यह 26 सितंबर, 2009 की बात है. उस दिन दुर्गा अष्टमी थी और श्रद्धालु छत्तीसगढ़ में भानपुरी इलाके के बेड़ागुड़ा में पूजा-अर्चना के लिए पहुंच रहे थे. इस मौके पर इन लोगों के लिए यह आम बात ही थी कि इलाके का एक अति विशिष्ट व्यक्ति भी यहां पूजा करने आया है. हालांकि पूजन के बाद जो हुआ वह इतना भयावह था कि उसकी स्मृति यहां के लोगों सहित तब पूजा में शामिल होने आए दिनेश कश्यप को आज भी सिहरा देती है. अपने दबंग अंदाज की वजह से ‘टाइगर’ के रूप में चर्चित बलीराम कश्यप बेटे और बस्तर के सांसद दिनेश उस दिन यहां अपने भाई के साथ आए थे और उन पर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया था. इस घटना में दिनेश के भाई तानसेन की मौत हो गई थी. उस घटना को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘हमले से मैं बुरी तरह हिल गया.’ जेड सुरक्षा प्राप्त दिनेश को अब पुलिस की सुरक्षा पर कई तरह के संदेह हैं. उनके मुताबिक, ‘नक्सली गतिविधियों की टोह लेने के मामले में पुलिस का सूचना तंत्र हमेशा कमजोर साबित हुआ है. जहां तक सर्चिंग का सवाल है तो पुलिस ने अब इस काम को दिखावा बना लिया है.’
2009 की इस बहुचर्चित घटना के बाद से पिछले महीनों के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनमें नक्सलवादियों ने राज्य के जनप्रतिनिधियों को निशाना बनाने की कोशिश की है. जाहिर है जब ऐसा होगा तो लोकतंत्र की एक बुनियादी प्रक्रिया – जनप्रतिनिधियों का लोगों से मिलने और उनकी समस्याओं को सुनकर उनका निराकरण करने की प्रक्रिया पर भी असर पड़ेगा. लचर सुरक्षा व्यवस्था के बीच आज राज्य में ऐसे कई इलाके और उसके जनप्रतिनिधि हैं जिनका आमना-सामना महीनों से नहीं हुआ है.
छत्तीसगढ़ का बड़ा भू-भाग कुछ समय पहले तक राजस्व के 15 और तीन पुलिस जिलों में ही सिमटा हुआ था, लेकिन एक जनवरी, 2012 को नौ नए जिलों के अस्तित्व में आने के साथ ही अब जिलों की संख्या 27 हो गई है. इन जिलों में बिलासपुर, कोरबा, जांजगीर-चांपा, बलौदाबाजार, बालोद, बेमेतरा और मुंगेली को छोड़ दें तो बाकी बचे 20 जिलों में नक्सलियों की जोरदार धमक देखने को मिलती है. पुलिस के आला अफसर यह मानते हैं कि अकेले बस्तर क्षेत्र में ही दस हजार से ज्यादा नक्सली सक्रिय हैं. सुरक्षा बलों का भी यह अनुमान है कि बस्तर के माओवादियों में से दो हजार आदिवासी महिलाएं ऐसी हैं जो कठिन सैन्य प्रशिक्षण के चलते खूनी छापामार दस्ते का अहम हिस्सा बनी हुई हैं. गृहमंत्री ननकीराम कंवर भी यह मानते हैं कि प्रदेश के 370 थाना क्षेत्रों में से 176 माओवादी हलचल से प्रभावित हैं. गृहविभाग के सूत्रों से मिली जानकारी बताती है कि गत एक दशक में नक्सलियों ने छोटी-बड़ी चार हजार से ज्यादा हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है. इन घटनाओं के चलते सुरक्षा कर्मियों, नागरिकों समेत लगभग ढाई हजार लोग मारे गए हैं.
हिंसा की इन घटनाओं में बीते सालों के दौरान एक खास बदलाव भी देखा गया है. सरपंच, जनपद अध्यक्ष और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता तो पहले से नक्सलवादियों के निशाने पर थे अब सांसदों और विधायकों के अलावा बड़े नेताओं के नाम भी इनकी हिटलिस्ट में आ गए हैं. कुछ समय पहले सीआरपीएफ और पुलिस बल की एक संयुक्त टीम ने जब एक नक्सली कैंप में धावा बोला था तब उन्हें मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल, विधायक राजकमल सिंघानिया समेत केंद्र और राज्य के करीब डेढ़ दर्जन नेताओं की तसवीरें मिली थीं. पुलिस को ये तसवीरें नक्सलियों की बैठकों और कार्रवाई के मामले में लगभग अछूते समझे जाने वाले एक नए क्षेत्र मैनपुर-गरियाबंद के वनग्राम पेंड्रा में छापामार कार्रवाई के दौरान हाथ लगी थीं. कैंप से बरामद की गई डायरियों और अन्य सामग्रियों की तफ्तीश के बाद टीम ने यह माना था कि ‘तसवीरें’ नक्सली सदस्यों को हिटलिस्ट से अवगत कराने के लिहाज से ही रखी गई थीं.
वैसे बस्तर के ज्यादातर जनप्रतिनिधि पहले से ही नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं. बस्तर में विधानसभा की 12 सीटों में से 11 पर सत्तारूढ़ दल का कब्जा है जबकि कांकेर और बस्तर के सांसद भी भाजपा से ही हैं. इन इलाकों के ज्यादातर जनप्रतिनिधियों को या तो नक्सलियों की ओर से धमकी मिल चुकी है या फिर वे उनके हमले का शिकार होते-होते बचे हैं. अंतागढ़ के विधायक विक्रम उसेंडी पर नक्सलियों ने 11 नवंबर, 2005 को तब हमला बोल दिया था जब वे कोयलीबेड़ा के जनसमस्या निवारण शिविर से लौट रहे थे.
धुर नक्सल प्रभावित इलाके दंतेवाड़ा के धाकड़ कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के काफिले पर तो नक्सली कई मर्तबा हमला कर चुके हैं. विधानसभा के गत चुनाव में कर्मा को पराजित करने वाले भाजपा विधायक भीमा मंडावी भी यह मानते हैं कि उनकी जान पर खतरा मंडरा रहा है. इसी साल 12 जनवरी को नक्सलियों ने जब ग्राम गामावाड़ा के निकट उनके काफिले पर हमला किया तो एक बार फिर उन्होंने यह आरोप लगाया कि पुलिस प्रशासन सुरक्षा को लेकर घनघोर किस्म की लापरवाही बरत रहा है. ज्ञात हो कि एक आश्रम की अधीक्षिका सोनी सोढ़ी को बेहद वीभत्स तरीके से प्रताड़ना देने के मामले में चर्चा में आए पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग ने कुछ समय पहले उनकी सुरक्षा में कटौती कर दी है.
सुरक्षा कटौती से नाराज मंडावी ने बगैर फाॅलोगार्ड के कटेकल्याण और गाटम जैसे बेहद संवेदनशील इलाके का दौरा मोटर बाइक से ही किया था. हाल के हमले में मंडावी के साथ चल रहे दस्ते को किसी तरह का कोई नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन उनके वाहन को क्षति जरूर पहुंची. सत्तारूढ़ दल के एक विधायक डमरूधर पुजारी का संबंध बस्तर से नहीं है, लेकिन वे जिस इलाके (बिंद्रानवागढ़) का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां भी अब नक्सलियों की धमक देखने को मिलने लगी है. मैनपुर तहसील के मुनगापदर गांव में रहने वाले पुजारी पिछले साल 11 अक्टूबर को गांववालों से मेल-मुलाकात करने के बाद अपने घर पर विश्राम कर रहे थे तभी पचास से ज्यादा सशस्त्र नक्सलियों ने उनके आवास पर धावा बोल दिया था. इस हमले में उन्हें शारीरिक तौर पर तो कोई क्षति नहीं पहुंची लेकिन नक्सली उनकी सुरक्षा में तैनात किए गए पुलिस कर्मियों की सर्विस रिवाल्वर व कारतूस लूट कर ले गए.
‘कई बार सुरक्षा के नाम पर ऐसे पुलिसकर्मी उपलब्ध कराए जाते हैं जिन्हें खुद सुरक्षा की जरूरत होती है’
पिछले साल 20 जनवरी को नक्सलियों ने रायपुर से मात्र एक सौ साठ किलोमीटर की दूरी पर उदंती के जंगल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के काफिले पर भी धावा बोला था. हमले में नंदकुमार पटेल तो बच गए थे लेकिन उनके चार कार्यकर्ताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इस मामले की गूंज विधानसभा के अमूमन हर सत्र में सुनाई देने लगी है.
नक्सली हमलों से आशंकित अपना दर्द साझा करते हुए जगदलपुर क्षेत्र से भाजपा विधायक संतोष बाफना कहते हैं, ‘विधानसभा सत्र शुरू होने पर राजधानी रायपुर का सफर तय करना ही होता है, लेकिन जगदलपुर से रायपुर आने-जाने की प्रक्रिया मानसिक तौर पर कष्ट पहुंचाने वाली साबित होती है. सब जानते हैं कि जगदलपुर से रायपुर के बीच भानपुरी, केशकाल घाटी सहित कई क्षेत्र ऐसे हैं जो बेहद संवेदनशील हैं. इधर जब से नक्सलियों ने राजधानी को बस्तर से जोड़ने वाले मार्ग को विस्फोट से उड़ाया है तब से विशेष सावधानी बरतनी पड़ रही है.
धमतरी जैसे व्यापारिक इलाके में भी नक्सलियों की मौजूदगी देखने को मिल रही है, इसलिए एहतियात के तौर पर गाड़ियां बदल-बदलकर आवाजाही करनी पड़ती है.’ बाफना पुलिस-प्रशासन द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सुरक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से लचर बताते हुए आगे कहते हैं, ‘कहीं भी आने-जाने से पहले इलाके के थानों से अतिरिक्त सुरक्षा पाने के लिए सभी सूचना आवश्यक तौर पर दी ही जाती है लेकिन कई बार सुरक्षा के नाम पर ऐसे पुलिस कर्मी उपलब्ध करा दिए जाते हैं जिन्हें स्वयं ही सुरक्षा की जरूरत होती है.’
भानुप्रतापपुर क्षेत्र के विधायक ब्रह्मानंद मूल रूप से चारामा तहसील के ग्राम कसावाही के रहने वाले हैं. वे भी पिछले कुछ समय से दुर्गकोंदल, वीरागांव, केवटी, भेजा और बरबसपुर जैसे क्षेत्रों का दौरा नहीं कर पाए हैं. ब्रह्मानंद बताते हैं कि वे 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान आराम से धुर नक्सल इलाके की यात्रा कर लेते थे लेकिन इधर जब से इस बात की सूचना मिली है कि दुर्गकोंदल के एक बड़े हिस्से पर नक्सलियों ने अपना कब्जा जमा लिया है तब से उन्होंने इलाके का दौरा ही बंद कर दिया है. ब्रह्मानंद कहते हैं, ‘एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लोगों से संवाद बनाए रखने के लिए कई तरह की जुगत करता है, लेकिन नक्सलियों ने ऐसी खौफनाक परिस्थिति बना दी है कि सारी जुगत फेल हो गई है. जिस मार्ग से क्षेत्र पहुंचने की कोशिश करते हैं उस मार्ग पर खतरा दिखाई देता है. मजबूरी ऐसी है कि चाहकर भी लोगों से मिलना-जुलना नहीं हो पा रहा है.’
विधायक बैदूराम कश्यप का क्षेत्र चित्रकोट कभी केशलूर का हिस्सा था. वैसे तो केशलूर भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र है लेकिन बैदूराम कहते हैं, ‘परिसीमन में केशलूर के अलग हो जाने के बाद बिंता, कबूनार, हर्राकोनार, बदरेगा, मारीकोडेर और बोदली जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र शामिल हो गए हैं जहां पहुंचना कठिन हो गया है.’ बस्तर के जिला मुख्यालय पर अपनी आमद दर्ज करने के लिए केशकाल की खतरनाक घाटी को पार करना ही होता है. अब से कुछ अरसा पहले तक इस इलाके को महज घाटी की वजह से खतरनाक माना जाता था, लेकिन अब इलाके की चर्चा नक्सलियों के सर्वाधिक सक्रिय ‘केशकाल दलम’ की वजह से भी होती है. इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सेवकराम नेताम को वैसे तो नक्सलियों की ओर से अब तक किसी तरह की धमकी नहीं मिली है, लेकिन हमले की आशंका के मद्देनजर नेताम ने भी बड़ेडोंगर पठार के निचले हिस्से में आने वाले लगभग 20 पंचायतों में आना-जाना बंद कर दिया है.
बस्तर से इतर कुछ अन्य जगहों की बात करें तो दीगर क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है. सरगुजा के सीतापुर इलाके का प्रतिनिधित्व करने वाले कांग्रेस विधायक अमरजीत भगत भी नक्सलियों की सक्रियता की वजह से बहुत-से क्षेत्रों का दौरा नहीं कर पा रहे हैं. भगत कहते हैं, ‘सरकार ने शायद यह मान लिया है कि सारे नक्सली केवल बस्तर में ही सक्रिय हैं. हकीकत यह है कि उनकी सक्रिय मौजूदगी अंबिकापुर, बतौली, पाइपजाम, खेरजू कुनमेरा, पाइपजाम, बड़ादमाली और छत्तीसगढ़ का तिब्बत समझे जाने वाले मैनपाट में भी देखने को मिलती है.’ दौरे के लिए सुरक्षा बढ़ाए जाने के सवाल पर भगत कहते हैं, ‘हम तो विपक्ष में हैं, भला सरकार को हमारी सुरक्षा की चिंता क्यों होगी.’ भगत बताते हैं कि ठीक-ठाक सुरक्षा व्यवस्था को लेकर उन्होंने कई मर्तबा पुलिस मुख्यालय के आला अफसरों से पत्र व्यवहार किया है लेकिन किसी ने भी उनकी मांगों पर विचार ही नहीं किया. कुछ इसी तरह की शिकायत धमतरी जिले के सिहावा क्षेत्र की महिला विधायक अंबिका मरकाम की भी है. वे कहती हैं, ‘मैंने अपनी और घर की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बल की मांग की थी, लेकिन धमतरी में पदस्थ किए जाने वाले पुलिस अफसरों ने मेरी मांग को कभी भी महत्वपूर्ण नहीं माना जबकि सब जानते हैं कि नगरी-सिहावा इलाके के एक गांव रिसगांव में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाकर 13 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था.’ आसपास के इलाकों में नक्सलियों की धुआंधार बैठकों की सूचनाओं से सतर्क रहने वाली अंबिका बताती हैं कि मारागांव, मोहेरा, बोरइ और धमतरी के आखिरी छोर गुटकेल में भी नक्सलियों के सक्रिय होने की सूचना यदा-कदा मिलती है, लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है.
मुख्यमंत्री रमन सिंह के विधानसभा क्षेत्र राजनांदगांव से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर एक क्षेत्र है डोंगरगांव. इस इलाके में बहने वाली बाघनदी को पार करने के बाद महाराष्ट्र की सीमा लग जाती है. यहां के बोरतालाब, बूढ़ानछापर, पीपरखार, सीताकोटा, कारूटोला जैसे क्षेत्रों में महाराष्ट्र इलाके में सक्रिय रहने वाले नक्सलियों की आवाजाही देखने को मिलती है. इलाके के जनप्रतिनिधि खेदूराम कहते हैं, ‘मैं वहां जाता ही नहीं जहां नक्सली रहते हैं.’ क्या इससे विकास प्रभावित नहीं होता पूछने पर खेदूराम जवाब देते हैं, ‘नक्सलियों को यह बात समझनी होगी कि यदि जनप्रतिनिधि गांव में पहुंचेंगे तो ही वहां विकास की उम्मीद की जा सकती है.’
कुल मिलाकर इस समय अपनी सुरक्षा को लेकर आशंकित जनप्रतिनिधियों के चलते छत्तीसगढ़ व्यावहारिक लोकतंत्र के कई महत्वपूर्ण कवायदों में फिसड्डी साबित हो रहा है.