चार दिसंबर को देश के छह राज्यों में आठ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव का परिणाम आने के एक दिन पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने आवास पर बातचीत के क्रम में एक टिप्पणी करते हैं, ’झारखंड में भाजपा ने ठीक नहीं किया. हमारी पार्टी को छोड़ झारखंड मुक्ति मोर्चा का साथ देने का फैसला लिया. मैं इससे बेहद दुखी हूं.’ चार को चुनाव परिणाम आया. बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस के लिए इसने ऑक्सीजन-सा काम किया. आठ में से दो सीटें जीतकर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने राहत की सांस ली. बिहार के स्तर पर जदयू की स्वीकार्यता पर मुहर लगी. यह पहले से ही तय था कि अपनी पुरानी सीट लौकहा पर जदयू को जीत मिलेगी. हालांकि इस सीट पर मुसलिम-यादव समीकरण के पुनर्प्रयोग के साथ लालू प्रसाद यादव ने अपने साथी रामविलास पासवान के साथ पूरी ऊर्जा झोंक दी थी. फिर भी बिहार में लालू प्रसाद को ऑक्सीजन न मिल सकी.
लेकिन उपचुनाव परिणामों का सबसे ज्यादा तमाशाई असर झारखंड में दिखा. चुनाव के पहले भी, बाद में भी. राज्य की मांडु विधानसभा सीट पर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने जीत हासिल की. यह सीट झामुमो से पांच बार विधायक रहे टेकलाल महतो की मृत्यु के बाद खाली हुई थी. यहां जीत टेकलाल के बेटे जयप्रकाश पटेल की हुई. भाजपा ने सरकार में साझेधारी के धर्म को तरजीह देते हुए झामुमो को ही समर्थन दिया था. यहां दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही.
गठबंधन के साथी को छोड़कर झामुमो का साथ देने के भाजपा के रुख से नीतीश तो दुखी भर हैं लेकिन झारखंड के जदयू नेता आर-पार के मूड में हैं. इस सीट पर जदयू के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष खिरू महतो चुनाव लड़ रहे थे. उनकी जमानत जब्त हो गई. खिरू महतो को दुख इस बात का नहीं कि वे हार गए. वे इस बात से दुखी हैं कि लंबे गठबंधन के बावजूद सत्ता के लिए भाजपा ने अवसरवादिता दिखाई. खिरू कहते हैं, ‘हम पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कह चुके हैं कि हम झारखंड में अलग रहना चाहते हैं. यहां हमें भाजपा दोयम क्या, उससे भी निचले स्तर पर मानती है.’
हालांकि झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी इस बात को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘सरकार की जरूरत थी कि हम झारखंड मुक्ति मोर्चा का समर्थन करें, सो हमने किया. रही बात जदयू की तो उनके उम्मीदवार को तो पार्टी का चुनाव चिह्न भी नहीं मिल पाया था, हम क्या साथ देते.’राजग के नाम पर भाजपा और जदयू सबसे लंबे समय से साथ हैं. झारखंड के पड़ोस बिहार में दोनों साथ मिलकर ही राज की दूसरी पारी खेल रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर राज करने का सपना भी दोनों साथ मिलकर देख रहे हैं. खिरू महतो का आरोप है कि बिहार में बी टीम की तरह रहने वाली भाजपा झारखंड में जदयू को सी टीम की तरह रखती है. वे कहते हैं, ‘भाजपा हमें 81 में से 10-15 सीटों पर चुनाव लड़ने देती है. हमारा वोट प्रतिशत छह से कम पर सिमट गया था तो पार्टी का चुनाव चिह्न कैसे मिलता?’इस एक सीट पर झामुमो को जीत मिल जाने के बाद भाजपा को भले ही सरकार चलाने में सहूलियत हो लेकिन लगता नहीं कि उसे मिली यह राहत ज्यादा समय तक स्थायी रहेगी.
जीत के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन ने कहा भी कि इस जीत में भाजपा की कोई भूमिका नहीं है. यह टेकलाल बाबू और उनकी पार्टी के नाम पर हुई जीत है. शिबू ने लगे हाथ एलान भी किया कि वे अब आगे सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेंगे. यानी भाजपा ने अपने विश्वस्त सहयोगी को किनारे करके सहयोग भी किया तो भी उसकी अहमियत झामुमो सुप्रीमो ने नकार दी. हालांकि इस सीट के लिए भाजपा से समर्थन मांगने शिबू सोरेन के बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद भाजपा कार्यालय पहुंचे थे. हेमंत कहते हैं, ‘यह सरकार के गठबंधन की जीत है.’हेमंत अपने पिता शिबू से अलग बयान देते हैं. मजबूरी है क्योंकि राज्य की राजनीति में इन दिनों झारखंड के पहले मुख्यमंत्री व झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी बाकी सबके साझा राजनीतिक दुश्मन बने हुए हैं. भाजपा द्वारा जदयू को परे करके झामुमो को समर्थन देने के पीछे भी एक वजह बाबूलाल की बढ़ती ताकत ही रही. हालांकि मांडु में बाबूलाल का करिश्मा काम नहीं कर पाया. उनका उम्मीदवार भी जमानत नहीं बचा पाया.
मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के गढ़ सरायकेला में कड़ी चुनौती देने और अर्जुन मुंडा द्वारा जमशेदपुर लोकसभा सीट खाली करने के बाद उस पर जीत हासिल कर लेने के बाद बाबूलाल मरांडी की पार्टी की बढ़त पर मांडु में अचानक ब्रेक लगा है. इससे सत्ताधारी गठबंधन के साथ कांग्रेस भी खुश है. कांग्रेसी नेता राजेंद्र सिंह कहते हैं, ‘बाबूलाल का मन बढ़ गया था, मांडु में उन्हें असलियत का पता चला.’ कांग्रेस हारकर भी बाबूलाल की पार्टी के हाशिये पर जाने से खुश है, लेकिन झारखंड विकास मोर्चा के संगठन मंत्री हीरालाल यादव कहते हैं, ‘दो उपमुख्यमंत्री, एक मुख्यमंत्री, सहानुभूति की लहर के बावजूद हम मांडु में पहली बार चुनाव लड़कर करीब 24 हजार वोट लाए हैं. हम वहां हारकर भी जीते हैं.’
सबके अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा और जदयू इसी अंदाज में सहसवारी करेंगे जिसमें साथ रहकर भी सुविधा के हिसाब से अलग-अलग राह का राही बना जा सकता हो.