आजमगढ़ की लड़ाई प्यादे और वजीर की लड़ाई है. ऐसा इसलिए क्योंकि आजमगढ़ के मौजूदा सांसद रमाकांत यादव ने कभी मुलायम सिंह की उंगली पकड़ कर राजनीति का ककहरा सीखा था. इस लिहाज से आजमगढ़ दिग्गजों की लड़ाई वाले इस खांचे में फिट नहीं होता. लेकिन इसकी भौगोलिक स्थितियों पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि अकेले मुलायम सिंह ने ही इसे दिग्गजों की लड़ाई में शुमार कर दिया है. आजमगढ़ के एक सिरे पर बनारस है और दूसरे सिरे पर गोरखपुर. यानी इसके दाहिने कोने पर नरेंद्र मोदी हैं और बाएं कोने पर योगी आदित्यनाथ. इन दो दक्षिणपंथी नेताओं के बीच में खड़े होकर मुलायम सिंह ने आजमगढ़ की लड़ाई को बड़ा बना दिया है. इस कस्बेनुमा शहर का इतिहास बताता है कि सपा के अस्तित्व में आने के बाद से यह उनके गढ़ के रूप में स्थापित हुआ है. थोड़ा और अतीत में झांकें तो हम पाते हैं कि इस शहर का देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस से मुहब्बत का रिश्ता कभी नहीं रहा. अधिकतर समय इसे समाजवादी भाते रहे हैं. जिले के बड़े नेता और फिलहाल मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव ने भी सूबे का मुख्यमंत्री पद जनता पार्टी में रहते हुए प्राप्त किया था.
समाजवादियों की जिले पर पकड़ आज भी कायम है. यहां की 10 में से नौ विधानसभा सीटें सपा के कब्जे में हैं. ऐसा होने के पीछे इसकी जनसांख्यिकी की बड़ी भूमिका रही. जिन दो समुदायों की नींव पर मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी खड़ा करने का सपना देखा था वे दोनों ही आजमगढ़ में प्रचुरता में हैं. जिले का लगभग 22 फीसदी वोटर यादव है. इसी तरह यहां लगभग 2.5 लाख मुसलिम मतदाता हैं. आजमगढ़ ही नहीं बल्कि अगल बगल की मऊ, गाजीपुर, जौनपुर सीटों पर भी यही समीकरण प्रभावी है. इन दोनों का मिलना हमेशा मुलायम सिंह के लिए फलदायी सिद्ध हुआ है.
लेकिन फिलहाल स्थितियां थोड़ा अलग हैं. सुरक्षित इलाका होने के बावजूद मुलायम सिंह या उनका परिवार कभी भी इस इलाके से चुनाव लड़ने के लिए नहीं उतरा. यह पहली बार हो रहा है. 2014 में मुलायम सिंह के आजमगढ़ जाने की वजहें दिलचस्प हैं. 2008 में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुई मुठभेड़ के बाद से आजमगढ़ धार्मिक पहचानों में बुरी तरह से बंट गया है. बटला हाउस के नतीजे में यहां धार्मिक पहचान वाली एक पार्टी उलेमा काउंसिल का उदय भी हो चुका है. धार्मिक आधार पर हुए दोफाड़ का नतीजा यहां 2009 के लोकसभा चुनाव में साफ दिखा. भाजपा इस इलाके में राममंदिर आंदोलन के दौरान भी कभी अपने पांव नहीं जमा सकी थी, जबकि यह जिला अयोध्या से महज 80 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है. उसी भाजपा के उम्मीदवार रमाकांत यादव ने यहां 50 हजार वोटों से जीत दर्ज की. तो जो आजमगढ़ 90-92 के पागलपन भरे दौर में अपना मन-मिजाज बनाए रख सका था वह अब सिर्फ धार्मिक पहचान के खांचों में सोचता है.
इसी दौरान कुछ और घटनाएं भी हुईं हैं जिनमें मुलायम सिंह के आजमगढ़ से लड़ने के सूत्र छिपे हैं. मुजफ्फरनगर के दंगों ने हालात बदल दिए हैं. मुसलमान मुलायम सिंह से बुरी तरह बिदका हुआ है. इन्हीं दंगों के साए में मुलायम सिंह ने आजमगढ़ से अपने लोकसभा चुनाव का श्रीगणेश किया था और मुसलमान भरे जलसे से पूरी तरह नदारद था. बटला हाउस से लेकर मुजफ्फरनगर तक जिस तरह की स्थितियां बनी हैं उनमें आजमगढ़ मुसलिम राजनीति की धुरी बनकर उभरा है. इसके बाकी निहितार्थ चाहे जो रहें पर एक नतीजा स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि मुसलमानों में सपा को लेकर मोहभंग की स्थिति है. दूसरा अहम बदलाव यह हुआ है कि आजमगढ़ के जुड़वां शहर बनारस से भाजपा के नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. बनारस हिंदू आस्था का केंद्र है और मोदी जैसे दक्षिणपंथी नेता के लिए इस शहर के अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं. तीसरी बात जिस यादव पर अब तक मुलायम सिंह अपना एकाधिकार मानते आ रहे थे उसने भी बदली परिस्थितियों में मुलायम सिंह के यादव पर भाजपा के यादव को तरजीह देना शुरू कर दिया, जिसका एक नमूना 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा. इन तीन परिस्थितियों ने मुलायम सिंह और समाजवाद पार्टी के भीतर चिंता की एक लहर पैदा की है. इससे निपटने के लिए मुलायम सिंह ने आजमगढ़ का दांव चला है. वे पूरी तरह से आजमगढ़ के हो गए हैं, ऐसा कहने और मानने की कोई वजह नहीं है क्योंकि उन्होंने मैनपुरी की अपनी सीट अभी छोड़ी नहीं है. जानकार मानते हैं कि इस समय मुलायम सिंह के सामने दो प्राथमिक चुनौतियां हैं- पहली यादव-मुसलिम वोटबैंक को एकजुट और स्थायी रखना दूसरा, दूसरे बेटे प्रतीक यादव को राजनीति में स्थापित करना. पहली चुनौती के लिए उन्हें आजमगढ़ जीतना जरूरी है और दूसरी चुनौती के लिए मैनपुरी.