किया था, वह था- सस्ते श्रमिक और मज़बूत व्यापारिक ढाँचा। वियतनाम काफी कुछ वैसा ही है।

अप्रैल के मध्य तक के आँकड़ों के मुताबिक, चीन से 56 कम्पनियों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेटा है। इनमें से 26 कम्पनियाँ वियतनाम में स्थापित हुई हैं। इसके अलावा जिस ताईवान से आजकल चीन की ठनी हुई है, वहाँ 11 कम्पनियाँ पहुँची हैं; जबकि आठ कम्पनियों ने थाईलैंड में डेरा डाला है। भारत में सिर्फ तीन कम्पनियाँ ही आयी हैं। इसे बेहद निराशाजनक कहा जा सकता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत पहले से एक धर्म निरपेक्ष देश के रूप में भारत की एक विश्वसनीय छवि रही है। लेकिन चीन और वियतनाम के विपरीत भारत का व्यापारिक ढाँचा बेहद कमज़ोर है। लेकिन इसे सुधारा जा सकता है। क्योंकि दुनिया में आज दवाओं के अलावा कृषि, प्रोसेस्ड फूड, गारमेंट, जेम्स और ज्वैलरी, लेदर लेदर प्रोडक्ट, कारपेट और इंजीनियङ्क्षरग प्रोडक्ट जैसी कई वस्तुओं के निर्यात की भारत से बहुत अच्छी सम्भावनाएँ मानी जाती हैं। खासकर, दवाई क्षेत्र (फार्मा उद्योग) भारत के लिए रामबाण साबित हो सकता है। यूएसएफडीए के मानकों के अनुरूप अमेरिका से बाहर सबसे अधिक संख्या में दवा प्लांट भारत के पास हैं। सवाल केवल बेहतर व्यापारिक ढाँचे का ही है।

रेटिंग कम्पनी नोमुरा की हाल की एक रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि चीन में पिछले कुछ समय में मज़दूरी की लागत बड़ी है। वहाँ सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। इससे भी विदेशी कम्पनियाँ विकल्प देखने को मजबूर हुई हैं। भारत सरकार ने हाल के महीनों में विदेशी निवेश को लेकर कुछ फैसले किये हैं, जिनमें सबसे प्रमुख फैसला ऑटोमैटिक रूट (स्वत: अनुमोदित मार्ग) को लेकर है। भारत ने पड़ोसी देशों से होने वाले निवेश का यह ऑटोमैटिक रूट बन्द कर दिया है। अर्थात् बिना मंज़ूरी निवेश का रास्ता बन्द कर दिया है।

इस फैसले के पीछे चीन को लक्ष्य करना ही माना जाता है। दरअसल पहले भारत में विदेशी निवेश के दो ज़रिये होते थे। कुछ चिह्नित क्षेत्र में निवेश वाली कम्पनियों को एक निश्चित प्रतिशत तक निवेश की सीधी छूट सरकार से है, जिसमें सरकार की मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं रहती थी। लेकिन बिना अनुमति निवेश को बन्द करते हुए सरकार ने ऑटोमैटिक रूट बन्द कर दिया है। अर्थात् किसी भी पड़ोसी देश को अब निवेश के लिए सरकार से मंज़ूरी लेना अनिवार्य होगा; चाहे वह किसी भी सीमावर्ती देश का (पैसे के मामले में) निवेश हो।

इसके अलावा विदेश की कम्पनियों को भारत लाने के लिए भारत सरकार ने मेक इन इंडिया के तहत कॉरपोरेट टैक्स 35 फीसदी से घटाकर लगभग 25 फीसदी कर दिया है। कुछ मामलों में तो यह 22 फीसदी है, जबकि नयी कम्पनियों को लुभाने के लिए यह 15 फीसदी किया गया है।

इन कुछ उपायों के बावजूद सबसे बड़ा सवाल देश में व्यापारिक ढाँचे का ही है। चीन से करीब 1000 कम्पनियों के पलायन की सम्भावना के बीच भारत में इनके आने की उम्मीद बहुत मज़बूत नहीं दिख रही। सरकार के 20 लाख करोड़ पैकेज में से जो हिस्सा छोटे, लघु और मध्यम उद्योगों को लेकर है, वह इस ढाँचे को कितनी मज़बूती दे पायेगा? यह देखने वाली बात होगी। यदि यह सीमित समय में देश में उद्योगों का एक बेहतर ढाँचा खड़ा नहीं कर पाता है, तो तब तक यह कम्पनियाँ दूसरे देशों में जा चुकी होंगी।

भारत में परियोजनाओं को मंज़ूर करवाना बहुत टेढ़ी खीर है। इसमें बहुत समय लगता है। कम्पनियों को फैक्ट्री लगाने वाली ज़मीन के लिए किसानों के साथ डील करनी पड़ती है। नौकरशाही के प्रावधानों का लम्बा और उबाऊ रास्ता है। स्थानीय माफिया की अलग से समस्या है, जिस पर सरकार का कोई बस नहीं है। इसमें भी एक बड़ा वर्ग राजनीतिक दलों के ताकतवर लोगों जो जुड़ा हुआ है।

ले-देकर सरकार की गाज श्रमिकों पर गिरी है, जिसके तहत श्रम कानून को तीन साल तक निलंबित करने की कोशिश की गयी है। इसे भारत जैसे देश में बहुत सहजता से नहीं लिया जा रहा है और इससे मज़दूरों का शोषण बढ़ेगा; जो सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक रूप से भी किसी भी दल पर भारी पड़ सकता है। भारत कोई कम्युनिस्ट देश नहीं है, जहाँ सरकार ज़ोर-ज़बरदस्ती से मज़दूरों के अधिकार दबा ले और उन्हें विदेशी कम्पनियों के आगे चारे की तरह डाल दे। देश में आज भी एनजीओ और ट्रेड यूनियन की तरफ से दायर किये गये श्रम कानून से जुड़े लाखों मामले अदालतों में हैं।

वैसे यदि यूबीएस मार्केट की ताज़ा रिपोर्ट को देखा जाए, तो उसे लगता है कि चीन से व्यापार समेटने वाली कम्पनियों के लिए भारत सर्वाधिक उपयुक्त बाज़ार हो सकता है। यूबीएस की इस रिपोर्ट का यह आकलन चीन में काम कर रही करीब 500 कम्पनियों से बातचीत के आधार पर किये गये सर्वे पर आधारित है। यह रिपोर्ट उत्साह देने वाली हो सकती है; लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि भारत इन तमाम महीनों में कोई ऐसी रिपोर्ट तैयार नहीं कर सका है, जिससे यह पता चल सके कि चीन का वह ढाँचा आिखर है क्या? जिसे भारत में विकसित करने की ज़रूरत है और जो विदेशी कम्पनियों को आकर्षित करता है।

भारत अपने आपमें एक बड़ा बाज़ार है। यह तथ्य विदेशी कम्पनियों को आकर्षित करने का सबसे बड़ा और सकारात्मक पहलू है। लेकिन इसके बावजूद यदि देखें, तो हाल के महीनों में रीको जैसी कम्पनी जुलाई, 2019 में ही अपनी प्रिंटर उत्पादन इकाई को चीन से भारत न लाकर थाईलैंड लेकर चली गयी। नाइकी के उपत्पादों के प्रति भारत में ज़बरदस्त क्रेज रहा है; लेकिन यह कम्पनी भी वियतनाम और थाईलैंड को प्राथमिकता दे रही है। हालाँकि उसने भारत आने के रास्ते बन्द नहीं किये हैं, लेकिन भारत से किसी ठोस प्रयास की जगह कोशिश सिर्फ उनका इंतज़ार करने तक सीमित है।

एक और कम्पनी है- पैनासोनिक। वह भी चीन से बाहर जाने की तैयारी में है। जापान की जानी-मानी वाहन निर्माता कम्पनी माज़दा पहले ही मेक्सिको जा चुकी है। अभी भी बड़ी तादाद में अमेरिकी, जापानी और दक्षिण कोरियाई कम्पनियाँ हैं, जिन्हें चीन से बाहर जाना है और वो बेहतर विकल्प देख रही हैं।

भारत को इसके लिए कुछ अलग तरीके से बेहतर कोशिश करनी होगी, ताकि उन्हें वियतनाम, मलेशिया और सिंगापुर जाने से रोका जा सके। वैसे भी भारत निवेश के लिए रैंकिंग में इन देशों से नीचे गिना जाता है। हाँ, थाईलैंड और फिलीपींस जैसे देशों से ज़रूर भारत प्राथमिकता में कुछ ऊपर है।

भारत के लिए लाभकारी बिन्दु

भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है, जहाँ लोगों को दुनिया के बड़े ब्रांड बहुत आकर्षित करते हैं। यह आबादी ही भारत का सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट (सकारात्मक केंद्र) है। चीन जैसे देश के उत्पाद के लिए भारत एक बड़ा बाज़ार बन सकता है, तो यहाँ आने पर कम्पनियों के लिए तो यह बाज़ार स्वर्ग जैसा है। यानी भारत ऐसा मैन्यूफैक्चङ्क्षरग हब (उत्पादक केंद्र) हो सकता है, जिसकी खपत क्षमता खुद में ही दुनिया के किसी भी देश से कहीं ज़्यादा है। दुनिया में कहीं इतना बड़ा बाज़ार नहीं। भारत एक ऐसा बाज़ार है, जहाँ चीन में बनी हमारी ही धार्मिक चीज़ें तक बड़े पैमाने पर बिक रही हैं। दीवाली पर लक्ष्मी, गणेश की मूर्तियाँ, लडिय़ाँ, दीये आदि; होली की पिचकारी, रंग-गुलाल आदि और रक्षाबन्धन पर राखी के अलावा खिलोने से लेकर ज़रूरत का हर सामान तक, यानी सब कुछ नहीं सही, तो बहुत कुछ अब चीन से ही आ रहा है। ऐसे में करीब 130 करोड़ की आबादी वाले भारत को अपने ही देश के उत्पादों का बाज़ार बना देने से ही सही मायने में भारत आत्मनिर्भर हो सकता है और इसके लिए विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए मज़बूत ज़मीन तैयार करनी होगी। साथ ही कल्पनाओं की उड़ान से बाहर आकर इस सपने बेचने की शिथिलता को खत्म करके नीतियों और बड़े पैमाने पर व्यापारिक ढाँचे का निर्माण करना होगा।

हम सुनते आये हैं कि 21वीं सदी हिंदुस्‍तान की है। हमें कोरोना के वैश्विक संकट को विस्‍तार से देखने का मौका मिला है। इससे जो स्थितियाँ बन रही हैं, हम इसे भी देख रहे हैं। 21वीं सदी भारत की ही हो, यह सपना ही नहीं हम सभी की ज़िम्‍मेदारी भी है। ऐसा हम आत्मनिर्भर भारत बनाकर ही कर सकते हैं। विश्‍व की आज की स्थिति हमें सिखाती है कि इसका मार्ग एक ही है, और वह है- आत्‍मनिर्भर भारत। एक राष्‍ट्र के रूप में हम आज जिस मोड़ पर हैं, जहाँ इतनी बड़ी आपदा भारत के लिए संकल्‍प, संदेश और अवसर लेकर आयी है।

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

कोरोना वायरस की महामारी के कारण अगर कम्पनियाँ चीन से बाहर निकलती हैं, तो ज़रूरी नहीं कि इसका फायदा भारत को होगा। हकीकत में कितना ऐसा होने वाला है? यह कहना मुश्किल है। क्या होगा अगर चीन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन (मूल्य में कमी) करता है। उस दशा में चीनी उत्पाद सस्ते हो जाएँगे और लोग आगे भी उनके उत्पादों को खरीदना जारी रखेंगे। लॉकडाउन से उपजे संकट में हर भारतीय के खाते में कम-से-कम 1000 रुपये तुरन्त ट्रांसफर करने चाहिए और यह पैसे अगले कुछ महीनों तक लगातार ट्रांसफर करने की ज़रूरत है।

अभिजीत बनर्जी

अर्थशास्त्री व नोबेल पुरस्कार विजेता

लोग राहत की उम्‍मीद लगा रहे थे; लेकिन उन्‍हें बड़ा ज़ीरो मिला है। इस 20 लाख करोड़ के पैकेज में राज्‍यों के लिए कुछ भी नहीं है।

ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

लोगों को पैसे की ज़रूरत, साहूकार न बने सरकार

जब तक हम गरीब, मज़दूर, किसान को आत्मनिर्भर नहीं करते, तब तक देश आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। सरकार मज़दूरों को पैकेज नहीं, उनके खाते में सीधा पैसा ट्रांसफर करे। अगर माँग उत्पन्न नहीं हुई, तो देश को आॢथक रूप से कोरोना वायरस से बड़ा नुकसान होगा। पूरा देश इस समय एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा है। लोगों को आज पैसे की ज़रूरत है। ऐसे में सरकार को साहूकार के जैसे काम नहीं करना चाहिए। सरकार को लगता है कि अगर हमारा राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा, तो विदेश की एजेंसियाँ हमारी रेटिंग कम कर देंगी। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान की जो रेटिंग है, वो हिन्दुस्तान के लोगों से है। इसलिए सरकार को विदेश के बारे में सोचकर काम नहीं करना चाहिए। आज हमारे गरीब लोगों को पैसे की ज़रूरत है। मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अनुरोध करता हूँ कि वह इस पैकेज पर पुनर्विचार करें। वह मज़दूरों के खाते में सीधे पैसा ट्रांसफर करने पर विचार करें। क्योंकि ये लोग हमारा भविष्य हैं।

सरकार प्रवासी मज़दूरों को जल्द-से-जल्द अपने घरों तक पहुँचाये। सरकार को धीरे-धीरे सावधानी और समझदारी के साथ लॉकडाउन को हटाना पड़ेगा। सरकार को यह देखना होगा कि कोरोना वायरस की वजह से लोगों की जान न जाए। आप यह मत सोचिए की तूफान आ गया है। वह आ रहा है और बड़े आॢथक नुकसान का कारण बनेगा और इससे कई लोगों को नकसान झेलना पड़ेगा। ये समय किसी को गलत बताने का नहीं है, बल्कि इस बहुत बड़ी समस्या के समाधान का समय है। प्रवासी मज़दूरों की समस्या बहुत बड़ी है। हम सबको इनकी मदद करनी है। विपक्ष का भी काम है कि वह मिलकर काम करे। राज्यों के बीच सामंजस्य में कमी रह सकती है, उसका समाधान करना होगा। कुल मिलाकर हमें आगे बढक़र जो समस्या आने वाली है, उसका समाधान करना चाहिए।

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

लोगों और कम्पनियों को देनी होगी राहत

केंद्र सरकार का करीब 20 लाख करोड़ रुपये का आॢथक पैकेज अपर्याप्त है। कोविड-19 के कारण अर्थ-व्यवस्था को होने वाले नुकसान में इससे मदद नहीं मिलेगी। ऐसे संकट की स्थिति में प्रवासी मज़दूरों को मुफ्त में अनाज मिलना चाहिए और लॉकडाउन की वजह से रोज़गार को हुए नुकसान की भरपाई करनी होगी। लोगों को सब्ज़ी, दूध, तेल और किराये जैसी ज़रूरतों के लिए खर्च चाहिए। पूरी दुनिया के सामने अर्थ-व्यवस्था के मोर्चे पर आपातकाल की स्थिति है। ऐसे में कोई भी ज़रिया पर्याप्त नहीं होगा। मेरा मानना है कि भारत के नज़रिये से यह स्थिति विशेष है। क्योंकि कई साल से हमारी अर्थ-व्यवस्था में उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है। ग्रोथ (वृद्धि) धीमी हो गयी है। वित्तीय घाटा बढ़ गया है। अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए हमें और भी बहुत कुछ करना होगा। लोगों और कम्पनियों को राहत देने के लिए रास्ते तलाशने होंगे। उन पर कोरोना वायरस की सबसे ज़्यादा मार पड़ी है। हमें अर्थ-व्यवस्था में उन जगहों पर विशेष ध्यान देना होगा, जहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है। इसमें बड़ी कम्पनियाँ, बैंक और एमएसएमई शामिल हैं। हमें रिकवर के लिए प्रोत्साहन के साथ रिफॉम्र्स की भी ज़रूरत है। आॢथक पैकेज में रिकवरी के लिए पर्याप्त रिसोर्सेज का आवंटन नहीं हुआ है। प्रवासी मज़दूरों को केवल अनाज, सब्ज़ी और अन्य खाद्य पदार्थों की ही नहीं, बल्कि पैसों की भी ज़रूरत है। अर्थ-व्यवस्था बचाने के लिए पहले लोगों को बचाना होगा। मज़दूरों को और ज़्यादा अनाज के साथ-साथ पैसे भी भेजने की ज़रूरत है। सरकार को विपक्षी पाॢटयों में कुछ बेहतर लोगों से भी सुझाव लेने चाहिए। क्योंकि इस तबाही से प्रधानमंत्री कार्यालय केवल अकेले नहीं लड़ सकता है। सरकार को राजनीतिक नज़रिये से आगे बढक़र इस समस्या का समाधान निकालना चाहिए। क्योंकि स्थिति बेहद चिन्ताजनक है।

रघुराम राजन

पूर्व आरबीआई गवर्नर

विदेशी बनाम स्वदेशी

हमारे देश में स्वदेशी का नारा अच्छा होते हुए भी कितना खोखला है? आइए इस पर एक नज़र दौड़ाते हैं। चीन और भारत के बीच मार्च, 2019 तक करीब 90 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ। इसमें चीन से आयात हुए सामान का हिस्सा 76 बिलियन (7,600 करोड़) डॉलर था। इसके अलावा और भी दिलचस्प, लेकिन देश के आॢथक घाटे के नज़रिये से निराशाजनक तथ्य भी जानिए- पिछले दो दशक के दौरान भारत में बड़े पैमाने पर उद्योग बन्द हुए हैं। भारत के यह व्यापारी अब स्वदेशी की जगह चीन की वस्तुएँ बेच रहे हैं। क्योंकि सस्ता होने के कारण चीन की वस्तुओं में उन्हें ज़्यादा मुनाफा मिलता है। आप आज की तारीख में अपने घर में इस्तेमाल होने वाले सामान को देख लीजिए, उसमें से अधिकतर पर आपको मेड इन चाइना (पीआरसी) लिखा मिलेगा। चीन से इलेक्ट्रॉनिक सामान बड़े पैमाने पर भारत के बाज़ार में पहुँचता है। इनमें स्मार्ट फोन, टीवी, डिस्प्ले बोर्ड, एसडी कार्ड, मेमोरी कार्ड, लैपटॉप, पेन ड्राइव, साउंड रिकॉर्डर्स, एलईडी बोर्ड, वायरलेस और कम्युनिकेशन उपकरण शामिल हैं। भारत के वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, साल 2017-18 के दौरान भारत ने 1.84 लाख करोड़ रुपये के इलेक्ट्रिक मशीनरी और इक्विपमेंट चीन से खरीदे। किसी समय जो मशीनरी जर्मनी, फ्रांस और यूरोपीय देशों से आती थी, वह अब चीन से आती है। इनमें न्यूक्लियर रिएक्टर्स, रेल का सामान, बॉयलर, पॉवर जेनरेशन उपकरण, मशीनरी पार्ट, वाहन और कार एसेसरीज शामिल हैं। चीन से भारत ने 2018-19 में 1.44 लाख करोड़ रुपये के करीब की इलेक्ट्रिक मशीनरी और उपकरण खरीदे। वैसे अमेरिका के व्यापार सहभागी बनने के बाद पिछले दो वर्षों से इसमें अब कमी आने लगी है। भारतीय घरों और दफ्तरों (सरकारी भी शामिल) में प्लास्टिक की बाल्टियाँ, मग, कप आदि ही चीन से नहीं आते। आपको जानकार हैरानी होगी कि भारत ने 2018-19 के दौरान चीन से 3,162 करोड़ रुपये से ज़्यादा के खिलौने खरीदे। कभी भारत की गली-गली में बनने वाला देशी साबुन या वॉशिंग पाउडर खरीदने पर ही चीन को 784 करोड़ रुपये दिये। कहने को भारत में अमेरिका से बहार सबसे ज़्यादा मेडिकल (दवा) प्लांट हैं; लेकिन दवाइयों के लिए इस्तेमाल होने वाला मटीरियल या सॢजकल उपकरण बड़ी मात्रा में चीन से आते हैं। हाल में जब अमेरिका ने भारत पर जिस हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन दवा को देने के दबाव बनाया था, उसका कच्चा सामान तक चीन से ही आता है।

कोविड-19 संकट के बीच पीपीई किट और टेस्टिंग किट तक चीन से बहुत महँगे दामों पर खरीदने पड़े, जिनमें से बड़ी संख्या में खराब निकले। इसके अलावा आर्गेनिक केमिकल्स, उनके एलिमेंट्स, खाद, खाद से जुड़े तत्त्व, फर्नीचर, खेल का सामान और उपकरण, स्टील और लोहे से बना सामान और मशीनें तक चीन से आती हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि स्वदेशी या मेड इन इंडिया के सामने कितनी बड़ी चुनौती है? हम भारत को आत्मनिर्भर बनाने की बात तो करते हैं, लेकिन एक उदहारण से ज़ाहिर होता है कि हम कैसे खुद स्वदेशी सामान को तबाह करते हैं। यूपी का मेरठ, पंजाब का जालंधर और जम्मू-श्रीनगर खेल सामानों के निर्माण की बड़ी सम्भावना रखते हैं। लेकिन पिछले समय में हमने इन्हें लगभग नज़रअंदाज़ करके चीन पर अपनी निर्भरता बढ़ा दी है। कश्मीर में क्रिकेट के महँगे बल्ले बनाने में इस्तेमाल होने वाली विलो लकड़ी उपलब्ध है। वहाँ और जम्मू में बैट बनते भी हैं; लेकिन इस इंडस्ट्री को कभी अच्छी तरह प्रोत्साहित नहीं किया गया। एक जानकारी के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पीति में भी विलो लकड़ी है। लेकिन कभी भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया।