घटना 23 जून, 1981 की है. अर्जुन सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बने एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि उन्हें इस कुर्सी पर बैठाने वाला शख्स हमेशा के लिए दृश्य से ओझल हो गया. उस दिन संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई. तब सिंह 100 विधायकों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले. उन्होंने श्रीमती गांधी से उनके पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में लाने का निवेदन किया. दरअसल अर्जुन सिंह जानते थे कि कांग्रेस की राजनीति गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमेगी. लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी को राजनीति में स्थापित कराने में अहम कड़ी बने सिंह के लिए यह अबूझ पहेली ही रहेगी कि उसी गांधी परिवार ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से हमेशा दूर क्यों रखा. अपने 60 साल के सियासी जीवन में सिंह तीन बार मुख्यमंत्री, पंजाब के राज्यपाल, अखिल भारतीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष और पांच बार केंद्रीय मंत्री रहे. किंतु प्रधानमंत्री की कुर्सी के काफी नजदीक होने के बावजूद वे चाहते हुए भी उस पर बैठ नहीं पाए. ‘ए ग्रेन ऑफ सैंड इन ऑवरग्लास ऑफ टाइम’ किताब में अर्जुन सिंह ने अपनी पीड़ा का खुलासा करते हुए बताया है कि 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से राजीव गांधी के रिश्तों में इतनी तल्खी आ गई थी कि उन्होंने राजीव की सरकार को बर्खास्त करने की योजना बना ली थी. तब उन्होंने अर्जुन सिंह के सामने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव भी रखा था. लेकिन सिंह की मानें तो उन्होंने उसे ठुकरा दिया था. जाहिर है कि अपने आखिरी दिनों में सिंह को मलाल था कि गांधी परिवार ने उन्हें वह ‘सम्मान’ नहीं दिया जिसके वे हकदार थे. अर्जुन सिंह की महत्वाकांक्षा पर बड़ा कुठाराघात तब हुआ जब राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव को प्रधानमंत्री बना दिया गया. हालांकि भाजपा द्वारा छेड़े गए राम मंदिर निर्माण आंदोलन के दौरान उनका नरसिंह राव से मनमुटाव सार्वजनिक था, लेकिन 6 दिसंबर, 1992 को जब बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई तो राव की भूमिका के विरोध में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का झंडा ही उठा लिया. अर्जुन सिंह के शुभचिंतक मानते हैं कि यदि तभी सिंह राव के खिलाफ पार्टी में बगावत कर देते तो वे न केवल सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने वाले नायक बनकर उभरते बल्कि राव की रक्षात्मक मुद्रा को देखते हुए हो सकता था कि वे प्रधानमंत्री का पद ही छोड़ देते. लेकिन सिंह ने यह सुनहरा मौका जाने दिया और दिसंबर, 1994 में जब उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तब तक राव खुद को संभाल चुके थे. आखिरकार, पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते अर्जुन सिंह को कांग्रेस से निकाल दिया गया. मई, 1995 में उन्होंने एमएल फोतेदार, नटवर सिंह, मोहसिना किदवई, शीला दीक्षित और एनडी तिवारी की मौजूदगी में दिल्ली के तालकटोरा मैदान में एक नई पार्टी बना ली- तिवारी कांग्रेस. इस पार्टी का सबसे ज्यादा प्रभाव मप्र में पड़ा जहां करीब एक दर्जन मंत्री और सैकड़ों दिग्गज नेता इससे जुड़े. तब कांग्रेसनीत दिग्विजय सिंह सरकार संकट में पड़ गई. लेकिन दिग्विजय ने बड़ी होशियारी से दोनों पक्षों के बीच ऐसा संतुलन साधा कि धीरे-धीरे अपने ही राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह को हाशिए पर पहुंचा दिया. कालांतर में अर्जुन सिंह की कांग्रेस में वापसी हुई लेकिन पहले जैसे तेवरों के साथ नहीं. 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया तो सिंह सार्वजनिक जीवन में अपने आंसू छिपा न सके. राजनीति में चाणक्य की छवि ही उनके रास्ते का रोड़ा बन गई थी. 1986 में जब उन्हें मप्र के मुख्यमंत्री से हटाकर आतंकवाद से निजात पाने के नाम पर पंजाब का राज्यपाल बनाया गया था तो उनकी कार्यकुशलता से तत्कालीन प्रधानमंत्री काफी प्रभावित हुए थे. तब राजीव ने सिंह के रूप में पहली दफा कांग्रेस में किसी को उपाध्यक्ष बनाया था. नंबर दो की स्थिति में आकर उनकी महत्वाकांक्षा हिलोरें मारने लगी. बताते हैं कि तब सिंह के नेतृत्व और व्यवहार को देखकर कई बड़े नेता उनके खिलाफ अंत तक एकजुट बने रहे. अर्जुन सिंह की दूसरी परेशानी यह थी कि प्रधानमंत्री बनाने के बाद उन्हें मनमोहन सिंह की तरह चलाया नहीं जा सकता था. दरअसल गांधी परिवार को अमरबेल चाहिए थी जो उनके सहारे आगे बढ़े. जबकि अर्जुन सिंह यदि प्रधानमंत्री बनते तो खुद के लिए अमरबेल तैयार करते.