अरविंद केजरीवाल के यह घोषणा करते ही कि जहां से शीला दीक्षित चुनाव लड़ेंगी वहीं से वे भी लड़ेंगे, लोग कहने लगे कि वे राजनीतिक आत्महत्या पर आमादा हैं. मीडिया और आम लोगों के साथ ही आम आदमी पार्टी से जुड़े लोग भी दबी जुबान में उनके इस निर्णय को किंतु-परंतु की नजर से ही देख रहे थे. इसके स्वाभाविक कारण भी थे. वे 15 साल से दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर काबिज शीला दीक्षित से भिड़ने जा रहे थे जिनका राजनीतिक अनुभव कमोबेश केजरीवाल की उम्र के बराबर था. जब उनसे पूछा जाता कि क्यों वे शीला के खिलाफ लड़कर अपना राजनीतिक करियर शुरू होने से पहले ही खत्म करने पर आमादा हैं, तो उनका जवाब होता, ‘ मैं यहां करियर बनाने नहीं आया. मैं करियर छोड़कर आया हूं. मैं व्यवस्था परिवर्तन करने आया हूं ‘ इस जवाब में कुछ लोगों को घमंड, पाखंड और मूर्खता दिखती तो किसी को यह कोरा आदर्शवाद दिखता जिसका यथार्थ से कोई संबंध न था.
खैर, चुनाव हुआ. केजरीवाल शीला के खिलाफ लड़े और जीत गए. वह भी 25 हजार से ज्यादा मतों से. इस जीत ने देश के राजनीतिक इतिहास में एक नया सुनहरा अध्याय जोड़ दिया.
इस लिहाज से देखें तो हालिया चुनावों में सबसे आश्चर्यजनक और अनूठी जीत केजरीवाल की है. चुनाव में जाति, धर्म और ऐसे तमाम दूसरे समीकरणों की प्रधानता वाले वाले इस दौर में उन्होंने न सिर्फ आदर्शवाद को अपना हथियार बनाया, बल्कि इसके सहारे पहली बार में ही बड़े-बड़े दिग्गजों को पटखनी दे दी. शीला के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला अगर कुछ लोगों की नजरों में केजरीवाल का दुस्साहस था तो उन्होंने यह दुस्साहस कोई पहली पहली बार नहीं किया था. केजरीवाल के साथी और पार्टी के एक प्रमुख नेता गोपाल राय कहते हैं, ‘इस व्यक्ति के अंदर असंभव को आजमाने की जिद है.’ कुछ ऐसा ही उन्होंने तब किया था जब अपने गुरु अन्ना हजारे से अलग होते हुए उन्होंने राजनीति में उतरने का फैसला किया. अन्ना और किरण बेदी समेत टीम के कई सदस्यों के मना करने के बावजूद केजरीवाल ने चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया. वे यह तय कर चुके थे कि अब आगे व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता उन्हें चुनावी राजनीति के सहारे ही तय करना है. अन्ना की टीम टूट गई. किसी ने आंदोलन की राह पकड़ी तो कुछ केजरीवाल के फैसले पर अपनी सहमति देते हुए उनके साथ आ गए. तब कई लोग यह कहकर उनका मजाक उड़ाते भी नजर आए कि चार दिन का नशा है. राजनीतिक थपेड़ों से सामना होते ही उतर जाएगा या एनजीओ चलाने और राजनीति करने में बहुत अंतर है. फिर भी केजरीवाल डटे रहे. उनकी जिजीविषा, दृढ़ इच्छाशक्ति और दुस्साहसिक व्यक्तित्व ने लाखों की संख्या में पार्टी कार्यकर्ताओं-समर्थकों खासकर युवाओं की अपनी तरफ आकर्षित किया. उनके सामने एक ऐसा नेता था जो बड़े सपने देखने की न सिर्फ हिम्मत कर रहा था बल्कि उसे उनके सच होने का भी पूरी उम्मीद थी क्योंकि वह ईमानदारी से इसके लिए मेहनत कर रहा था. आखिर में उनके नेतृत्व में आप ने सफलता का परचम लहराया.
दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत कई मायनों में केजरीवाल की व्यक्तिगत जीत भी है. एक पार्टी जो चुनाव से कुछ महीने पहले ही अस्तित्व में आती है, चुनाव में उसकी तरफ से कुछ ऐसे लोग खड़े होते हैं जिनका अपना न तो कोई राजनैतिक इतिहास है और न ही जनाधार. लेकिन वे भारी मतों से जीतते हैं. पार्टी विधानसभा में 28 सीटें जीत जाती है. बाकी 20 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रहती है. चुनाव परिणामों का अगर विश्लेषण करें तो पाएंगे कि लोगों ने अधिकांश सीटों पर प्रत्याशी की जगह पार्टी को वोट दिया. ऑटो चालक राधेश्याम यादव मंगोलपुरी विधानसभा क्षेत्र में मतदाता हैं. वे कहते हैं, ‘ मुझे नहीं पता था राखी बिरला कौन हैं. मुझे बस यह पता था कि ये अरविंद केजरीवाल की पार्टी से हैं जिनका चुनाव चिन्ह झाड़ू है. बस ये देखकर मैंने उन्हें वोट दिया. उनकी जगह कोई दूसरा होता तो उसे देता.’ मुनीरका में रहने वाले धीरज वर्मा कहते हैं, ‘ कोई एक नेता ऐसा दिल्ली में नहीं था जिसकी तुलना केजरीवाल से की जा सके. . वह कुछ अच्छा करने निकला है इसलिए मैंने उसको वोट दिया.’यही स्थिति कमोबेश हर विधानसभा में रही है. वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘ केजरीवाल की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं है. यही कारण है कि आज के समय में जब चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है और एक ईमानदार आदमी सिस्टम बदलने और देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की अपील करता है तो लोग उसकी बात सुनते हैं. उन्हें उसकी बातों पर भरोसा होता है.’ केजरीवाल की ईमानदारी पर उनके राजनीतिक विरोधियों को भी संदेह नहीं है. दिल्ली की पूर्व मेयर और भाजपा नेता आरती मेहरा कहती हैं, ‘केजरीवाल की ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं हो सकता. ये आदमी बोलता भी अच्छा है. समाज सेवा के क्षेत्र में अच्छा काम किया है. मैं खुद उसके पार्टी बनाने से पहले तक उसकी प्रशंसक रही हूं. दिल्ली के चुनाव ने उसे हीरो के रूप में स्थापित किया है.’
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यूं होता तो क्या होता
अगर अन्ना ‘आप’ के साथ होते
अगर इन चुनावों में आम आदमी पार्टी को अन्ना हजारे का खुला समर्थन मिल जाता तो क्या तब भी इसकी सीटों की संख्या 28 पर रुक जाती? लोगों का साफ मानना है कि अगर अन्ना हजारे आप के पक्ष में वोट करने की एक अपील भी जारी कर देते तो दिल्ली में पार्टी बहुमत हासिल कर सकती थी. इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि चुनाव लड़ने का ऐलान करने के बाद अरविंद केजरीवाल से लेकर आप के दूसरे नेताओं ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि अन्ना का साथ न होने से उनकी ताकत कमजोर हुई है. आम आदमी पार्टी के प्रमुख रणनीतिकार योगेंद्र यादव भी मानते हैं कि अन्ना हजारे का समर्थन होने की स्थिति में आप बहुमत हासिल कर सकती थी.
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केजरीवाल के प्रशंसकों की एक बड़ी तादाद एक अन्य कारण से भी है. वह कारण है केजरीवाल का पूर्व आईआईटी छात्र और आईआरएस अधिकारी होना. लोगों से बातचीत करने पर पता चलता है कि वे केजरीवाल को इस कारण से भी पसंद करते हैं कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी. एक ऐसी नौकरी जिसमें वे चाहते तो खूब पैसे बना सकते थे. आप के एक समर्थक जो बनारस से दिल्ली पार्टी के प्रचार के लिए आए थे कहते हैं, ‘आम आदमी के लिए ये बात चौंकाने वाली है कि कोई आदमी जो चाहता तो खूब पैसे छाप सकता था, लेकिन उसने देश सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरी छोड़ दी. अब ऐसे आदमी पर भरोसा नहीं करेंगे तो किस पर करेंगे. आजकल तो लोग चपरासी तक की नौकरी नहीं छोड़ते.’
केजरीवाल के अब तक के इतिहास ने भी उन्हें लोगों के बीच स्वीकार्य और विश्वसनीय बनाया. सूचना के अधिकार से लेकर बिजली, साफ सफाई, राशन तथा अन्य कई क्षेत्रों में अपनी परिवर्तन नामक संस्था के माध्यम से केजरीवाल के काम ने लोगों को उन पर भरोसा करने का आधार दिया. केजरीवाल दिल्ली के लिए नए नहीं थे. इस शहर में वे पिछले 15 सालों से सक्रियतापूर्वक काम कर रहे थे. दिल्ली की उन तमाम झुग्गियों से केजरीवाल का संबंध सालों पुराना है जहां नेता सिर्फ चुनाव के समय जाया करते हैं. केजरीवाल अपनी नींव बहुत पहले से तैयार कर रहे थे जिस पर बनी इमारत पर वे आज खड़े दिखाई दे रहे हैं. केजरीवाल के साथ जुड़े लोगों में एक बड़ा तबका वह है जो उनके साथ अन्ना आंदोलन के समय से नहीं बल्कि तब से जुड़ा है जब से उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता की शुरुआत की.
हालांकि जिस तरह से पार्टी पूरे देश में अपना विस्तार करने की बात कर रही है उसके लिए जरूरी है कि उसमें सत्ता और प्रतिनिधित्व का और अधिक विकेंद्रीकरण हो. यानी आने वाले समय में पार्टी सिर्फ केजरीवाल के भरोसे न रहे. दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘आप को अपने नेतृत्व का दायरा और अधिक बढ़ाना होगा. अगर पार्टी को पूरे देश में जाना है तो वह सिर्फ केजरीवाल के सहारे नहीं हो सकता.’