अपने ही शोर में भटकी शैतान : शैतान

फिल्म शैतान
निर्देशक  बिजॉय नाम्बियार      
कलाकार  कल्कि कोएक्लिन, राजीव खंडेलवाल, नील भूपालम, कीर्ति

शैतान का एक छोटा-सा हिस्सा है जिसमें कहानी फ्लैशबैक के अंदर फ्लैशबैक में जाती है. कहानी को सुनाते हुए आपको बताते रहना कि हम कहानी सुना रहे हैं और उसकी संरचनात्मक बातें मजेदार ढंग से अपने दर्शकों के साथ बांटना, यह बहुत कम कहानियों में होता है. आप सोचते हैं कि काश, पूरी फिल्म ही ऐसी होती तो क्या कमाल होता!

लेकिन ऐसा नहीं है. खासकर इंटरवल के बाद तो धीरे-धीरे शैतान अपनी हरकतों के लिए शर्मिंदा-सी होने लगती है. मैं यह नहीं चाहता कि यह ड्रग्स और दिग्भ्रमित युवाओं का समर्थन करती लेकिन आखिर में यह रूटीन की मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय जिंदगी का समर्थन करती है. शैतान आखिर में सब सामाजिक चीजों के साथ खड़ी हो जाती है. यहां तक कि पुलिस के भी साथ. यह समाज के आगे व्यक्ति के हारने की कहानी है और धीरे-धीरे यह उन अनुभवों की कहानी बन जाती है जिन्हें लेखक-निर्देशक खुद ठीक से नहीं पहचानते. उनकी बारीकियों में न उतर पाने की अपनी कमी को वे शोर और उस सुंदर सिनेमेटोग्राफी से छिपा लेना चाहते हैं जिसमें लगभग सब मुख्य किरदारों के पहले सीन उन्हें उल्टा देखने से शुरू होते हैं. संगीत भी फिल्म की जान है. चार-पांच लोग पुलिस से बचते हुए छतों पर भाग रहे हैं और पीछे ‘खोया खोया चांद’ बजता है. ऐसा ही असर ‘फरीदा’ और ‘साउंड ऑफ शैतान’ पैदा करते हैं. शैतान का एक और मजबूत पहलू उसके एेक्टर हैं. कल्कि से लेकर राजीव खंडेलवाल और राजकुमार यादव तक.
अपने शोर और चकाचौंध के बीच शैतान दरअसल खालीपन की फिल्म है. शैतान के युवा अपनी दुनिया में उस कबूतर की तरह हो जाते हैं जो आंखें बंद करने के बाद सोचता है कि बिल्ली उसे नहीं खाएगी.

इस आंखें बंद करने के बाद की अपनी बंद रंगीन दुनिया में वे हीरो हैं. अय्याशी उनका राष्ट्रगान है. शैतान बाहर की दुनिया से उनके फिर से मिलने और टकराने की बात करती है. उसका गुस्सा अनुराग की रिलीज न हो पाई फिल्म ‘पांच’ के युवाओं का गुस्सा ही है. शैतान उनकी बंद दुनिया की कहानी सुनाते हुए पूरी ईमानदार है और साहसी भी लेकिन बाहर की दुनिया से टकराव शुरू होते ही वह बिखरने लगती है.

शैतान पलायन की फिल्म है. पहले हाफ में यह अच्छा है क्योंकि उसके किरदार यथार्थ से पलायन कर रहे हैं और उन्हें यह पूरी सच्चाई से दिखाती है. दूसरे हाफ में फिल्म खुद ही यथार्थ से पलायन कर जाती है. एक और नजरिए से देखें तो शैतान शुद्ध सिनेमा होने की कोशिश है. एक पुलिसवाले का दूसरे पुलिसवाले का पीछा करने का लंबा सीक्वेंस उसके सबसे खूबसूरत हिस्सों में से है. शैतान वैसी ही होना चाहती है. अपने वर्तमान को जीती हुई और कहानी कहने की टेंशन से बेफिक्र. लेकिन इसे भी वह साध नहीं पाती. बल्कि इस चक्कर में वह खोखली होती जाती है और चमत्कार करने के अपने बेवज़ह के ओवर कॉन्फिडेंस की वजह से साधारण.      

– गौरव सोलंकी