बीती 18 जुलाई को मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड की मानेसर इकाई से खबर आई कि मजदूरों और प्रबंधन के लोगों के बीच हुई झड़प में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की मौत हो गई है. इसके बाद मारुति, सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने कंपनी के मजदूरों को खलनायक बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कंपनी प्रबंधन और प्रशासन की ओर से मिल रही जानकारी के आधार पर आती खबरों में कहा गया कि प्रबंधन के भोले-भाले अधिकारियों पर मजदूरों ने बिना बात के हमला किया और एक अधिकारी को जिंदा जला दिया.
इन खबरों की मानें तो कंपनी में सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन अचानक मजदूरों का दिमाग खराब हो गया और उन्होंने प्रबंधन के लोगों पर हल्ला बोल दिया. लेकिन अगर कोई मजदूरों से या उन लोगों से जाकर बात करे जो मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे हैं तो पूरे मामले का दूसरा पक्ष भी उभरकर सामने आता है. हालांकि 18 जुलाई की घटना के बाद मानेसर इकाई के सारे मजदूर कंपनी छोड़कर भाग गए हैं. यहां तक कि कंपनी के मजदूर यूनियन के नेता भी भूमिगत हैं क्योंकि पुलिस इन मजदूरों की तलाश उपद्रवी मानकर गिरफ्तार करने के लिए कर रही है. मगर मजदूरों की गैरमौजूदगी में भी उनकी बात सामने आ रही है. जब मजदूरों के खिलाफ प्रबंधन, प्रशासन और सरकार ने तरह-तरह के आरोप लगाना जारी रखा तो मानेसर इकाई की मजदूर यूनियन के अध्यक्ष राम मेहर ने अज्ञात स्थान से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की. इसमें उन्होंने मजदूरों का पक्ष रखा. मानेसर इकाई के सौ से अधिक मजदूरों के गिरफ्तार होने और बाकी के भूमिगत होने के बाद मजदूर संगठनों के जो अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता इनकी लड़ाई लड़ रहे हैं उनकी मानें तो मजदूरों को उकसाने का काम खुद कंपनी प्रबंधन ने किया. इस पूरे मामले में कौन सही-कौन गलत के नतीजे पर पहुंचने से पहले पूरे घटनाक्रम को हर तरफ से जानना जरूरी है.
घटना के बाद कंपनी की तरफ से जारी बयान में बताया गया था कि तनातनी की शुरुआत 18 जुलाई की सुबह उस वक्त हुई जब एक मजदूर ने एक सुपरवाइजर को पीट दिया. इसके बाद जब प्रबंधन ने उस मजदूर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की बात की तो मारुति मजदूर यूनियन के अधिकारियों ने प्रबंधन को ऐसा करने से रोका. कंपनी के लिखित बयान के मुताबिक जब पहली शिफ्ट का काम खत्म करके अधिकारी और सुपरवाइजर गेट से बाहर निकल रहे थे तो मजदूरों ने उन्हें जाने नहीं दिया और बंधक बना लिया. इसके बाद जब प्रबंधन की तरफ से बातचीत की कोशिश चल रही थी तो अचानक मजदूर हिंसक हो गए और उन्होंने न सिर्फ अधिकारियों को पीटना शुरू कर दिया बल्कि कंपनी की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मकसद से आग लगाना भी शुरू कर दिया. कंपनी के मुताबिक मजदूरों ने कंपनी के 40 अधिकारियों को घायल कर दिया. बाद में मारुति के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत की खबर आई.
समझौते के बाद दस महीने से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद अब तक न तो शिकायत निवारण समिति बनाई गई और न ही मजदूर कल्याण समिति बनी
मगर कंपनी की मजदूर यूनियन के अध्यक्ष राम मेहर ने अज्ञात स्थान से जो प्रेस विज्ञप्ति मीडिया को भेजी थी उसके मुताबिक मामला कुछ और ही था. राम मेहर के मुताबिक 18 जुलाई को एक सुपरवाइजर ने एक नियमित दलित मजदूर को जातिसूचक गाली दी, जिसका विरोध मजदूरों ने न्यायसंगत तरीके से किया. अपने बयान में राम मेहर कहते हैं, ‘उस सुपरवाइजर के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय प्रबंधन ने उस मजदूर को निलंबित कर दिया जिसे जातिसूचक गाली सुननी पड़ी थी. प्रबंधन ने मजदूरों की जांच की मांग को भी खारिज कर दिया. इसके बाद यूनियन के अधिकारियों के साथ जब मजदूर एचआर अधिकारियों के पास मजदूर का निलंबन वापस लेने और सुपरवाइजर पर लगे आरोपों की जांच की मांग के साथ पहुंचे तो उन्होंने इन मांगों को सिरे से खारिज कर दिया.’ वे आगे कहते हैं, ‘बातचीत से इस मसले को सुलझाने की कोशिश चल ही रही थी कि प्रबंधन ने मजदूरों को पिटवाने के मकसद से 100 से अधिक बाउंसरों को बुलवा लिया. कंपनी के गेट बंद कर दिए गए और बाउंसरों ने मजदूरों पर हल्ला बोल दिया. बाद में मजदूरों की पिटाई करने में प्रबंधन के लोग भी शामिल हो गए और कुछ देर में पुलिस भी उनका साथ देने आ गई.’ दरअसल, जिन लोगों ने मारुति में पिछले साल के संघर्ष को करीब से देखा था और जो इसके बाद भी वहां के कामगारों के संपर्क में रहे उन्हें पता था कि कंपनी में असंतोष की चिंगारी कभी बुझी ही नहीं थी. हालांकि पिछले वर्ष का संघर्ष मुख्यतः मानेसर इकाई के लिए अलग मजदूर संगठन बनाने के लिए था, लेकिन इसकी जड़ में कहीं अधिक बड़ी समस्याएं थीं. ये समस्याएं सिर्फ मारुति के मजदूरों की नहीं बल्कि मोटे तौर पर पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों की हैं.
जब पिछले साल मारुति की मानेसर इकाई के मजदूरों का संघर्ष अपने चरम पर था तो उस वक्त तहलका की बातचीत कई मजदूरों से हुई थी. इनमें से एक गजेंद्र सिंह का कहना था, ‘नौ घंटे की शिफ्ट में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक मिलते हैं. इसी में आपको पेशाब भी करना है और चाय-बिस्कुट भी खाने हैं. ज्यादातर बार ऐसा होता है कि हमारे एक हाथ में चाय होती है, एक हाथ में बिस्कुट और हम शौचालय में खड़े होते हैं.’ छुट्टियों और मेडिकल सुविधाओं को लेकर भी मजदूरों में गहरा असंतोष था. अभियान में मजदूरों के बीच समन्वयक का काम करने वाले सुनील कुमार ने बताया था, ‘कागजी तौर पर तो हमें कई छुट्टियां दिए जाने का प्रावधान है लेकिन हकीकत यह है कि यहां छुट्टी पर जाने पर काफी पैसे कट जाते हैं. एक कैजुअल लीव लेने पर कंपनी प्रबंधन 1,750 रुपये तक पगार से काट लेता है. महीने में आठ हजार रुपये तक छुट्टी करने के लिए काट लिए जाते हैं. अगर आपने चार दिन की छुट्टी ली और यह इस महीने की 29 तारीख से अगले महीने की 2 तारीख तक की है तो आपके दो महीने के पैसे यानी 16,000 रुपये तक कट जाएंगे. आखिर यह कहां का न्याय है?’
दरअसल, कंपनी ने अपनी एचआर पॉलिसी इस तरह बनाई है कि पगार का एक बड़ा हिस्सा ‘अटेंडेंस रिवॉर्ड’ में डाल दिया गया है और अगर कोई एक दिन भी गैरहाजिर हो तो इसमें 25 फीसदी की कटौती कर दी जाती है. एक अन्य मजदूर गजेंद्र के मुताबिक, ’अगर काम करते समय किसी को चोट लगी तो कंपनी सिर्फ फर्स्ट एड कर देगी. उसके बाद जो भी इलाज होगा वह खुद ही कराना पड़ता है. अगर इस वजह से कोई छुट्टी ली तो कंपनी उसके पैसे भी काटती है.’ कंपनी की मानेसर इकाई में नियमित और ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी यहां के मजदूरों में असंतोष की एक वजह है. इस इकाई में तकरीबन 3,500 मजदूर काम करते हैं. इनमें से तकरीबन 2,000 ठेके पर काम करने वाले हैं. कंपनी में ठेका मजदूर के तौर पर कार्यरत मनोज वर्मा ने बताया था, ‘नियमित मजदूरों की मासिक पगार 16,000 रुपये है. जबकि ठेके पर काम करने वाले हम जैसे लोगों को हर महीने सिर्फ 6,500 रुपये मिलते हैं.’ यह कहानी सिर्फ मारुति की नहीं बल्कि औद्योगिक क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियों की है. मारुति के मजदूरों को लगता था कि अगर उनकी अपनी सशक्त मजदूर यूनियन होगी तो सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. पिछले साल जब दोनों पक्षों में समझौता हुआ तो कंपनी ने न सिर्फ मजदूर यूनियन को मान्यता देने की बात मानी बल्कि मजदूरों की समस्याओं के समाधान के लिए शिकायत निवारण समिति बनाने पर भी सहमति दे दी. इस बात पर भी सहमति बनी थी कि कंपनी मजदूरों के कल्याण के लिए भी एक समिति बनाएगी. लेकिन तकरीबन दस महीने से अधिक गुजरने के बावजूद अब तक न तो शिकायत निवारण समिति बनाई गई और न ही मजदूर कल्याण समिति. यूनियन को मान्यता तो मिली लेकिन उसे पूरे अधिकार प्रबंधन ने नहीं दिए.
नियमित और ठेका मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी मारुति के मजदूरों में असंतोष की एक बहुत बड़ी वजह है
मारुति मजदूरों के बीच काम करने वाले इंकलाबी मजदूर केंद्र के कार्यकर्ता श्यामवीर तहलका को बताते हैं, ‘नई यूनियन की हालत यह थी कि इसके पदाधिकारियों को प्रबंधन बात-बात पर जलील करता था ताकि मजदूरों के मन में उनको लेकर सम्मान न पैदा हो. अगर कोई बाहरी व्यक्ति यूनियन के पदाधिकारियों से मिलने जाता तो कंपनी प्रबंधन से इसके लिए अनुमति लेनी होती थी. जबकि दूसरी कंपनियों की यूनियन वाले खुद तय करते हैं कि उन्हें किससे मिलना है और किससे नहीं.’ मजदूरों के पक्ष में अभियान चलाने वाले क्रांतिकारी लोकाधिकार संगठन के कमलेश कुमार बताते हैं, ‘कंपनी प्रबंधन को यह बात भी हजम नहीं हो रही थी कि आखिर नियमित मजदूर ठेका मजदूरों के हक की लड़ाई क्यों लड़ रहे हैं. प्रबंधन के अधिकारी नियमित मजदूरों को यह कहते थे कि तुम्हारा काम तो ठीक चल रहा है फिर क्यों ठेका मजदूरों के लिए परेशान होते हो. प्रबंधन की तमाम कोशिशों के बावजूद ठेका मजदूरों का असंतोष बढ़ता गया और उन्हें नियमित मजदूरों का भी भरपूर साथ मिल रहा था. सभी मजदूरों को एकजुट करने और उनके असंतोष को और भी भड़काने का काम पिछले साल बनाया गया कोड ऑफ कंडक्ट कर रहा था. आम तौर पर इस क्षेत्र की जो दूसरी कंपनियां हैं उनके कोड ऑफ कंडक्ट में 12 बिंदु होते हैं लेकिन मारुति ने 103 बिंदुओं वाला कोड ऑफ कंडक्ट लाया. इसके जरिए मजदूरों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लादे गए.’
कमलेश कुमार कहते हैं, ‘मारुति में मजदूरों की पगार को लेकर आखिरी समझौता 2009 में हुआ था जिसकी मियाद 2012 के मार्च में खत्म हो गई थी. मजदूर यूनियन और अन्य मजदूरों की तरफ से प्रबंधन पर लगातार दबाव बनाया जा रहा था कि उनकी पगार बढ़ाई जाए और अगले तीन साल के लिए नया वेतन ढांचा तैयार हो.’ श्यामवीर कहते हैं, ‘इन बातों को लेकर यूनियन और प्रबंधन में लगातार चल रही बातचीत बेनतीजा रह रही थी. प्रबंधन का यह कहना था कि हम ठेका और प्रशिक्षु मजदूरों के बारे में कोई बात नहीं करेंगे लेकिन नियमित मजदूर इनकी बात बार-बार उठा रहे थे. आज प्रबंधन बार-बार इस झूठ को दोहरा रहा है कि 18 जुलाई तक कंपनी में सब कुछ ठीक-ठाक था. लेकिन सच्चाई यह है कि मजदूरों ने शिफ्ट से पहले होने वाली 15 मिनट की असेंबली में 16 जुलाई से ही जाना बंद कर दिया था. इसके बावजूद प्रबंधन ने मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के बजाए उन्हें टालने का रवैया अपनाया.’
इन आरोपों पर कंपनी का पक्ष रखते हुए मारुति के मुख्य परिचालन अधिकारी (एडमिनिस्ट्रेशन) एसवाई सिद्दीकी कहते हैं, ‘पिछले एक साल से हम मजदूरों के साथ संबंध मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं. पिछले साल अक्टूबर में त्रिपक्षीय समझौता हुआ था. इसमें मारुति प्रबंधन और मजदूरों के अलावा हरियाणा सरकार भी एक पक्ष थी. दोनों समितियों के लिए हमने अपने प्रतिनिधि नामित किए और राज्य सरकार ने भी, लेकिन मजदूरों ने अपने प्रतिनिधियों को नामित नहीं किया. इन समितियों का गठन हमारी वजह से नहीं बल्कि मजदूरों की वजह से टला.’ नियमित और ठेका मजदूरों के बीच भेदभाव के मसले पर वे कहते हैं, ‘ठेका वाले मजदूरों को रखना गैरकानूनी तो है नहींे. यह सच है कि उन्हें सुविधाएं कम मिलती हैं. कंपनी पिछले कुछ समय से मुख्य कार्यों में सिर्फ नियमित मजदूरों को रखने की योजना पर काम कर रही है.’ पगार को लेकर मजदूरों और प्रबंधन के बीच चल रहे टकराव पर सिद्दीकी कहते हैं, ‘पगार बढ़ाने को लेकर बातचीत अंतिम दौर में थी और लग रहा था कि सहमति बन जाएगी.’ कंपनी की आगे की रणनीति पर वे कहते हैं कि हम चाहते हैं कि जो भी कसूरवार हैं उन्हें सजा मिले.
मारुति समेत पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहे मजदूरों के बीच बढ़ते असंतोष की मूल वजहों की ओर ध्यान दिलाते हुए ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव और वरिष्ठ माकपा नेता गुरुदास दासगुप्त बताते हैं, ‘निजी क्षेत्र की कंपनियों को लगता है कि सरकार उनके साथ है इसलिए वे जो चाहें कर सकती हैं. मुनाफा और उत्पादन बढ़ाने की होड़ में ये कंपनियां मजदूरों को इंसान मानने को तैयार ही नहीं हैं.’ मारुति के मामले में वे कहते हैं, ‘इस कंपनी में भी हिंसा की वजह प्रबंधन का असंवेदनशील और दमनकारी रवैया है. पहले भी इस कंपनी ने मजदूरों के साथ ज्यादती की है लेकिन सरकार ने कभी उसको कुछ नहीं कहा.’ तो क्या शोषण से उपजे गुस्से में मजदूरों द्वारा किसी की हत्या कर देने को सही ठहरा दिया जाए? ‘न तो मैं और न ही कोई और हत्या को सही ठहरा सकता है. लेकिन आपको समझना होगा कि श्रम कानूनों की पूरी तरह से अनदेखी करके जानवरों जैसा बर्ताव करने से कैसी मानसिकता विकसित हो रही है’ दासगुप्ता कहते हैं. इस बीमारी के इलाज के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘कंपनियां मजदूरों को भी इंसान समझें और सरकार उद्योगों में श्रम कानूनों का पालन सुनिश्चित करे.’