पंजाब के मानचित्र में लुधियाना शहर एक औद्योगिक हब के रूप में अपनी ख़ास पहचान रखता है और यहाँ प्रवासी आबादी भी हज़ारों में है। इसी औद्योगिक नगरी में बीती 30 अप्रैल को एक दर्दनाक हादसा हुआ, जिसमें 11 लोगों ने अपनी जान गँवा दी। लुधियाना का ग्यासपुरा इलाक़ा जहाँ उद्योग भी हैं और लोग रहते भी हैं, वहाँ 30 अप्रैल की सुबह क़रीब 7:00 बजे एक किराना की दुकान पर दूध लेने आये कुछ लोग बेहोश होने लगे। और देखते-ही-देखते लोग मरने लगे। प्राथमिक जाँच से पता चला कि जहाँ गैस रिसी, वहाँ से सीवर लाइन गुज़र रही है। सीवर में केमिकल डाला गया था, जिसके चलते गैस बन गयी होगी। मृतक बिहार व उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे।
इस दर्दनाक हादसे में बिहार के गया के धनु बिगहा गाँव के एक परिवार के पाँच सदस्यों की मौत हो गयी। लुधियाना की उपायुक्त सुरभि मलिक ने पत्रकारों को बताया कि ऐसी आशंका है कि सीवर में कुछ रसायनों की मीथेन गैस से प्रतिक्रिया हुई होगी। आशंका जतायी गयी है कि मौतों की वजह हाइड्रोजन सल्फाइड गैस हो सकती है। उपायुक्त ने यह भी जानकारी साझा की कि जान खोने वालों में ‘वसन सम्बन्धी कोई समस्या नहीं पायी गयी। उन्होंने कहा कि ऐसी आशंका है कि न्यूरोटॉक्सिन (विषाक्त पदार्थ के सम्पर्क में आने से तंत्रिका तंत्र की सामान्य गतिविधि में बदलाव) की वजह से मौत हुई हो। अतिरिक्त उपायुक्त अमरजीत सिंह बैंस का कहना है कि उस इलाक़े में एक टूटा हुआ मैनहोल मिला है और उसमें से तेज़ बदबू आ रही थी।
ऐसी आशंका है कि उस जगह से सीवरेज में रसायन डाला गया हो। इस रासायनिक दुर्घटना के फ़ौरन बाद पंजाब की सरकार ने जाँच कमेटी बिठा दी और मुआवज़े का भी ऐलान कर दिया गया। पंजाब सरकार ने घटना में मृतकों के परिजनों को दो-दो लाख रुपये और घायलों को 50,000 रुपये के मुआवज़े की घोषणा की। घायलों के उपचार का ख़र्च भी सरकार उठा रही है। उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के मरने वाले पाँच लोगों के आश्रितों को मुख्यमंत्री राहत कोष से दो-दो लाख रुपये अनुदान देने का ऐलान कर दिया। यही नहीं, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी ) अर्थात् राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने राज्य सरकार को पीडि़तों के परिजनों को 20-20 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का आदेश दिया है। सरकार कह रही है कि वह इस मामले को लेकर कड़ा रुख़ अपना रही है और अपराधियों का पता चलते ही उनके ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी। अब सवाल यह भी उठता है कि हादसा होने पर ही सरकार ऐसे बयान क्यों देती है?
सरकारी अधिकारी ही कह रहे हैं कि आधे ढके मैनहोल में किसी ने अम्लीय रसायन डाल दिया होगा। लुधियाना के नगर निगम के कर्मचारियों को क्या यह मैनहोल नज़र नहीं आया होगा और उसकी मरम्मत क्यों नहीं की? इसकी जवाबदेही कौन लेगा? एक हक़ीक़त जिससे वहाँ के स्थानीय लोग व ज़िला प्रशासन भी वाक़िफ़ हैं कि ग्यासपुरा में नट्स व बोल्ट्स और इलेक्ट्रोप्लेटिंग उत्पादन की कई इकाइयाँ हैं, जिनसे ज़हरीले रसायन बनते हैं। घरों में भी कुछ इकाइयाँ चलती हैं और वहीं के सीवरेज लाइन में कारख़ानों के अपशिष्ट पदार्थ का निपटान कर देते हैं। लुधियाना के पुलिस आयुक्त मनदीप सिंह सिद्धू ने भी इस हक़ीक़त को इस तरह बयाँ किया-इस तरह की रिपोर्ट है कि कुछ औद्योगिक इकाइयाँ अपने अपशिष्ट पदार्थों को मैनहोल में डाल देते हैं। यदि ग्यासपुरा गैस हदासे की यही वजह है, तो उद्योगपतियों व पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सम्बन्धित अधिकारियों के नाम भी एफआईआर में जोड़े जाएँगे।’
अपराधियों का पता लगाने के लिए विभिन्न कमेटियों का गठन किया गया है। मजिस्ट्रेट जाँच कमेटी का गठन किया गया, पाँच सदस्यीय वाली एसआईटी भी जाँच में जुट गयी है। यही नहीं राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया व पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय फैक्ट फाइंडिंग टीम का गठन किया है और टीम को एक महीने के अंदर यानी 30 जून तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का कहा है। इसके साथ ही ज़िला प्रशासन को ज़हरीली गैस से मरने वाले लोगों के परिजनों को 20-20 लाख रुपये देने का निर्देश दिया है। यह भी स्पष्ट कर दिया कि राज्य सरकार बाद में यह राशि उन लोगों से वसूल सकती है, जो हादसे के लिए दोषी पाये जाएँगे। एनजीटी के अध्यक्ष जस्टिस आदर्श कुमार गोयल हैं। जस्टिस आदर्श कुमार गोयल, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और डॉ. सेंथिल ब्रेल जो कि विषेशज्ञ हैं कि बैंच ने कहा कि घटना के कारणों का पता लगाना और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए उपचारात्मक कार्रवाई करना और पीडि़तों को मुआवज़ा देना आवश्यक है। नागरिकों की सुरक्षा के लिए पर्यावरणीय मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है।’
एनजीटी का यह हस्तक्षेप एनजीटी एक्ट के सेक्शन-15 के तहत आता है। एनजीटी ने एम.सी. मेहता बनाम भारत सरकार और अन्य, एमसीडी बनाम उपहार त्रासदी पीडि़त एसोसिएशन मामलों पर भरोसा करने का ज़िक्र किया और कहा कि इन मामलों में राज्य और निजी दोनों सस्ंथाओं द्वारा पर्यावरणीय मानदंडों के उल्लघंन के परिणामस्वरूप होने वाली मौतें और चोटों सम्बन्धित मसलों को सुलझाया गया था। एनजीटी ने यह भी साफ़ किया कि ऐसे मामलों में मृतक के परिजन आमतौर पर 20 लाख रुपये के हक़दार होते हैं। ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण की स्थापना राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण अधिनियम-2010 के तहत पर्यावरण बचाव और वन संरक्षण और अन्य प्राकृतिक संसाधन सहित पर्यावरण से सम्बन्धित किसी भी क़ानूनी अधिकार के प्रवर्तन और क्षतिग्रस्त व्यक्ति अथवा सम्पत्ति के लिए अनुतोष और क्षतिपूर्ति प्रदान करना और इससे जुड़े हुए मामलों का प्रभावशाली और तीव्र गति से निपटारा करने के लिए किया गया है। यह एक विशिष्ट निकाय है। एनजीटी की स्थापना के साथ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बाद भारत एक विशेष पर्यावरण अधिकरण स्थापित करने वाला दुनिया की तीसरा देश बन गया। ऐसा करने वाला भारत पहला विकासशील देश है। भारत ने एनजीटी का गठन कर दुनिया में यह संदेश दे दिया कि वह ऐसे मुद्दों के प्रति गंभीर है। लेकिन सवाल यह है कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद बने सुरक्षा नियमों पर सख़्ती से अमल क्यों नहीं होता?
भोपाल गैस त्रासदी के फ़ौरन बाद सरकार ने पर्यावरण को नियमित करने एवं सुरक्षा उपायों व दंडों को निर्धारित करने व निर्दिष्ट करने वाले कई क़ानून बनाये। मसलन, भोपाल गैस रिसाव (दावों की प्रक्रिया) अधिनियम-1985, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986, सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम-1991, ख़तरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम-1989, रासायानिक दुर्घटनाएँ (आपातकाल, योजना निर्माण, तैयारी और प्रतिक्रिया) नियम-1996, राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण अधिनियम-1997 इत्यादि। आख़िर सरकार का काम महज़ क़ानून बनाना ही नहीं है, बल्कि उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित कराना भी है। इस सब के लिए कई विभागों का गठन किया जाता है; लेकिन क्या वजह है कि देश में रासायनिक दुर्घटनाओं की ख़बरें आती रहती हैं। लोग अपनी जान गँवा देते हैं।
औद्योगिक इकाइयाँ नियमों के पालन के प्रति लापरवाही वाला रुख़ क्यों अख्तियार करती हैं। औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों के निपटान के लिए उचित व्यवस्था का हर जगह नहीं होना भी प्रशासन व सम्बन्धित विभागों पर सवालिया निशान लगाता है। दरअसल गैस लीक का यह मामला केवल लुधियाना तक ही सीमित नहीं है। इस मामले ने तो एक बार फिर यह उजागर कर दिया है कि देश में ऐसे इलाक़ों में जहाँ उद्योग व रिहायशी बस्तियाँ साथ-साथ हैं, वहाँ हालात किस क़दर ख़राब हैं। ऐसे मिश्रित लैंड यूज वाले इलाक़ों में प्रदूषण की निगरानी सख़्ती से होनी चाहिए और वहाँ की सीवरेज व्यवस्था का प्रबंधन भी बढिय़ा होना चाहिए। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास अच्छी प्रयोगशालाएँ व विशेष इकाइयाँ भी हैं; लेकिन राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ऐसी अनुकूल विशेषताओं से लैस नहीं है। इसी फरवरी माह में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने राज्यसभा को बताया कि प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण नियंत्रण कमेटियों में 49 प्रतिशत पद ख़ाली हैं।
बीते साल सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने नौ प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अध्ययन किया, जिसमें पंजाब भी शामिल है। इस अध्ययन से पता चला कि इन बोर्ड के सदस्यों में वैज्ञानिक, मेडिकल प्रैक्टिस करने वाले और शिक्षाविद की संख्या सात प्रतिशत है, जबकि प्रदूषण फैलने की संभावना जिन पर अधिक होती है; जैसे कि उद्योगपति, और निजी सेक्टर निगमों का प्रतिनिधित्व 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में राज्य सरकारों की मंशा सवालों के घेरे में आती है। देष में बार-बार होने वाले ऐसे हादसे ख़तरे की घंटी तो बजाते हैं पर नतीजा हम सब जानते हैं। लुधियाना गैस त्रासदी के असली अपराधी कब पकड़े जाएँगे, उन्हें क्या सज़ा मिलती है, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।