शिवेंद्र राणा
जनवरी, 1963 में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में इंदिरा गाँधी लिखती हैं- ‘लोकतंत्र किसी औसत आदमी को सिर्फ़ ऊँचाई पर ही नहीं पहुँचाता, बल्कि सबसे ज़्यादा चीखने-चिल्लाने वाले आदमी को भी ताक़तवर बना देता है, भले ही मुद्दों के बारे में उसकी समझ शून्य हो।’
लेकिन क्या होता है, जब वही औसत व्यक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जनप्रतिनिधि एवं नीति निर्माता बन जाए। उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों के संवाहन एवं उसके रक्षा का दायित्व आ पड़े, तो परिणाम यह होगा कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए एक दु:स्वप्न साबित होगा। ऐसी कल्पना भी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए वीभत्स ही सकती है। परन्तु पिछले दिनों ऐसा विद्रूप दृश्य बिहार विधानसभा में प्रदर्शित हुआ।
महागठबंधन सरकार में परिवहन मंत्री शीला मंडल सदन में पूछे गये एक प्रश्न का उत्तर देने के लिए जब खड़ी हुईं, तब विधानसभा अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी ने कहा- ‘ये उत्तर नहीं दे पाएँगी।’ असल में पहली बार विधायक और मंत्री बनी शीला मंडल की स्थिति यह है कि सदस्यों की बात तो छोड़ ही दीजिए, उनके विभाग से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर देने की स्थिति में विधानसभा अध्यक्ष अवध चौधरी तक चिन्तित हो जाते हैं। यह स्थिति अकेले शीला मंडल की नहीं है। लालू के लाल और मीडिया में बहुत-ही मुखर दिखने वाले उनके बड़े पुत्र तेज़ प्रताप यादव महागठबंधन की सरकार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का प्रभारी हैं। लेकिन अपने विभाग से सम्बन्धित प्रश्नों के सम्बन्ध में सदन में वह सरकार के लिए अकसर असहज स्थिति पैदा कर देते हैं। आलम यह है कि विधानमंडल के दोनों सदनों में उनके मंत्रालय से सम्बन्धित अधिकांश प्रश्नों का उत्तर राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री आलोक मेहता को देना पड़ता है।
इसी प्रकार भाकपा माले के विधायक महानंद सिंह द्वारा बालू अवैध बालू खनन के विषय में सदन में पूछे गये प्रश्न के जवाब में मंत्री रामानंद यादव जब उत्तर देने में असमर्थ महसूस करने लगे, तो उन्होंने विधायक को अलग से आकर मिलने के लिए कहा। समान रूप से एक सदस्य द्वारा किये गये प्रश्न के जवाब में सहकारिता मंत्री सुरेंद्र यादव ने भी प्रश्नकर्ता विधायक को अपने कक्ष में आकार बात करने के लिए आमंत्रित किया। इस सूची में बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर भी शामिल हैं, जो आये दिन मनुस्मृति और रामचरितमानस को लेकर नये-नये बखेड़े खड़े करते रहते हैं। धार्मिक विषयों पर निरंतर गाल बजाकर चर्चा में रहने वाले चंद्रशेखर सदन में अपने विभाग से सम्बन्धित प्रश्नों के जवाब में गड़बड़ा जाते हैं।
लोकतंत्र के मन्दिर में ऐसे विद्रूप दृश्य बड़े अरुचिकर लगते हैं। ऐसे सदस्यों को एक राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में देखना कष्टकर है। किन्तु इसकी वजह क्या है? प्रथमत: इस अयोग्य राजनीतिक जमात के निर्वाचन का कारण जातिवाद एवं धार्मिक ध्रुवीकरण है। जातिवाद और सांप्रदायिकता का सबसे विघटनकारी स्वरूप इन पर आधारित जनप्रतिनिधित्व है। सन् 1995 में कांग्रेस नेता वी.एन. गाडगिल ने कहा था- ‘भारत में आप मत नहीं डालते, बल्कि अपनी जाति को चुनते हैं।’ अगर हम थोड़ी देर के लिए पिछड़ावाद-दलितवाद के आन्दोलन को स्वीकार भी लें, तो क्या बिहार की 10 करोड़ से अधिक की आबादी में एक ऐसा व्यक्ति महागठबंधन के घटक दलों को नहीं मिला, जो जनप्रतिनिधित्व की प्रतिष्ठा के अनुकूल हो? वास्तव में यह न सिर्फ़ लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार है, बल्कि एक तरह की अनैतिक हिंसा भी है। सहज ही एक प्रश्न ध्यान में आता है कि ऐसे अयोग्य लोग नीति निर्णायन में किस प्रकार योगदान देते होंगे?
ऐसे कुपात्र न सिर्फ़ प्रशासनिक भ्रष्टाचार में सहयोगी होते हैं, बल्कि भ्रष्टाचार का कारक और अवलंबन भी होते हैं। भ्रष्टाचार के घुन से खोखली हो चुकी नौकरशाही के लिए मंत्रालयों में आसीन ऐसे जनप्रतिनिधि स्वार्थपूर्ति और अराजकता फैलाने के लिए सर्वाधिक सुभेद्य होते हैं। इस दुरावस्था हेतु जनता को आलोचना का अधिकार नहीं है, क्योंकि सर्वप्रथम उसे ख़ुद के गिरेबान में झाँकना चाहिए। आज सुशासन और सहभागी लोकतंत्र की उम्मीद में निराश जनता ने क्या अपना मूल्यांकन किया है कि इस भ्रष्ट राजनीतिक वातावरण के लिए वह ख़ुद कितनी बड़ी ज़िम्मेदार है। ऐसे अयोग्य लोग जो जननिर्वाचन के माध्यम से संसद और विधानसभाओं में पहुँचते हैं, उसकी वजह आम जनता ही है। न बूथ की लूट हुई, न कोई हिंसा और न ही ज़ोर-जबरदस्ती। क्योंकि मीडिया की अतिसक्रियता के इस दौर में और मोबाइल में मौज़ूद कैमरे की वजह से ऐसी चीज़ें तो बिलकुल ही सम्भव नहीं हो पाती हैं। परन्तु फिर भी लोकतंत्र अपमानित हुआ। इसका अर्थ यह है कि ऐसे लोग जनता के मत-पत्र से चुनकर आते हैं और इन्हें चुनने वाली जनता का नैतिक स्तर स्वयं छिछला है। आज देश में शिक्षा और जागरूकता के निम्न स्तर होने का भी आरोप नहीं लगाया जा सकता। सत्य तो यह है कि जातिवाद एवं सांप्रदायिकता के दुर्दम्य रोग से पीडि़त समाज का मानसिक स्तर निम्न श्रेणी तक जा पहुँचा है, जो जाति-मज़हब की विकृत सोच से ऊपर ही नहीं उठ पा रहा है। ऐसे अयोग्य जनप्रतिनिधियों के चयन की जवाबदेही तो जनता को उठानी ही पड़ेगी।
इस देश में चपरासी से लेकर सफ़ाईकर्मी तक के लिए योग्यता निर्धारित की गयी है, बस नीति-नियंता जनप्रतिनिधि ही इसके अपवाद हैं। कम-से-कम स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त, सार्वजनिक जीवन का अनुभव, समाज सेवा, नीति-नियमन, प्रशासनिक कार्यानुभव जैसे मानकों के न्यूनतम आधार निर्वाचित जनप्रतिनिधित्व के लिए तो आवश्यक होने ही चाहिए। देश की दुर्दशा में यह क़ानूनन संरक्षित अयोग्यता की स्थिति बदलनी चाहिए। लेकिन यदि जनता भी इस चलायमान विनाश पर्व में आनंदित है, तो फिर उसकी मर्ज़ी।
इन अयोग्य जनप्रतिनिधियों के चयन का दूसरा प्रमुख कारण वंशवाद एवं परिवारवाद है। ये परिवारवाद एवं जातिवाद का सामूहिक दुष्कृत्य हैं, जिनके विषैले प्रहारों से लोकतंत्र की आत्मा घायल है। स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास पर $गौर करें, तो यह दुर्गुण किसी दल या व्यक्ति विशेष से ही सम्बन्धित नहीं है, बल्कि देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था ही इसी कीचड़ में सनी है। विपक्षी राजनीतिक दल चाहते हैं कि लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत पूरी जनता सत्ता के ख़िलाफ़ उसका मोर्चा सँभाल ले। लेकिन उसे अपने सुरक्षित आवरण से न निकलना पड़े। जनता विकल्प के रूप में किसे अपनाये? इस सम्बन्ध में विपक्ष जनता को विकल्पहीन रखना चाहता है। उसका पक्ष बस वंशवाद की उपज यह अकर्मण्य वर्ग है। वह चाहता है कि बस एंटी-इनकम्बेंसी से प्रेरित जनता किसी दिन सत्ता उसे सौंप दें।
वास्तव में जनतंत्र में ज़िम्मेदारी तय करना और ज़िम्मेदारी स्वीकार करना दोनों कठिन होते हैं। राजनीतिक वर्ग को निरंतर कोसने वाली जनता कभी भी आत्म साक्षात्कार का जोखिम नहीं उठाती, ताकि ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने और उसके निर्वहन दोनों से बची रहे। ख़ैर इस मुद्दे पर तब तक सार्थक बहस नहीं हो सकती, जब तक आम जनता इसके विरोध में लामबंद नहीं होती। क्योंकि उसकी चुप्पी राजनीतिक वर्ग को ऐसे कुकृत्यों के लिए प्रोत्साहित करती रहेगी। वैसे भी ये मसला सिर्फ़ परिवारवाद-वंशवाद से जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के हनन का भी है।
काडर आधारित राजनीतिक दलों या संगठनों में सर्वोच्च पद पर पहुँचने की एक सोपान-कृमिक प्रक्रिया है। भारत के राजनीतिक परिदृश्य में मात्र वामपंथी दल और भाजपा ही इस परम्परा के संवाहक रहे हैं। लेकिन अब भाजपा में भी यह परम्परा मृतप्राय है। उसका यह दुर्गुण सत्ता जनित अहंमन्यता का परिणाम है। जैसे रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के सुपुत्र पंकज सिंह, वेद प्रकाश गोयल के सुपुत्र पीयूष गोयल, देवेंद्र प्रधान के सुपुत्र धर्मेंद्र प्रधान, प्रेम कुमार धूमल के सुपुत्र अनुराग ठाकुर, नारायणन सीतारमण की सुपुत्री निर्मला सीतारमण, रिंचिन खारू रिजिजू के सुपुत्र किरेन रिजिजू की का$फी पहले ही राजनीति में एंट्री हो चुकी है। निकट में ही पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज की पुत्री को दिल्ली भाजपा के विधि प्रकोष्ठ का सह-संयोजक नियुक्त किया गया है। यह तो बड़े उदाहरण हैं। राज्यों में भाजपा में परिवारवाद और वंशवाद की भरमार है। यह तो भाजपा में राजनीति के स्थापित करने की शुरुआत है। देखते जाइए, तथाकथित संस्कारी पार्टी वंशवाद को कोसते-कोसते ख़ुद इसे कैसे स्थापित करती है। किन्तु इसका विद्रूप पक्ष यह है कि सबसे ज़्यादा परिवारवादी तो समाजवादी हैं। वे समाजवादी, जिनका सैद्धांतिक आधार ही न्याय, समता और समष्टिवाद आदि पर आधारित है; परिवारवाद और वंशवाद की दलदल में फँसे हैं। लेकिन यथार्थ यह है कि आज यही वर्ग सबसे बड़ा व्यक्तिवादी, परिवारवादी और सत्तालोभी है। अगर वास्तव में ऐसे वर्ग द्वारा कभी भारत में वास्तविक समता और सामाजिक न्याय की स्थापना हुई, तो इस राजनीतिक वंशवाद का औचित्य स्वयंसिद्ध होना, वर्ना इतिहास देखेगा कि निजी हितों की $खातिर परिवारवाद के नाम पर किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि चढ़ा दी गयी।
अमेरिकी चिंतक हेनरी डेविड थोरो कहते हैं- ‘हर व्यक्ति यह बताये कि किस तरह की सरकार का वह सम्मान करेगा, और यह उसे पाने की दिशा में एक $कदम होगा।’ यह विचार जनता और विपक्ष दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। आज आम बिहार में सत्तासीन और केंद्र में विपक्ष में बैठे वर्ग को उनकी विफलताओं के लिए कोसने से पूर्व जनमानस को आत्म मूल्यांकन की ज़रूरत है। उसे स्वयं से यह प्रश्न पूछने की ज़रूरत है कि क्या वास्तव में वह वर्तमान सत्ताधारी दल का विकल्प बनने के योग्य है?
जनता के लिए यह दौर बड़ी दुविधा भरी स्थिति का मुज़ाहिरा करा रहा है। एक तरफ़ सत्ता में पिछले एक दशक से वह वर्ग क़ाबिज़ है, जिनमें संवेदनहीनता एवं सर्वसत्तावाद की भावना इस तरह घर कर चुकी है, जहाँ उन्हें अपने अहंकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता और दूसरी तरफ़ वे लोग हैं, जो विकल्प बनने की योग्यता प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं। कम-से-कम इस उत्साहहीन, पराजित एवं स्वार्थी दशा में तो बिलकुल ही नहीं। विपक्ष को यह समझना ही होगा कि जनता परिवर्तन को उद्यत हो सकती है, बशर्ते वह उसके समक्ष नेतृत्व की योग्यता प्रदर्शित करे। अन्यथा यह सर्वसत्तावाद का दौर अभी लम्बा खिंचने के आसार हैं।
(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)