बाबा रामदेव को ध्यान खींचने की कला आती थी. स्वामी निगमानंद के पास यह हुनर नहीं था. इसलिए एक ओर रामदेव विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और भ्रष्टाचारियों को फांसी देने जैसे मुद्दे उठाकर सुर्खियों में छाए हुए थे तो दूसरी तरफ 38 साल के निगमानंद उतनी ही गुमनामी के बीच 68 दिन से भूख हड़ताल पर थे. जबकि जिस मांग को लेकर वे यह अनशन कर रहे थे उसका महत्व अगर राष्ट्रीय हित के पैमाने से ही देखा जाए तो रामदेव द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों से कहीं ज्यादा ही था. उनकी लड़ाई गंगा को बचाने की थी.
आखिरकार 13 जून को निगमानंद चल बसे. संयोग देखिए कि उनकी मौत उसी अस्पताल के उसी वार्ड में हुई जहां सिर्फ सात दिन के अनशन के बाद रामदेव को भर्ती किया गया था. कुछ दिन हल्ला हुआ. रामदेव और उनकी कहानी के विरोधाभास की चर्चाएं हुईं और फिर सब शांत हो गया. जिस मुद्दे को लेकर निगमानंद ने अपनी जान दी थी उसे भुला दिया गया.
लेकिन भूलकर आगे बढ़ जाना एक बड़ी गलती होगी. इसलिए क्योंकि स्विस बैंकों में भारत का कितना काला धन जमा है इसे लेकर दिए जा रहे आंकड़े एक बड़ी सीमा तक अंदाजे ही हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और यह पैसा देश में वापस आना चाहिए. लेकिन गंगा की इस देश के लिए क्या कीमत है, इसे किसी आंकड़े से नहीं बताया जा सकता. एक सभ्यता को सींचने की भला क्या कीमत लगाई जा सकती है? सदियों से गंगा एक बड़ी जनसंख्या का भौतिक और आध्यात्मिक पोषण करती आई है. इसके पारिस्थितिक तंत्र और इसके सहारे चल रही बिजली और सिंचाई परियोजनाओं को देखा जाए तो आज भी करोड़ों लोगों की जिंदगी इसके सहारे ही चल रही है. ऐसे में कल्पना कीजिए कि गंगा खत्म हो जाए तो क्या होगा. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, बंगाल जैसे राज्य बड़ी मुश्किल में आ जाएंगे. इनमें से कुछ देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य हैं.
गंगा किनारे अवैध खनन जिस तरह से हो रहा है वह बताता है कि अगर आप लूट में शामिल हैं तो मुनाफा बड़ा है और अगर आप कानून के साथ हैं तो आपके लिए खतरा खड़ा हैसाफ है कि गंगा के बचे रहने की कीमत उस पूरी रकम से कहीं ज्यादा है जो भारतीयों के काले धन के रूप में स्विस बैंकों में पड़ी है. इस तरह देखा जाए तो स्वामी निगमानंद की लड़ाई के मायने कहीं आगे तक जाते हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ यह दूसरी तरह की लड़ाई थी. इसका वास्ता दूसरे देश और उनके साथ हमारी जटिल संधियों से भले न जुड़ता हो मगर इसका पैमाना और इस पर व्यवस्था द्वारा दिखाई गई बेशर्मी, दोनों उतने ही बड़े हैं.
बिहार के दरभंगा में जन्मे और 1995 में ‘सत्य’ की खोज में अपने मध्यवर्गीय परिवार को छोड़ने वाले निगमानंद और उनके आश्रम मातृसदन ने पिछले काफी समय से हरिद्वार के खनन माफिया के खिलाफ एक असाधारण लड़ाई छेड़ी हुई थी. उनका सबसे ज्यादा विरोध हिमालय स्टोन क्रशर नाम की एक स्थानीय क्रशिंग कंपनी को लेकर था. लेकिन इस विरोध को सिर्फ एक स्थानीय और अलग-थलग मुद्दे के रूप में देखना सही नहीं होगा. चावल कितना पक गया है इसका पता जैसे सिर्फ एक दाने को हाथ में लेकर लगाया जा सकता है उसी तरह निगमानंद की कहानी भी एक उदाहरण है कि राजनीतिक मिलीभगत के चलते भ्रष्टाचार किस कदर खुलेआम हो रहा है.
निगमानंद के साथ जो हुआ वह भारतीय जनता पार्टी के दोहरे मापदंडों को भी साफ दिखाता है जो इस बात की पूरी कोशिश करती रही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में वह सबसे आगे दिखे. भाजपा खुद को हमेशा से हिंदू स्वाभिमान के स्वघोषित संरक्षक के तौर पर भी पेश करती रही है. लेकिन जब गंगा के मुद्दे पर लड़ाई में बाबाओं और खनन माफिया में से एक का साथ देने की बात आई तो पार्टी साफ तौर पर माफिया के साथ खड़ी नजर आई. एक बार नहीं. कई बार. देखा जाए तो भारी विरोध के बावजूद अगर हिमालय स्टोन क्रशर का कुछ नहीं बिगड़ा तो इसकी सबसे बड़ी वजह कंपनी की भाजपा और संघ के नेताओं से नजदीकी ही थी. लेकिन इसकी बात बाद में. सबसे पहले निगमानंद की लड़ाई को समझने की कोशिश करते हैं.
इस लड़ाई को समझने के लिए तहलका ने बहुत से लोगों से बात की, कई स्रोतों से जानकारियां जुटाईं और ये जानकारियां कितनी सही हैं, इसके लिए अनेक जगहों पर जाकर खुद पड़ताल भी की. सूचनाओं, और दस्तावेजों के विस्तृत विश्लेषण से स्वामी निगमानंद की लड़ाई की तस्वीर कुछ यों बनती है. महाकुंभ के दौरान 30 मार्च, 2010 की सुबह जब लाखों तीर्थयात्री हर की पैड़ी पर गंगा में पवित्र डुबकी लगा रहे थे तो उस जगह से महज एक किलोमीटर की दूरी पर वन अधिकारी नदी के किनारे बने एक स्टोन क्रशिंग प्लांट का औचक निरीक्षण कर रहे थे. प्लांट का नाम था एपी एसोसिएट्स स्टोन क्रशर. हरिद्वार में ऐसे 41 और पूरे उत्तराखंड में कुल 124 प्लांट हैं. राज्य में अवैध रेत और बजरी कारोबार के लिए काफी हद तक ये ही जिम्मेदार हैं. इनके द्वारा निर्मित रेत और बजरी की तेजी से फल-फूल रहे निर्माण उद्योग में काफी मांग है और इस तरह ये प्लांट उत्तराखंड के खनन माफिया के लिए करोड़ों की कमाई का साधन बन गए हैं.
छापा मारने वाली टीम को उस दिन प्लांट वाली जगह पर 45,000 टन पत्थर मिला जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. प्लांट के मालिक से जब पूछा गया कि यह पत्थर कहां से आया है तो उसके पास न कोई जवाब था और न ही दस्तावेज. उत्तराखंड में नदी किनारे से पत्थरों का चुगान सिर्फ सरकारी निगम कर सकते हैं जो फिर इस पत्थर को निजी क्रशरों को बेचते हैं. लेकिन यह चुगान भी हाथ से होना चाहिए. इसके लिए नदी तट की खुदाई पर कड़ा प्रतिबंध है. चुगान और क्रशिंग में सभी नियम-कायदों का पालन हो रहा है या नहीं यह सुनिश्चित करने के लिए करीब आधा दर्जन सरकारी एजेंसियां हैं. खनन विभाग, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केंद्रीय पर्यावरण आकलन समिति, वन विभाग सहित कई ऐसे अधिकारी भी हैं जिनका काम अवैध खनन रोकना और नदी के पारिस्थितिक तंत्र की सेहत सुनिश्चित करना है. इसके बावजूद हरिद्वार में हर दिन खनन माफिया द्वारा पत्थरों की लूट होती है. नियम कहते हैं कि चुगान का काम हाथ से हो, नदी का पाट न खोदा जाए. मगर हो ठीक उल्टा हो रहा है. विशाल मशीनें नदी का पाट खोखला कर रही हैं.
उत्तराखंड के पास खनिज संपदा के नाम पर सिर्फ तीन ही चीजें हैं. बालू, बजरी और खड़िया पत्थर. अवैध खनन से एक तरफ जहां खनन माफिया अपनी झोली भर रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकारी खजाने को चपत भी लग रही है. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. लगातार और बड़े पैमाने पर खनन ने कई और समस्याएं भी पैदा की हैं. इसके चलते भूजल स्तर नीचे चला गया है, नदी का पाट गहरा हो गया है, हजारों एकड़ खेती की जमीन बंजर हो गई है, जंगल का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया है और हवा प्रदूषित हो गई है. एक और अहम बात यह है कि क्रशरों से निकलने वाली धूल से जब किसानों की खेती बेकार हो रही है तो मजबूरी में उन्हें अपनी जमीनें कौड़ियों के भाव क्रशर मालिकों को ही बेचनी पड़ रही हैं.
एपी एसोसिएट्स की बात करते हैं. यह साफ था कि गंगा किनारे से यह पत्थर अवैध रूप से निकाला गया था. कई साल में पहली बार ऐसा हुआ था कि हरिद्वार में किसी स्टोन क्रशर पर छापा पड़ा. यह काम वहां नये-नये तैनात हुए डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर आरडी पाठक ने अंजाम दिया था. पाठक हरिद्वार में सोए पड़े वन विभाग में नयी जान फूंकना चाहते थे.
मगर उनकी टीम निरीक्षण कर ही रही थी कि तभी पाठक को एक फोन आया. फोन करने वाले एक कैबिनेट मंत्री थे जिनके पास पांच अहम विभागों का जिम्मा है. पाठक को अंदाजा था कि उनके छापे की सूचना फैलते ही उनके पास कई फोन आने वाले हैं इसलिए उन्होंने फोन अपने एक सहकर्मी को दे दिया था और उनसे मंत्री को यह बताने के लिए कहा था कि वे जंगल में हैं और अपना फोन पीछे ही भूल गए हैं. लेकिन मंत्री जी इस बात पर अड़े रहे कि उन्हें पाठक से बात करनी है. वे लगातार फोन करते रहे. कुछ घंटे बाद आखिरकार पाठक ने उनका फोन खुद उठाया.
उधर से मंत्री जी की आवाज आई, ‘पाठक साहब, कृपया अपने अधिकारियों को वापस बुला लें. आपको पता है कि क्रशर मेरे आदमियों का है. आपके अधिकारी बिन बात मेरे लोगों को परेशान कर रहे हैं.’ तब तक पाठक की टीम अपना काम पूरा करके रिपोर्ट तैयार कर चुकी थी. बाद में जब क्रशर के मालिक जितेंद्र सिंह से बिना हिसाब-किताब के इस पत्थर के दस्तावेज पेश करने को कहा गया तो कानून के फंदे से बचने की पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए वे खुद को बीमार बताते हुए अस्पताल में भर्ती हो गए. चार दिन बाद उन्होंने कुछ रसीदों की फोटोकॉपी पेश की जिनके बारे में उनका दावा था कि ये उस पत्थर की खरीद की रसीदें हैं. पाठक ने इन्हें इस आधार पर खारिज कर दिया कि जहां से इस पत्थर को खरीदने का दावा किया गया है वहां इस पत्थर की बिक्री का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 26 के तहत पाठक ने क्रशर मालिक पर करीब सवा करोड़ रु की पेनल्टी लगाई – 58 लाख प्राकृतिक संपदा की चोरी के लिए और 57 लाख पर्यावरण को पहुंचाए गए नुकसान के लिए.
लेकिन दो महीने बाद नौ जून को हरिद्वार के जिला मजिस्ट्रेट आर मीनाक्षी सुंदरम ने पाठक के आदेश को निरस्त कर दिया. जिन रसीदों को पाठक ने नकली पाया था उनमें सुंदरम को आश्चर्यजनक रूप से कुछ भी गड़बड़ नहीं लगा. इसके महीने बर बाद आठ जुलाई को पाठक का तबादला हो गया. सुंदरम अभी भी हरिद्वार के डीएम हैं. पाठक की जगह आए नए डीएफओ गोपाल सिंह राणा ने अपना चार्ज संभालने के बाद से खनन माफिया के खिलाफ एक भी छापा नहीं मारा है.
भारतीय वन अधिनियम के अंतर्गत एक जिला मजिस्ट्रेट, जिसकी प्राथमिक जिम्मेदारी राजस्व है, को एक डीएफओ द्वारा पारित किसी आदेश को रद्द करने का अधिकार ही नहीं है. इसके खिलाफ अपील सुनने का अधिकार वन संरक्षक को होता है. लेकिन सुंदरम ने अपील सिर्फ सुनी ही नहीं बल्कि स्टोन क्रशर के पक्ष में एक आदेश भी पारित कर दिया. इस बारे में सुंदरम का तहलका से कहना था, ‘वन विभाग आरक्षित वन भूमि पर ही छापे की कार्रवाई कर सकता है. स्टोन क्रशर की जांच करने का काम राजस्व विभाग, उद्योग विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या खनन इंस्पेक्टर का है. फिर भी जब डीएफओ की रिपोर्ट आई तो हमने इसे नजरअंदाज नहीं किया. हमने एक समिति बनाई जिसमें राजस्व, खनन और उद्योग विभाग के लोग थे. इस समिति ने जो रिपोर्ट दी वह बिल्कुल अलग थी.’ पाठक ने सुंदरम के इस बयान पर प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया. वे बस यही बोले कि उन्होंने तो बस अपना काम किया था.
निगमानंद के लंबे संघर्ष ने भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के विरोध की कलई खोल दी है. यह इस बात को भी दिखाता है कि त्रासदियों के बरक्स हमारी दिलचस्पी सर्कस में है
अगर सुंदरम की बात सही भी हो तो भी बड़ी समस्या यह है कि वे जिन विभागों को अवैध खनन पर निगरानी रखने के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं उनमें से कोई भी इस समस्या से निपटने के लिए गंभीर नहीं दिखता. तहलका ने हरिद्वार में तीन स्टोन क्रशरों का दौरा किया. हमने पाया कि ये सभी प्रदूषण नियंत्रण संबंधी नियमों को धता बताकर चल रहे थे. स्थानीय लोगों का कहना था कि इनसे निकलने वाली धूल से इलाके के लोगों को न सिर्फ टीबी जैसी सांस की बीमारियां हो रही हैं बल्कि उनकी खेती भी चौपट हो रही है. सज्जनपुर-पिल्ली गांव में हमें किशन सिंह मिले. 55 वर्षीय सिंह किसान हैं और उनके पास सात बीघा जमीन है जिस पर वे गेहूं और चावल उगाते हैं. उनका कहना था, ‘हमारे खेतों पर धूल की चादर बिछी रहती है जिससे फसलों को नुकसान हो रहा है. जिनके खेत क्रशर के पास हैं वे तो खेती कर ही नहीं पाते. अगर कभी इंस्पेक्शन होता है तो क्रशर मालिक दिखाने के लिए वाटर स्प्रिंकलर (धूल बैठ जाए इसके लिए छोड़े जाने वाले पानी के फव्वारे) चालू कर देता है लेकिन निरीक्षण खत्म हुआ नहीं कि हालत वही ढाक के तीन पात जैसी हो जाती है.’ उनकी पत्नी भगवती आगे जोड़ती हैं, ‘ये क्रशर गंगा में खुदाई के लिए जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल करते हैं. हमने सुना है कि किसी महात्मा की मौत हुई है इसलिए पिछले कुछ दिनों से काम बंद पड़ा है.’ जगजीतपुर में प्रैक्टिस करने वाले डॉ विजेंद्र सिंह कहते हैं कि उनके गांव में पेड़ों पर अब फल नहीं लगते. वे बताते हैं, ‘यहां चल रहे दो क्रशरों से इतना ज्यादा ध्वनि और वायु प्रदूषण हो रहा है कि बर्दाश्त करना मुश्किल है. गांववालों में दमा, टीबी और पेट की बीमारियां आम हो चली हैं.’
लेकिन इस सबके बावजूद पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार संस्था उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन सभी क्रशरों को अनापत्ति प्रमाण पत्र यानी एनओसी दे रखे हैं. तहलका ने जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुखिया डॉ अजय गैरोला से उन क्रशरों की सूची मांगी जिन्हें उनके विभाग ने एनओसी दिए हैं या फिर नियमों के उल्लंघन के लिए जुर्माना ठोका है तो हमें कोई जवाब नहीं मिला.
हैरान करने वाले तथ्य यहीं खत्म नहीं होते. यह बात भी आश्चर्य में डालने वाली है कि हरिद्वार और पौड़ी जैसे दो बड़े जिलों के लिए सिर्फ एक ही खनन निरीक्षक है. इस पद पर इन दिनों शैलेंद्र सिंह तैनात हैं. वे बताते हैं कि मदद के लिए उनके पास कोई और स्टाफ नहीं है. एक चपरासी तक नहीं. वे मानते हैं कि पिछले दो वर्षों में उन्होंने एक बार भी किसी क्रशर का निरीक्षण नहीं किया है. वे बताते हैं कि आखिरी बार बीती 11 मई को उन्होंने अवैध खनन से निकाले गए पत्थरों से भरे ट्रकों के एक काफिले को रोकने की कोशिश की थी. इसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें डकैती और आपराधिक हमले के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. रुड़की के एसडीएम और एडिशनल एसपी के मौके पर पहुंचने के बाद ही वे छूट सके. हालांकि खनन माफिया तब भी सहारनपुर के बिहारीगढ़ थाने में सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने में सफल हो गया जहां उनके खिलाफ मामला अब भी लंबित है.
आप जहां भी जाएं आपको व्यवस्था की सड़न साफ दिखेगी. अगर आप लूट में शामिल हैं तो मुनाफा बड़ा है और अगर आप कानून के साथ हैं तो आपके लिए खतरा खड़ा है. हरिद्वार के एसडीएम हरदेव सिंह बताते हैं कि एक नहीं बल्कि तीन बार ऐसा हुआ कि उनकी टीम ने जेसीबी मशीनों से खुदाई कर रहे खनन माफिया पर छापा मारकर उन्हें रंगे हाथ पकड़ा लेकिन उल्टे उनकी टीम पर ही हमला हो गया. सिंह कहते हैं, ‘हमने एफआईआर दर्ज करवाई. एक मामले में एक आरोपित की गिरफ्तारी हुई. मगर उसके बाद कुछ नहीं हुआ.’ छापा मारने वाली इस टीम के एक सदस्य नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अब उन पर खनन माफिया के साथ समझौता करके केस वापस लेने के लिए दबाव डाला जा रहा है. वे कहते हैं, ‘अगर हम अवैध पत्थर से लदा एक खच्चर भी पकड़ लें तो हमें तुरंत ऊपर से फोन आ जाता है कि उसे छोड़ दिया जाए.’
हिमालय स्टोन क्रशर के हितों की रक्षा के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा किये गये प्रयास और अवैध खनन को लेकर उसके द्वारा दिखाई गई उपेक्षा, दोनों हैरान करते हैं
अपने तबादले से पहले पाठक ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें अवैध खनन में लगी 18 क्रशर कंपनियों की एक सूची थी. अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने रिपोर्ट के साथ क्रशर मालिकों द्वारा गंगा में जेसीबी मशीनों से हो रही खुदाई की तस्वीरें भी लगाई थीं. जब तहलका ने सुंदरम से इस रिपोर्ट के बारे में पूछा तो उनका कहना था, ‘हां, ऐसी एक रिपोर्ट थी तो. इसमें कुछ बातें ठीक थीं. कुछ सही साबित नहीं हुईं.’ लेकिन सुंदरम कोई कार्रवाई गिनाने में असफल रहे.
मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की अगुवाई में चल रही राज्य की भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान उत्तराखंड में अवैध खनन विनाशकारी स्तर तक पहुंच गया है. खनन माफिया गंगा, यमुना, गौला और शारदा जैसी नदियों और पहाड़ पर स्थित खड़िया खदानों से हर साल अवैध रूप से लाखों घन मीटर पत्थर निकालकर अपनी जेबें भर रहे हैं. उनके इस काम को मंत्रियों का भी समर्थन है और वह भी सक्रिय तौर पर. कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, यह भावना इतना गहरे समाई हुई है कि कुछ मामलों में तो खदानें और स्टोन क्रशर सत्ताधारी नेताओं के नाम पर ही हैं.
अब दिवाकर भट्ट का ही उदाहरण लें. उनके पास तीन प्रभार हैं–राजस्व, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति और सैनिक कल्याण. उनके पुत्र ललित हरिद्वार के सजनपुर-पीली गांव में लगे स्टोश क्रशर ओम श्री कैलापीर के मालिक हैं. जब तहलका ने भट्ट से उनके क्रशर द्वारा किए जा रहे अवैध खनन के बारे में पूछा तो उन्होंने इस आरोप को खारिज कर दिया. उनका कहना था, ‘मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि राज्य में अवैध खनन नहीं हो रहा. मगर लोग उनकी बात क्यों नहीं करते जो हर दिन हजारों टन पत्थर का अवैध खनन कर रहे हैं? मैं कोई गलत काम नहीं करता.’
जगदीश कालाकोटी भी सत्ताधारी पार्टी के नेता हैं. इन दिनों वे भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य हैं. बागेश्वर के छातीखेत गांव में करीब तीन एकड़ में उनकी खड़िया खदान है. खनन के लिए उन्हें लाइसेंस 2002 में तब मिला था जब भाजपा राज्य की सत्ता में थी. कालाकोटी ने तहलका को बताया कि उनकी खदान से राज्य को हर साल 25 से 30 लाख रु का राजस्व प्राप्त होता है जबकि इससे उन्हें करीब एक करोड़ रु की आय होती है.
राज्य के चिकित्सा शिक्षा मंत्री बलवंत सिंह भौर्याल भी बागेश्वर स्थित एक खड़िया खदान के मालिक हैं. उनकी कंपनी का नाम है वैष्णवी सोपस्टोन प्राइवेट लिमिटेड. इसी जिले के भाजपा नेताओं ठाकुर सिंह गडिया और विक्रम सिंह शाही के पास भी खड़िया खदानें हैं. बागेश्वर में कुल मिलाकर 45 और पिथौरागढ़ में कुल 15 खदानें हैं.
सामाजिक संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राज्य उपाध्यक्ष नंदावल्लभ भट्ट का आरोप है कि पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में लापरवाह और अवैध तरीके से हो रहे खनन ने यहां के कई गांवों को वीरान कर दिया है. ज्यादातर मामलों में जमीन स्थानीय किसानों की है मगर भाजपा नेताओं द्वारा वास्तविक भूस्वामी से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने के बाद उस पर खनन के लिए लाइसेंस ले लिया गया है. कालाकोटी कहते हैं, ‘यह एक गलत धारणा है कि खड़िया के खनन से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. इससे लाइसेंस धारक को ही नहीं बल्कि सरकार और जमीन के मालिक यानी किसान को भी फायदा होता है.’ इनकार या बेपरवाही का यह रवैया उत्तराखंड में हर जगह दिखता है. नियम कहते हैं कि सात या आठ फुट की गहराई तक ही खनन हो सकता है मगर खनन करने वाले 65 से लेकर 80 फुट तक खोदे जा रहे हैं.
दिनेश कुमार जिला खनन अधिकारी हैं. उनके पास बागेश्वर, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों का प्रभार है. वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि खनन लाइसेंसधारक तय सीमा से बहुत ज्यादा गहराई तक खनन कर रहे हैं. कुमार यह भी बताते हैं कि खनन के बाद गड्ढों को भरने और वहां पेड़ लगाने का नियम है मगर शायद ही कोई इस नियम का पालन करता हो. हालांकि इसके बावजूद वे खुद मानते हैं कि पिछले दो साल के दौरान न तो उन्होंने एक भी नोटिस जारी किया है और न ही किसी पर जुर्माना लगाया है. एक और मंत्री जिन पर अक्सर खनन माफिया को शह देने का आरोप लगता रहा है, वे हैं मदन कौशिक. वर्तमान में उनके पास पांच अहम विभाग हैं. शहरी विकास, आबकारी, पर्यटन, गन्ना विकास एवं गन्ना उद्योग. कौशिक हरिद्वार से विधायक हैं. 1998 में भाजपा में आने से पहले वे बजरंग दल की हरिद्वार इकाई के जिला समन्वयक हुआ करते थे. भाजपा के अंदरूनी लोग बताते हैं कि उन पर सुषमा स्वराज जैसी बड़ी पार्टी नेता का वरदहस्त है जिन्हें वे अपना राजनीतिक मार्गदर्शक भी मानते हैं.
जिस हिमालय स्टोन क्रशर के विरोध में निगमानंद ने जान दे दी उसके बारे में बताया जाता है कि उसे कौशिक का संरक्षण प्राप्त है. इस बारे में बात करने पर कौशिक कहते हैं, ‘मैं हरिद्वार से चुना गया हूं और कई स्थानीय लोगों के साथ मेरी मित्रता है. इसमें हिमालय के मालिक भी शामिल हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं किसी को संरक्षण दे रहा हूं. मेरा एक भी पैसा न तो हिमालय में लगा हुआ है और न ही उस इलाके में चल रहे किसी दूसरे क्रशर में.
अपने आदेश में अदालत ने साफ-साफ कहा है कि क्रशर मालिकों ने न सिर्फ आसपास के समाज बल्कि बड़े परिदृश्य में देखा जाए तो पूरी मानवता का नुकसान किया
हालांकि हिमालय स्टोन क्रशर के मालिक की ऐसी कई मित्रताएं लंबे समय से चर्चित रही हैं. यह क्रशर आबादी के काफी नजदीक स्थित था. इस पर लंबे समय से कानून का उल्लंघन करने के आरोप लगते रहे थे. फिर भी यह 14 साल से निर्बाध चलता रहा और तभी बंद हुआ जब इस साल 26 मई को अपने आदेश में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने ऐसा करने का आदेश दिया. निगमानंद को कोमा में गए तब तक 25 दिन हो चुके थे. इसके 16 दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. मुख्य न्यायाधीश बारिन घोष की अध्यक्षता में बने उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मामले में अपना जो आदेश दिया उसमें अदालत की नाराजगी तो दिखती ही है, पूरी कहानी भी साफ हो जाती है. आदेश कहता है, ‘आसपास के गांवों के प्रतिनिधियों और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रतिरोध के बावजूद क्रशर मालिक संबंधित अधिकारियों से अपने लाइसेंस का समय-समय पर नवीनीकरण करवाने में सफल रहे. सबसे मुख्य प्रतिरोधों में से एक मातृ सदन आश्रम के संतों द्वारा किया गया था जो क्रशर से ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन अपने ऊंचे संपर्कों के चलते क्रशर मालिकों का जो प्रभाव था, उसके आगे उनकी आवाज का कोई असर नहीं हुआ.’ अदालत ने साफ-साफ कहा है कि पत्थरों के चुगान की आड़ में क्रशर मालिकों ने राष्ट्रीय नदी गंगा के तल और इसके किनारे की खुदाई शुरू कर दी जिससे न सिर्फ आसपास के समाज बल्कि बड़े परिदृश्य में देखा जाए तो पूरी मानवता का नुकसान हुआ. यह एक महत्वपूर्ण फैसला था. दुर्भाग्य से निगमानंद इसे सुन पाने की अवस्था में नहीं थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वामी निगमानंद और बाबा रामदेव की लड़ाई के फर्क को इन दोनों संन्यासियों के आश्रम पर एक नजर डालकर भी समझा जा सकता है.
अगर आप हरिद्वार जाएं तो एक सर्पीली सड़क आपको रामदेव के विशाल आश्रम पतंजलि योगपीठ फेज-1 तक ले जाएगी. आश्रम तक पहुंचने से पहले आपको जगह-जगह पर रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण की मुस्कुराती तस्वीरों वाले विशाल होर्डिंग भी दिखेंगे. पतंजलि योगपीठ फेज-1 के अलावा रामदेव के दो और आश्रम हैं. 30 एकड़ में फैला पंतजील योगपीठ फेज-2 और योगग्राम. हरिद्वार के औरंगाबाद गांव में करीब 125 एकड़ में फैला योगग्राम एक प्राकृतिक और आयुर्वेदिक चिकित्सा केंद्र है जो किसी भी प्राइवेट अस्पताल जितना ही महंगा है.
रामदेव जिस तरह से और जितने बड़े स्तर पर काम कर रहे हैं उसे देखते हुए उनकी इन जगहों को आश्रम नहीं बल्कि कारोबारी साम्राज्य कहा जाना चाहिए. पंतजलि योग पीठ फेज-1 में एक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, एक आयुर्वेद विश्वविद्यालय, वातानुकूलित प्रशासनिक एवं आवासीय ब्लॉक हैं. इसमें अलग से एक और ब्लॉक भी है जिसमें रामदेव खुद रहते हैं. इसके अलावा तीन ऑडिटोरियम भी हैं जिनमें से एक तो एशिया में सबसे बड़ा है. भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का कार्यालय भी यहीं है जिसे रामदेव ने अपने कथित काले धन विरोधी अभियान के लिए बनाया था. इसमें संत रविदास लंगर और महर्षि वाल्मीकि धर्मशाला भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां तीन दिन तक ठहरने और खाने के लिए कोई पैसा नहीं लिया जाता. हालांकि रामदेव के इस दावे की सत्यता की कभी कोई पुष्टि नहीं हुई है. जमीन और वित्तीय सौदों की तरह रामदेव के धर्मार्थ कार्य भी एक रहस्य ही हैं.
हरिद्वार में ही एक और सड़क है जो जगजीतपुर गांव की तरफ जाती है. संकरी और गड्ढों से भरी इस टूटी-फूटी सड़क पर चलकर आप मातृसदन पहुंचते हैं. गंगा किनारे बसे इस आश्रम की स्थापना 1997 में 64 वर्षीय स्वामी शिवानंद ने की थी. इसका मकसद वैदिक परंपराओं को प्रोत्साहन देना और प्रकृति और विशेषकर गंगा के संरक्षण के प्रयास करना था. शिवानंद ने आश्रम के लिए 10 लाख रु. में चार एकड़ जमीन खरीदी थी. तब उनके साथ उनके सात शिष्य थे. उन्हीं में से एक थे निगमानंद जिनकी उम्र तब 24 साल थी.
हरिद्वार के एसडीएम हरदेव सिंह बताते हैं कि एक नहीं बल्कि तीन बार ऐसा हुआ कि उनकी टीम ने जेसीबी मशीनों से खुदाई कर रहे खनन माफिया पर छापा मारकर उन्हें रंगे हाथ पकड़ा लेकिन उल्टे उनकी टीम पर ही हमला हो गया
आश्रम में कोई भी प्रवेश कर सकता है. पतंजलि योगपीठ की तरह यहां कोई विशाल चहारदीवारी नहीं है जिसके भीतर घुसने के लिए 10 रु प्रति वाहन शुल्क लिया जाता हो. मातृसदन में प्रवेश निशुल्क है. वैसे भी इस आश्रम के भीतर कुछ खास है भी नहीं. बस चंद खस्ताहाल कमरे, एक गौशाला और एक यज्ञशाला है. अगर कोई आगंतुक भोजनावकाश के समय मौजूद हो तो स्वामी और उनके शिष्यों का आग्रह रहता है कि वह रुके और खाना खाकर जाए. इसके लिए किसी को पैसा नहीं देना पड़ता. रामदेव का रेस्टोरेंट हरिद्वार में सबसे महंगा है. आश्रमों की तरह इन आश्रमों के निवासियों द्वारा चलाए गए भ्रष्टाचार विरोधी अभियान भी अलग थे. रामदेव ने बड़ी रकम खर्च करके दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल एवं भव्य पंडाल लगवाए. उनके दावे भी उतने ही विशाल थे. उधर, निगमानंद का विरोध कहीं ज्यादा व्यावहारिक और जमीन से जुड़ा था.
19 फरवरी की ठिठुरन भरी सुबह निगमानंद आश्रम परिसर में बने एक आम के पेड़ के नीचे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठ गए. वह उच्च-न्यायालय के उस स्थगनादेश का विरोध कर रहे थे जिससे हिमालय स्टोन क्रशर को अपनी गतिविधियां जारी रखने की इजाजत मिल गई थी. मातृसदन का आरोप था कि स्टोन क्रशर कुंभ मेला क्षेत्र में चल रहा है जो राज्य सरकार के ही नियमों के मुताबिक पत्थरों के उत्खनन या क्रशिंग जैसी गतिविधियों से मुक्त होना चाहिए. बालू और पत्थर के अवैध खनन के खिलाफ पिछले 14 वर्षों के दौरान मातृसदन का यह 30वां सत्याग्रह था. निगमानंद इससे पहले ऐसे पांच अनशनों में हिस्सा ले चुके थे जिसमें एक बार तो उनकी भूख हड़ताल की अवधि कुछ महीनों तक खिंच गई थी.
मातृसदन के अलावा किसी भी संगठन या राजनीतिक दल ने गंगा किनारे व्यापक स्तर पर चल रहे इस अवैध खनन का विरोध नहीं किया था. इन विरोध अभियानों के लिए पिछले 10 वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने शिवानंद और उनके शिष्यों को
तीन बार जेल भेजा. तीनों बार सत्ता में भाजपा की सरकार थी. मातृसदन ने तीन मार्च 1998 को कुंभ मेले के दौरान अपना पहला आंदोलन शुरू किया. पूरे मेला क्षेत्र में पत्थरों और बालू के खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए निगमानंद एक और स्वामी गोकुलानंद के साथ आमरण अनशन पर बैठे. उस समय पूरे मेला क्षेत्र में पांच घाट ऐसे थे, जो इससे प्रभावित थे. मेला अधिकारी द्वारा मांगों को मानने का लिखित आश्वासन दिए जाने पर एक हफ्ते बाद अनशन समाप्त हुआ. खनन और क्रशिंग रोक दी गई. लेकिन मेला खत्म होते ही ये फिर शुरू हो गए और इसी के साथ मातृसदन का आंदोलन भी शुरू हो गया.
निगमानंद और स्वामी गुणानंद सरस्वती ने 27 मई, 1998 को फिर से अनशन शुरू कर दिया. अनशन के 12वें दिन प्रशासन ने लिखित आश्वासन दिया कि मेला क्षेत्र में खनन और क्रशिंग का काम पूरी तरह बंद होगा. चांदी घाट, धोबी घाट और जगजीतपुर घाट पर प्रशासन ने अपना वादा निभाया भी. लेकिन बाकी दो घाटों मिस्सरपुर और अजीतपुर पर गैरकानूनी खनन का काम जारी रहा. सरकार परस्पर विरोधी और विचित्र किस्म के नोटिफिकेशन जारी करती रही, जिसमें इन घाटों को मेला क्षेत्र से बाहर बताया जा रहा था ताकि यहां गैरकानूनी खनन जारी रह सके. इसका सबसे बड़ा फायदा हिमालय स्टोन क्रशर को हुआ. हिमालय स्टोन क्रशर के हितों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा किये गये प्रयास हैरान करते हैं. इस क्रशर के मालिक ज्ञानेश अग्रवाल हरिद्वार के निवासी हैं और कहा जाता है कि उन्हें भाजपा मंत्री मदन कौशिक का संरक्षण प्राप्त है. अग्रवाल का परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से काफी करीब से जुड़ा हुआ है. 2006 में जब तत्कालीन सर संघ चालक केएस सुदर्शन हरिद्वार आये थे तो वे शहर के बीचोंबीच मौजूद अग्रवाल की भव्य कोठी में ही रुके थे. अग्रवाल के पिता हजारी लाल अग्रवाल संघ और विश्व हिंदू परिषद से घनिष्ठ रूप से संबद्घ भारत विकास परिषद के सदस्य हैं. ज्ञानेश और उनके भाई हरिद्वार में संघ और विहिप के कार्यक्रमों में अक्सर ही मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए जाते हैं. अग्रवाल मानते हैं कि सिर्फ सुदर्शन ही नहीं वर्तमान सर संघ चालक मोहन भागवत भी कई बार उनके घर में रुक चुके हैं. वे कहते हैं ‘लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम संघ के सदस्य हैं. कारोबारी होने के नाते मैं सभी तरह के संगठनों से करीबी रिश्ता रखता हूं.’
ज्यादातर मामलों में जमीन स्थानीय किसानों की है मगर भाजपा नेताओं द्वारा वास्तविक भूस्वामी से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने के बाद उस पर खनन के लिए लाइसेंस ले लिया गया है
अग्रवाल ने 1998 में अजीतपुर गांव में बहुत बड़ा क्रशिंग प्लांट लगाया, जो मेला क्षेत्र में आता है. मातृ सदन लगातार इसके खिलाफ आंदोलन कर रहा था. 19 जून को जब तहलका की टीम अजीतपुर पहुंची तो गांव वालों ने बताया कि प्लांट नदी के दोनों किनारों से खुले आम पत्थरों की खुदाई किया करता था. 20 जनवरी 2008 को मातृसदन ने अपना सत्याग्रह फिर शुरू कर दिया. सरकार ने कई नोटिफिकेशनों के जरिये अजीतपुर को चिह्नित मेला क्षेत्र से बाहर रख दिया था. स्वामी शिवानंद ने 1998 के कुंभ मेले के दौरान सरकार द्वारा तैयार किया गया नक्शा दिखाया जिसमें मेला क्षेत्र अजीतपुर तक फैला हुआ है.
निगमानंद के 73 दिनों के अनशन के बाद आखिरकार भाजपा सरकार झुकी और उसने कुंभ मेला क्षेत्र के मामले को सुलझाने के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति गठित की जिसने सुझाव दिया कि अजीतपुर को मेला क्षेत्र में शामिल किया जाए. लेकिन सरकार ने अपनी ही कमेटी की सिफारिशें नहीं मानीं. तंग आकर छह फरवरी, 2009 को मातृसदन ने फिर आंदोलन शुरू कर दिया. इस बार ब्रह्मचारी दयानंद नाम के एक दूसरे संत अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे. सात मार्च को सरकार को झुकना पड़ा और गढ़वाल के कमिश्नर ने मिसरपुर और अजीतपुर घाटों से भी पत्थरों की निकासी अस्थाई तौर पर बंद कराने कि घोषणा की. लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर पर कोई रोक नहीं लगी. कुछ हफ्तों बाद ही इन दोनों घाटों से भी पत्थर का खनन फिर शुरू हो गया.
15 अक्टूबर, 2009 से 25 मार्च 2010 तक मातृ सदन के चार और संत अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे. 173 दिन तक आंदोलन चला. इस बीच 29 दिसंबर 2009 को उत्तराखंड सरकार ने 2010 के कुंभ मेले के लिए मेला क्षेत्र चिह्नित करने के लिए एक नया नोटिफिकेशन जारी किया. लेकिन एक बार फिर मेला क्षेत्र इस तरह से निर्धारित किया गया कि हिमालय स्टोन क्रशर वाला इलाका इसके बाहर रहे. आंदोलन के दौरान ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने आश्रम का दौरा किया था. उन्होंने गंगा के किनारों पर गैरकानूनी खनन के मातृ सदन के दावों की तहकीकात के लिए एक टीम भी भेजी थी. टीम ने गंगा के किनारों पर भयानक अवैध खनन देखा और मातृसदन के दावों की पुष्टि करते हुए रिपोर्ट भेजी.
जनवरी, 2010 में रमेश ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को चिट्ठी तक लिखी जिसमें उन्होंने अनुरोध किया था कि मिस्सरपुर और अजीतपुर सहित पूरे उत्तराखंड में हो रहे अवैध खनन को रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए जाएं. अंततः सरकार ने मिसरपुर और अतीजपुर घाट से खनन पर रोक लगा दी लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर को चलने दिया गया. मातृसदन ने विरोध जारी रखा. 20 जनवरी से शिवानंद खुद भूख हड़ताल पर बैठ गए. पांच फरवरी को सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी किया जिसमें कुंभ मेला क्षेत्र में हिमालय स्टोन क्रशर के क्षेत्र को भी दिखाया गया था. पिछले 12 साल में ऐसा पहली बार हुआ था. छह फरवरी को शिवानंद ने अपना अनशन समाप्त किया. लेकिन उन्हें पता नहीं था कि सरकार ने नोटिफिकेशन तो जारी कर दिया है, लेकिन उसे लागू करने के लिए जरूरी प्रावधान नहीं बनाए हैं. क्रशर के मालिक ने हाईकोर्ट से सरकार के आदेश पर स्टे ऑर्डर ले लिया. अप्रैल में कोर्ट ने आदेश को रद्द कर दिया और हिमालय स्टोन क्रशर के पक्ष में यह कहते हुए फैसला सुना दिया कि स्टोन-क्रशिंग की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए नियम नहीं बनाए गये हैं. आश्चर्यजनक रूप से सरकार ने अदालत में अपना पक्ष नहीं रखा. उसने शपथपत्र तक नहीं दायर किया. 18 नवंबर 2010 को शिवानंद ने अपना अनशन फिर शुरू कर दिया और मांग की
कि सरकार इस सिलसिले में स्पष्ट नियम बनाये और आदेश दे.
10 दिसंबर को सरकार ने एक एकदम स्पष्ट नोटिफिकेशन जारी किया. इसने जरूरी नियम भी बनाये. शिवानंद ने 11 दिसंबर को अपना अनशन समाप्त कर दिया. 14 दिसंबर 2010 को पहली बार हिमालय स्टोन क्रशर की गतिविधियां थम गईं. लेकिन बहुत कम वक्त के लिए. उसी दिन इसने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. अदालत ने सरकार को जवाब देने के लिए छह हफ्तों का समय दिया. तब तक के लिए सरकार के आदेश पर रोक लगा दी गई.
इस अन्याय के खिलाफ स्वामी शिवानंद ने सरकारी आदेश पर आए स्टे ऑर्डर के खिलाफ विशेष याचिका दायर की. साथ ही एक दूसरे संत स्वामी यजनानंद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गये. उन्होंने 19 फरवरी 2011 तक भूख हड़ताल की. इसके बाद निगमानंद ने उनकी जगह ली. 68 दिनों की जबर्दस्त भूख हड़ताल के बाद 27 अप्रैल से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. आश्रम ने मुख्य सचिव को एसएमएस भेजा. जिला प्रशासन ने आश्रम पहुंचकर निगमानंद को हरिद्वार जिला अस्पताल पहुंचा दिया. उस दिन तक न कोई सरकारी अधिकारी और न ही कोई मंत्री निगमानंद को देखने गया और न ही किसी ने उनकी भूख हड़ताल समाप्त करवाने की कोशिश की. हालांकि सुंदरम कहते हैं, ‘हम वहां 27 अप्रैल के पहले भी एक-दो बार गये थे. लेकिन हमने गलती यह की कि वहां एंट्री नहीं की. इसलिए इसका कोई प्रमाण नहीं है.’
अस्पताल में निगमानंद को जबरन नाक में नली डालकर सूप और दूध दिया गया. 30 अप्रैल तक वे कुछ ठीक होने लगे थे. शिवानंद बताते हैं, ‘वे होश में थे और हमसे बातचीत कर रहे थे. उन्होंने बताया कि वे बेहतर महसूस कर रहे हैं. हममें से जब कोई भूख हड़ताल पर बैठता है तो हम दृढ़ रहने की शपथ लेते हैं, मृत्यु की नहीं.’शिवानंद का दावा है कि 30 अप्रैल को एक नर्स वार्ड में आयी और निगमानंद को इंजेक्शन लगाने के बाद सिरिंज अपने साथ ले गई. उसी रात से उनकी हालत फिर बिगड़ने लगी. दो मई को वे कोमा में चले गये. उन्हें कई अस्पतालों में रखने के बाद अंततः हिमालयन सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल ले जाया गया. दो मई से 13 जून तक (जिस दिन निगमानंद की मृत्यु हुई) कोई मंत्री या नौकरशाह निगमानंद को देखने नहीं गया.
इससे तीन दिन पहले 10 जून को रामदेव को उसी अस्पताल के उसी वार्ड में भर्ती कराया गया था. रामदेव के लिए तुरंत ही आईसीयू को वीआईपी रूम में तब्दील कर दिया गया. मुख्यमंत्री निशंक उन्हें देखने के लिए अगले ही दिन पहुंच गये. अस्पताल से निकलते समय उन्होंने मीडिया को बताया, ‘रामदेव का जीवन देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. मैं भगवान से उनके जल्दी स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहा हूं. उनका जीवन बचाने के लिए राज्य सरकार जो भी कर सकती है, करेगी.’ 12 जून को मुख्यमंत्री रामदेव को दोबारा देखने पहुंचे. उसी दिन दोपहर के बाद रामदेव ने मीडिया के सामने पूरे तामझाम के साथ अपना अनशन समाप्त किया. उनके अगल-बगल श्री श्री रविशंकर, मोरारी बापू और रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण मौजूद थे. जैसे ही रामदेव ने एक गिलास जूस पिया टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज आयी ‘बाबा रामदेव का अनशन समाप्त’ वहीं पास में निगमानंद अंतिम सांसें ले रहे थे.
2007 में उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक तीखे व्यंग्यात्मक गीत ने एनडी तिवारी की सरकार के जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. भाजपा ने बड़े चाव से तिवारी की यौन उच्छृंखलता के बारे में नेगी के इस गीत का इस्तेमाल किया था. अब भाजपा की बारी है. नेगी ने मुख्यमंत्री निशंक की तरफ इशारा करते हुए एक गीत लिखा है जिसका शीर्षक है, ‘अब कथग्या खैल्यो तू ‘ (अब और कितना खाओगे?) इस गीत में उन सभी कथित स्कैंडलों और घोटालों की सूची है जिनके साथ मुख्यमंत्री का नाम जुड़ा रहा है.
निगमानंद और मातृसदन के भ्रष्टाचार के खिलाफ लंबे संघर्ष ने भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के विरोध की कलई खोल दी है. यह इस बात का भी सबूत है कि पीपली लाइव की तरह हमारी रुचि त्रासदियों के बरक्स सर्कस में है. इन संतों ने आंखों के आगे फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ पिछले 14 सालों में जो लंबा संघर्ष चलाया है उसकी सुध राष्ट्रीय मीडिया तो छोड़िए स्थानीय मीडिया ने भी नहीं ली.
एक ऐसे देश में जहां लोगों की बड़ी जमात स्वेच्छा से आध्यात्मिक धूर्तों और दिखावेबाज बाबाओं के आगे झुकने को तैयार रहती है, यह हैरत नहीं कि किसी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ इन वास्तविक संतों के 14 साल लंबे अहिंसक संघर्ष की ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस पूरी कहानी में उम्मीद की शायद एक ही किरण है कि काले धन के खिलाफ भावनाओं के मामले में बड़े और जमीनी तथ्यों के मामले में कमजोर अभियान में जहां अब भी कई अस्पष्टताएं हैं वहीं मातृसदन के संतों के संघर्ष ने एक असल जीत हासिल की है. 26 मई को जब निगमानंद कोमा में थे, उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष और उनके सहयोगी न्यायमूर्ति सर्वेश कुमार गुप्ता ने हिमालय स्टोन क्रशर को बंद करने का आदेश दिया. अदालत ने जो कुछ भी कहा उससे मातृसदन द्वारा एक दशक से भी ज्यादा समय पहले लगाए गए सारे आरोप सही साबित होते हैं. आदेश में कहा गया है, ‘हिमालय स्टोन क्रशर और अन्य के द्वारा गंगा में लगातार खनन के चलते नदी गहरी हो गई है. इससे आसपास के हजारों एकड़ के क्षेत्र में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है. यहां तक कि इलाके के हैंडपंप भी पानी के बिना सूख गए हैं. क्रशर से निकलने वाली धूल के चलते इलाके के गांवों में कृषि उत्पादन लगभग खत्म हो गया है. यही हालत आस-पास के बगीचों की है. खासतौर पर आम के बगीचों की जिसके चलते उनके मालिकों को अपनी जमीन क्रशर मालिकों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. अवैध खनन के चलते गंगा की लंबी पट्टी में भूमि का क्षरण भी हो रहा है.
आदेश यह भी कहता है, ‘हिमालय स्टोन क्रशर, 2001 से खनन संबंधी नियमों का उल्लंघन करते हुए चल रहा था जिसमें प्रावधान है कि क्रशर रिहायशी इलाकों से कम से कम पांच किलोमीटर दूर होना चाहिए. क्रशर से निकले हुए धूल के कण स्थानीय ग्रामीणों में टीबी, अस्थमा और सांस की दूसरी बीमारियां पैदा कर रहे हैं.’ अदालत का यह भी कहना था कि कृषि के लिहाज से हरे-भरे क्षेत्र और पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील इलाके में स्थित इस क्रशर को हरिद्वार विकास प्राधिकरण ने कभी अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं दिया.
निगमानंद अब इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर भी बंद हो चुका है.
पर इसके लिए क्या निगमानंद की जान जाना जरूरी था?
(महिपाल कुंवर के योगदान के साथ)