उत्तराखंड के एक व्यक्ति को अपनी शिक्षिका पुत्री के लिए एक शिक्षक वर की तलाश थी. इन महोदय को एक अनोखा आइडिया सूझा. इन्होंने सोचा कि क्यों न सूचना के अधिकार या आरटीआई के तहत एक हनुमान रूपी आवेदन भेजकर शिक्षक वरों की सूचनाओं का पूरा पहाड़ ही मंगा लिया जाए. जनाब ने उत्तराखंड के शिक्षा विभाग में एक आवेदन दाखिल किया. इसमें उन्होंने प्रदेश में एक निश्चित आयु वर्ग तक के शिक्षकों के नाम, उनकी शैक्षिक योग्यताएं, तैनाती स्थल, मूल निवास आदि की सूचना मांगी. एक महीने से भी कम समय और मात्र 10 रुपये में इनको योग्य वरों की संपूर्ण सूची उपलब्ध हो गई. फिर इन्होंने अपनी पसंद के हिसाब से अपनी बेटी का रिश्ता भी करवा दिया. दामाद ढूंढ़ने का इससे सस्ता, सुलभ और प्रामाणिक तरीका शायद ही कोई और हो.
सहारनपुर के पवन विहार में रहने वाले एक युवक का रिश्ता मेरठ से तय हुआ तो लड़की के परिजनों ने सहारनपुर एसएसपी के दफ्तर में सूचना का आवेदन करके पूछ लिया कि संबंधित लड़के का नाम किसी आपराधिक गतिविधि के लिए पुलिस रिकॉर्ड में तो नहीं है. आरटीआई के जरिए होने वाले दामाद का पुलिस रिकॉर्ड सुनिश्चित करने के बाद ही बात आगे बढ़ी.
‘यदि मान भी लिया जाए कि कुछ लोग आरटीआई द्वारा अधिकारियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं तो भी कोई ईमानदार अधिकारी इस बात से कभी नहीं घबराएगा’
आरटीआई से जुड़े ये किस्से सुनने में दिलचस्प जरूर लगते हैं, लेकिन ऐसे ही किस्से सरकार को इस कानून के पर कतरने का बहाना दे रहे हैं. ऐसे ही किस्सों के सहारे सरकार इस कानून को कमजोर करने की ताकत हासिल कर रही है. लोकतंत्र में ‘लोक’ के प्रति ‘तंत्र’ की जवाबदेही होना आवश्यक है. सूचना के अधिकार ने यह काम बखूबी किया भी है जिसके लिए इस कानून की खूब तारीफ हुई है. लेकिन आरटीआई के जरिए सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का तर्क सरकार द्वारा कई बार दिया जा चुका है. इसके चलते इस कानून को नियंत्रित करने की बात भी उठ रही है. हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी आरटीआई के दुरुपयोग का हवाला देते हुए इसकी समीक्षा की बात कही थी. तमाम राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. भारी विरोध के चलते केंद्र सरकार भले ही आरटीआई में प्रस्तावित संशोधन से पीछे हट गई हो, लेकिन अलग-अलग राज्यों के आरटीआई प्रावधान देखे जाएं तो साफ हो जाता है कि इस कानून को कमजोर करने की पहल हो चुकी है.
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 एक केंद्रीय अधिनियम है. लेकिन देश भर के सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, उच्च न्यायालयों, विधान सभाओं, सर्वोच्च न्यायालय, संसद के दोनों सदनों और सभी सूचना आयोगों को आरटीआई से संबंधित अपने नियम बनाने का अधिकार है. इस तरह पूरे देश में आरटीआई के 100 से भी ज्यादा अलग-अलग नियम हो जाते हैं. नियम बनाने की इसी ताकत के जरिए कई राज्यों और संस्थाओं ने धीरे-धीरे इस अधिकार को आम आदमी की पहुंच से बाहर करने का रास्ता ढूंढ़ निकाला है.आरटीआई हर आदमी की पहुंच में रहे, इस मकसद से इसके तहत आवेदन शुल्क मात्र 10 रुपये निर्धारित किया गया था. लेकिन कई राज्यों ने यह शुल्क बढ़ा दिया है. हरियाणा में तो आरटीआई के अंतर्गत आवेदन शुल्क शुरू से ही 50 रुपये निर्धारित किया गया था. अब अन्य राज्यों और संवैधानिक संस्थाओं ने भी शुल्क बढ़ाना शुरू कर दिया है. उत्तर प्रदेश विधान सभा तो आरटीआई की मूल अवधारणा को लगभग समाप्त ही कर चुकी है.
उत्तर प्रदेश विधान सभा से यदि आपको कोई सूचना प्राप्त करनी है तो 500 रुपये आवेदन शुल्क के तौर पर अदा करने होंगे, साथ ही मांगी गई सूचना का भुगतान 15 रुपये प्रति पेज की दर से देना होगा. इतना ही नहीं, विधान सभा के नियमों में यह भी शामिल है कि एक आवेदन-पत्र में केवल एक ही बिंदु पर सूचना मांगी जा सकती है. इन नियमों से भी यदि आप हताश नहीं हुए और सूचना लेने पर अड़े रहे तो भी जरूरी नहीं कि आपको सूचना मिल ही जाए. आपके आवेदन को इस नियम के आधार पर भी ठुकराया जा सकता है जो कहता है कि ‘यदि अनुरोध पत्र में प्रयुक्त भाषा उत्तर प्रदेश विधान सभा की प्रतिष्ठा या गरिमा के विरुद्ध हो तो भी सूचना प्रदान करने से इनकार किया जा सकता है.’ सिर्फ विधान सभा ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय और सभी जिला न्यायालयों में भी सूचना प्राप्त करने के नियम कुछ ऐसे ही हैं. हालांकि न्यायिक क्षेत्र में आवेदन शुल्क को 500 रुपये से घटाकर 250 रुपये कर दिया गया है.
‘देश में वर्षों से काम अव्यवस्थित तरीकों से होता आया है. आरटीआई आने के बाद कुछ लोगों को रातों-रात सब कुछ व्यवस्थित चाहिए जो व्यवहार में संभव नहीं है’
छत्तीसगढ़ विधान सभा में भी उत्तर प्रदेश की ही तरह आवेदन शुल्क 500 रुपये कर दिया गया है. यही नहीं, यहां पहले गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रहने वाला कोई व्यक्ति बिना किसी शुल्क के ही सूचना प्राप्त कर सकता था. अब उसे यह छूट सिर्फ उन्हीं मामलों में मिलेगी जब मांगी गई सूचना का लेना-देना उससे ही हो. इसके अलावा यदि छत्तीसगढ़ के किसी भी विभाग से कोई बीपीएल कार्ड-धारक सार्वजनिक सूचना चाहता है तो उसे बस 50 पेज तक की ही सूचना नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाएगी. सिर्फ आवेदन शुल्क के जरिए ही नहीं, कई और तरीकों से भी आरटीआई कानून को कमजोर और सीमित करने की कोशिशें हो रही हैं. महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में आरटीआई के तहत किए जाने वाले आवेदन को 150 शब्दों तक ही सीमित करने का नियम बनाया गया है. साथ ही प्रत्येक आवेदन एक ही विषय पर होना भी जरूरी है. झारखंड के आरटीआई कार्यकर्ता सुमित कुमार महतो कहते हैं, ‘झारखंड उच्च न्यायालय में तो आवेदन शुल्क बढ़ाने के साथ ही नियमों में यह भी जोड़ दिया गया है कि सूचना प्राप्त हेतु आवेदक की मंशा क्या है. कई आवेदन सिर्फ यह कहकर खारिज कर दिए जाते हैं कि आवेदक की मंशा ठीक नहीं है.’ जानकारों का मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर जब भी इस कानून को कमजोर करने की बात उठी है तो पूरे देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका व्यापक विरोध किया है. शायद यही कारण है कि अब राज्यों और संस्थाओं के स्तर पर आरटीआई को कई तरीकों से सीमित करने की कोशिश की जा रही है.
विभिन्न स्तरों पर आरटीआई को कमजोर करने की जो मुहिम पूरे देश में चल रही है इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि इस अधिकार का दुरुपयोग बहुत व्यापक स्तर पर हो रहा है और कई लोग आरटीआई के जरिए ब्लैकमेलिंग का धंधा करने लगे हैं. वैसे इस तर्क को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता. व्यापक स्तर पर न सही लेकिन ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं जहां इस अधिकार का इस्तेमाल दुर्भावना से और ब्लैकमेलिंग के लिए ही किया जा रहा है. ऐसे ही मामले सरकार और संस्थाओं को इस कानून को कमजोर करने का बल भी प्रदान कर रहे हैं. ठाणे में एक इंजीनियर द्वारा एक स्थानीय आरटीआई कार्यकर्ता के साथ मिलकर एक डॉक्टर को ब्लैकमेल करने का मामला चर्चा का विषय बन चुका है. इस मामले में आरोपित इंजीनियर अजीत कार्निक और आरटीआई कार्यकर्ता मुकेश कनाकिया ने मिलकर एक डॉक्टर से 2.75 लाख रुपये की मांग की थी. यह मांग वह आरटीआई आवेदन वापस लेने के लिए की गई थी जिसमें आवासीय कॉलोनी में नर्सिंग होम चलाए जाने संबंधी सूचना मांगी गई थी. ऐसा ही एक मामला उत्तराखंड का भी है जहां जिलाधिकारी कार्यालय से प्लाटों के आवंटन संबंधी सूचना मांगी गई थी.
सूत्र बताते हैं कि टिहरी जिले के मसूरी-चंबा फल पट्टी पर दो प्लॉट अवैध रूप से आवंटित किए गए थे. कुछ आरटीआई कार्यकर्ताओं ने इससे संबंधित सूचनाओं हेतु आवेदन विभाग में किया और कुछ दिनों बाद आवेदन वापस ले लिया गया. इस पूरे मामले में 7-8 लाख रुपये में समझौता होने की बात कही जा रही है. उत्तराखंड में ‘सूचना का अधिकार हेल्पलाइन’ चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मोहन नेगी बताते हैं, ‘कुछ तथाकथित पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता इस कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. इन लोगों के संपर्क विभाग के ही कुछ लोगों से होते हैं जो इन्हें गड़बड़ी की सूचना दे देते हैं. जहां भी इन लोगों को किसी गड़बड़ी की भनक लगती है वहां ये लोग आरटीआई आवेदन की धमकी देकर अपना हिस्सा मांग लेते हैं. निशंक सरकार के दौरान तो ऐसे कुछ लोगों की जांच भी करवाई गई थी.’ नेगी का मानना है कि ऐसे लोगों का खुलासा होना बहुत जरूरी है क्योंकि इन्हीं के कारण आरटीआई जैसा महत्वपूर्ण कानून बदनाम होता है और सरकार को इसे कमजोर करने का बहाना मिल जाता है. वे कहते हैं, ‘ऐसे कुछ लोगों की करतूतों का परिणाम पूरे समाज को ही भुगतना पड़ता है.’
ऐसे ही कुछ मामले देश के अन्य हिस्सों से भी हैं जिनको आधार बनाकर आरटीआई पर रोक लगाने की वकालत की जाती है. लेकिन आरटीआई कार्यकर्ता मानते हैं कि कानून को कमजोर कर देना इस समस्या का समाधान कत्तइ नहीं हो सकता. महाराष्ट्र के ‘माहिती अधिकार मंच’ से जुड़े आरटीआई कार्यकर्ता भास्कर प्रभु कहते हैं, ‘पूरे देश में आरटीआई का इस्तेमाल करने वालों में से मुश्किल से एक फीसदी ही ऐसे लोग हैं जो इस अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हों. इन एक फीसदी लोगों का उदाहरण देकर देश के करोड़ों लोगों से उनका अधिकार छीन लेना या उसे कमजोर कर देना बिल्कुल भी सही नहीं ठहराया जा सकता.’ ‘हरियाणा सूचना का अधिकार मंच’ के राज्य संयोजक सुभाष कहते हैं, ‘यदि मान भी लिया जाए कि कुछ लोग आरटीआई द्वारा अधिकारियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं तो भी कोई ईमानदार अधिकारी इस बात से कभी नहीं घबराएगा. आरटीआई से सिर्फ उसी को ब्लैकमेल किया जा सकता है जो खुद किसी भ्रष्टाचार में लिप्त होगा. क्या ऐसे भ्रष्ट लोगों की चिंता करते हुए आरटीआई पर रोक लगाना उचित होगा?’
आरटीआई कार्यकर्ताओं का मानना है कि कई-कई पन्नों के आवेदन लोग किसी दुर्भावना से नहीं बल्कि जागरूकता के अभाव में भी करते हैं
वैसे देश में जहां भी आरटीआई को दुर्भावना के साथ इस्तेमाल करने के मामले सामने आए हैं उनमें से कुछ मामलों में ऐसा करने वालों को दंडित भी किया गया है. दिल्ली स्थित एक संस्था ‘पारदर्शिता पब्लिक वेलफेयर फाउंडेशन’ द्वारा दिल्ली नगर निगम में एक आवेदन दाखिल करके पूछा गया था कि क्या विभाग के दक्षिण जोन के किसी अधिकारी को यौन रोग है और क्या किसी की सरोगेट या सौतेली मां है. साथ ही आवेदन में एक इंजीनियर की डीएनए रिपोर्ट भी मांगी गई थी. एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान जब उच्च न्यायालय के संज्ञान में यह बात आई तो कोर्ट ने आरटीआई का गलत इस्तेमाल करने के लिए संस्था पर 75 हजार रु का जुर्माना लगाया. छत्तीसगढ़ के आरटीआई विशेषज्ञ और ‘छत्तीसगढ़ सिटिजनस इनिशिएटिव’ के राज्य समन्वयक प्रतीक पांडे कहते हैं, ‘आरटीआई अधिनियम में ही वह प्रावधान मौजूद है जिसके तहत नाजायज सूचना मांगे जाने पर आवेदन ठुकराया जा सकता है. छत्तीसगढ़ सूचना आयोग द्वारा एक व्यक्ति के 200 आवेदन इसीलिए खारिज कर दिए गए थे क्योंकि वे अनुचित थे. हल यह नहीं है कि कानून को कमजोर कर दिया जाए.’
कई लोगों का यह भी मानना है कि सूचना के अधिकार ने कई लोगों को जरूरत से ज्यादा ही सक्रिय कर दिया है. गुजरात की आरटीआई कार्यकर्ता पंक्ति जोग मानती हैं कि इस देश में कई वर्षों से काम अव्यवस्थित तरीकों से होता आया है. सरकारी विभागों में आज भी अधिकतर दस्तावेज अव्यवस्थित ही हैं, लेकिन आरटीआई के आने से कुछ लोगों को रातों-रात सब कुछ व्यवस्थित चाहिए जो व्यवहार में संभव नहीं है. पंक्ति कहती हैं, ‘कई लोग ऐसे भी हैं जो इस अधिकार का उपयोग किसी पैसे के लिए नहीं बल्कि नाम के लिए कर रहे हैं. इस अधिकार ने सभी लोगों को एक्टिविस्ट और अतिसक्रिय बना दिया है. कई ऐसे लोग भी हैं जो अब खाली समय में आरटीआई आवेदन बनाने का ही काम कर रहे हैं. इनका उद्देश्य किसी को तंग करना या ब्लैकमेल करना नहीं है, लेकिन इन्हें समाज सेवक के रूप में मशहूर होना है तो इन्होंने आरटीआई को रास्ता बनाया है. इनमें रिटायर्ड लोग भी हैं और सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं.’ गुजरात के दूरदर्शन केंद्र का उदाहरण देते हुए पंक्ति बताती हैं कि इस विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी ने सारे विभाग की नाक में दम कर रखा है.
इस कर्मचारी द्वारा अपने ही विभाग में लगभग 700 आरटीआई आवेदन दाखिल किये गए हैं. नए-नए आरटीआई एक्टिविस्ट बने इन कर्मचारी का खौफ पूरे विभाग में इतना है कि ये महोदय अब ऑफिस में बैठ कर भी बस आरटीआई आवेदन ही बनाते रहते हैं, लेकिन कोई भी अधिकारी इन्हें कुछ नहीं बोलता. इनके द्वारा रोज लगभग 30-35 आवेदन अपने ही विभाग में दाखिल किए जाते हैं. कुछ आवेदनों में तो यह भी पूछा जाता है कि फलां कमरे में रखी फलां अलमारी की कितनी चाबियां हैं. ये कर्मचारी कुछ राष्ट्रीय आरटीआई कार्यकर्ताओं के भी काफी नजदीकी हैं, इसलिए विभाग के अधिकारी भी इन्हें कुछ बोलने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते. पंक्ति जोग ‘माहिती अधिकार गुजरात पहल’ की समन्वयक हैं और आरटीआई कानून के लागू होने से पहले से ही इस अधिकार के आंदोलन में शामिल रही हैं. आरटीआई के ऐसे उपयोग पर वे कहती हैं, ‘ऐसे ही कुछ लोगों की वजह से अब लोग आरटीआई कार्यकर्ताओं के नाम से ही तंग आने लगे हैं. हमें तो अब खुद को आरटीआई कार्यकर्ता बताते हुए भी शर्म महसूस होती है. हम किसी से नहीं कहते कि हम आरटीआई कार्यकर्ता हैं.’ लेकिन पंक्ति इसके लिए एक हद तक सरकारी विभागों को भी जिम्मेदार मानती हैं. वे कहती हैं, ‘जिन जानकारियों को विभाग द्वारा सार्वजानिक कर दिया जाना था, उनमें से 15 प्रतिशत भी सार्वजनिक नहीं हुई हैं. ऐसे में लोग यदि सूचनाओं के लिए आवेदन करते भी हैं तो उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता.’
सभी राज्यों के सूचना आयोगों में लंबित मामलों की सूची इतनी बड़ी है कि कई जगह तो चार-पांच साल से लोगों की अपील की सुनवाई ही नहीं हुई है
छत्तीसगढ़ में आरटीआई के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्था ‘समर्थन’ से जुड़े दिनेश कहते हैं, ‘किसी भी जगह के आरटीआई आवेदकों की सूची पर यदि गौर किया जाए तो आप पाएंगे कि हर जगह कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो लगातार इस कानून का उपयोग कर रहे हैं. इनमें अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी हैं जिनमें फर्क कर पाना काफी मुश्किल है. लेकिन इतना जरूर देखा गया है कि जब भी किसी व्यक्ति को आरटीआई में थोड़ी-सी भी महारत हासिल हो जाती है और सरकारी कर्मचारी इन्हें सम्मान देने लगते हैं तो ये लोग भी समझौता करना सीख जाते हैं. यहीं से आरटीआई की बर्बादी शुरू हो जाती है.’ छत्तीसगढ़ के ही आरटीआई विशेषज्ञ प्रतीक पांडे लोगों द्वारा लगातार आरटीआई के इस्तेमाल को सही ठहराते हुए कहते हैं, ‘आरटीआई एक ऐसा लड्डू है जिसे एक बार खाने के बाद लोग बार-बार खाना चाहते हैं. इसमें कोई बुराई भी नहीं है, हर व्यक्ति को गणतंत्र में यह अधिकार तो अनिवार्य रूप से होना ही चाहिए. सरकार स्वतः ही सूचनाएं सार्वजानिक करने में जितनी पारदर्शिता बरतेगी, लोग उतना ही आवेदन कम करेंगे. लेकिन आज तो सरकारी विभागों ने धारा चार के अंतर्गत बहुत ही कम सूचनाएं सार्वजनिक की हैं.’
आरटीआई एक्ट की धारा चार के अंतर्गत सभी सरकारी विभागों को कई जानकारियां स्वतः ही सार्वजनिक करनी होती हैं. पूरे देश में शायद ही कोई ऐसा विभाग हो जिसके द्वारा धारा चार का पूर्ण रूप से पालन किया जा रहा हो. लगभग सभी राज्यों के आरटीआई कार्यकर्ता इन जानकारियों को सार्वजनिक न किए जाने को एक भारी समस्या मानते हैं. महाराष्ट्र के भास्कर प्रभु कहते हैं, ‘विभागों द्वारा धारा चार के तहत बहुत ही कम जानकारियां सार्वजनिक करना ही लोगों को अधिक से अधिक आवेदन दाखिल करने पर मजबूर करता है, लेकिन अब तो लोगों के इस अधिकार को भी सीमित किया जा रहा है. प्रदेश सरकार ने आरटीआई आवेदन को 150 शब्दों तक सीमित कर ऐसा ही किया है. ऐसा करने के पीछे सरकार तर्क देती है कि लोग कई-कई पन्नों के आवेदन देकर आरटीआई का दुरुपयोग कर रहे हैं.’ एक ही आवेदन पत्र में कई जानकारियां मांगने और कई-कई पन्नों के आवेदन पत्रों को आरटीआई का दुरुपयोग मानते हुए कुछ राज्यों ने आवेदन पत्र में शब्दों की सीमा निर्धारित कर दी है.
लेकिन क्या वास्तव में कई-कई पन्नों का आवेदन देना आरटीआई का दुरुपयोग है? आरटीआई कार्यकर्ताओं का मानना है कि ऐसे आवेदन लोग किसी दुर्भावना से नहीं बल्कि जागरूकता के अभाव में भी करते हैं. छत्तीसगढ़ के आरटीआई कार्यकर्ता दिनेश बताते हैं कि चूंकि हर व्यक्ति आवेदन लिखने में परिपक्व नहीं होता इसलिए सीमित शब्दों में अपनी बात स्पष्ट नहीं कर पता. ‘हरियाणा सूचना अधिकार मंच’ के सुभाष भी ऐसे आवेदनों को दुरुपयोग न मान कर लोगों की अपरिपक्वता ही मानते हैं. ऑल इंडिया रेडियो, रोहतक का किस्सा सुनाते हुए सुभाष बताते हैं कि एक आवेदक ने यहां के निदेशक से उनकी सरकारी गाड़ी के खर्चे का ब्यौरा मांगना चाहा. इस आवेदक ने सीधे सवाल करने के बजाय घुमा-फिरा कर कुल 79 सवाल पूछे जिनमें यह तक पूछा गया था कि जब निदेशक महोदया जा रही थीं तो गाड़ी में उनके बाएं कौन बैठा था और उनके दाएं कौन. आवेदन पत्र में पूछे गए कुल 79 सवालों में से कोई पांच या छह सवाल ही सही थे. सुभाष आगे बताते हैं, ‘लोग आवेदन पत्र में स्पष्ट प्रश्न पूछने से कतराते हैं इसलिए अपनी बात को घुमा-फिरा कर लिखते हैं. इसे अधिकार का दुरुपयोग नहीं बल्कि उनकी जागरूकता की कमी कहना ही बेहतर होगा.
लोक सूचना अधिकारी यदि आवेदकों की सहायता करें तो ऐसी कई समस्याएं आसानी से सुलझाई जा सकती हैं ‘सूचना का अधिकार अधिनियम लागू करवाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका लोक सूचना अधिकारियों की ही होती है. यही वह कड़ी है जो जनता को सीधे इस कानून से जोड़ती है. आरटीआई अधिनियम की यह सबसे जरूरी कड़ी ही सबसे ज्यादा विवादास्पद भी है. आरटीआई को किताबों से धरातल पर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी इन्ही लोक सूचना अधिकारियों के कंधों पर है, इसलिए लोगों की नाराजगी और निंदा का सामना भी इसी वर्ग को करना पड़ता है. सरकार भी जब आरटीआई अधिनियम को कमजोर करने की बात करती है तो बंदूक इसी वर्ग के कंधों पर होती है और तर्क होता है कि लोक सूचना अधिकारियों का कार्यभार बढ़ रहा है. सूचना देने में यदि देर हुई तो जुर्माना भी इसी वर्ग को भुगतना पड़ता है. अकेले आंध्र प्रदेश में ही पिछले कुछ वर्षों में इन कर्मचारियों पर 4.5 लाख रुपये से ज्यादा का जुर्माना लगाया जा चुका है. इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि लोक सूचना अधिकारियों को अपने आधिकारिक कार्य के साथ ही सूचना आवेदनों का जवाब भी देना होता है.
आवेदनों को प्राथमिकता देना और भी ज्यादा ज़रूरी इसलिए हो जाता है जुर्माने का भय भी हमेशा बना रहता है. उत्तराखंड के शिक्षा विभाग के एक लोक सूचना अधिकारी जगदीश पंत कहते हैं, ‘मेरे पास 20 से 25 आवेदन प्रतिदिन आते हैं. कुछ आवेदनों में तो इतनी ज्यादा सूचनाएं मांगी जाती हैं जिनको इतने कम समय में एकत्रित करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. हम विभागीय कार्य करें या पूरा समय आवेदनों का जवाब देने में बिता दें?’ पंत शिक्षा विभाग में दाखिल किए गए एक आरटीआई आवेदन का जिक्र करते हुए बताते हैं कि राज्य के शिक्षा निदेशालय में किसी ने एक आवेदन दाखिल करके प्रदेश भर के शिक्षकों की आय का ब्यौरा और सभी की पासबुक की प्रतिलिपि मांगी है. राज्य के निदेशालय से यह आवेदन प्रदेश के सभी ब्लॉक शिक्षा अधिकारियों को भेजा गया है और उनसे जानकारी देने को कहा गया है. पंत आगे कहते हैं, ‘आरटीआई के तहत आवेदन शुल्क बढ़ाकर 1,000 या 500 रुपये कर देना चाहिए. आवेदन शुल्क 10 रूपए होने के कारण कोई भी कुछ भी जानकारी मांग लेता है.
‘जोश-जोश में कानून तो बना दिया, अब इससे बचने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं’
आवेदन शुल्क यदि 1,000 रुपये हो तो वही व्यक्ति सूचना का आवेदन करेगा जिसे सच में किसी महत्वपूर्ण जानकारी की आवश्यकता होगी.’ हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी आरटीआई के दुरुपयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा है, ‘देश को ऐसी स्थिति नहीं चाहिए जहां 75 फीसदी सरकारी कर्मचारी अपना 75 फीसदी समय आरटीआई आवेदनों का जवाब देने में ही लगाते रहें. आरटीआई अधिनियम के अंतर्गत जुर्माने का भय इतना भी नहीं बढ़ना चाहिए कि सरकारी कर्मचारी अपने विभागीय कार्य से ज्यादा सूचना आवेदनों के जवाब को प्राथमिकता देने लगें.’
लोक सूचना अधिकारियों को आरटीआई की वजह से होने वाली समस्याओं का सिलसिला यहीं समाप्त नहीं होता. इनकी एक समस्या यह भी है कि अधिकतर इनसे इनके वरिष्ठ अधिकारी के संबंध में सूचनाएं मांगी जाती हैं. ऐसे में जहां एक तरफ इनको अपने विभागीय वरिष्ठ का खौफ होता है तो दूसरी तरफ सूचना आयोग द्वारा जुर्माने का डर भी बना रहता है. आरटीआई कार्यकर्ता भास्कर प्रभु कहते हैं, ‘कई विभागों में निचली श्रेणी के कर्मचारियों को ही लोक सूचना अधिकारी बनाया गया है. ये लोग अधिकतर अपने वरिष्ठ अधिकारी से संबंधित सूचनाएं नहीं दे पाते और जुर्माना भुगतते हैं. कई जगह सूचना अधिकारी बेवजह ही बलि का बकरा बन जाया करते हैं.’
लेकिन ज्यादातर आरटीआई कार्यकर्ता इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. उनके मुताबिक लोक सूचना अधिकारी ही सूचना न मिलने का सबसे बड़ा कारण हैं और इन अधिकारियों ने सूचना न देने के कई तरीके खोज निकाले हैं. आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष बताते हैं, ‘हरियाणा की ग्राम पंचायतों में सरपंचों को लोक सूचना अधिकारी बनाया गया है. इनके पास जब लोग आरटीआई आवेदन दाखिल करते हैं तो कई बार ये लोग सूचना देने के बजाय खाली लिफाफे भेज दिया करते हैं. एक बार तो लिफाफे का वजन बढ़ाने के लिए एक सरपंच ने लिफाफे में पुराने अखबार के टुकड़े और कुछ कंकड़ भेज दिए थे.’ आरटीआई अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि यदि आवेदक अनपढ़ हो तो सूचना अधिकारी को उसके लिए लिखित आवेदन तैयार करना होगा. सुभाष बताते हैं, ‘हरियाणा की ग्राम पंचायतों में तो कई जगह खुद सूचना अधिकारी ही अनपढ़ हैं. ऐसे भी कई किस्से हो चुके हैं जहां आवेदक और अधिकारी दोनों ही अनपढ़ हों. कई बार तो ऐसी स्थिति में आवेदन लिखवाने के लिए लड़ाइयां भी हो चुकी हैं.’
उत्तर प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता इजहर अहमद अंसारी लोक सूचना अधिकारियों के रवैये के बारे में कहते हैं, ‘आरटीआई के लागू होने के कुछ समय तक तो सूचना अधिकारियों में इस कानून का भय था भी, लेकिन अब तो कई सूचना अधिकारी साफ कह देते हैं कि हम सूचना नहीं देंगे, तुम चाहो तो आयोग चले जाओ. सूचना अधिकारी भी जान गए हैं कि सामान्यतः हर व्यक्ति अपील करने आयोग तक जाता ही नहीं, और यदि गया भी तो दो साल तक तो उसका नंबर ही नहीं आएगा.’ सभी राज्यों के सूचना आयोगों में लंबित मामलों की सूची इतनी बड़ी है कि कई जगह तो चार-पांच साल से लोगों की अपीलों की सुनवाई नहीं हुई है. झारखंड के सुमित कुमार महतो बताते हैं, ‘प्रदेश के सूचना आयोग में सुनवाई बंद होने के चलते यहां के सूचना अधिकारियों का रवैया मनमाना हो गया है. विभाग के अपीलीय अधिकारी से तो सूचना अधिकारियों के अच्छे संबंध होते ही हैं. ऐसे में आवेदक उनके पास अपील करने जाएं भी तो उसको कोई न्याय नहीं मिलता.’ पंक्ति जोग कहती हैं, ‘किसी भी विभाग के घोटाले वहां के अधिकारियों से छुपे नहीं होते और अधिकतर मामलों में बड़े अधिकारी खुद घोटालों में शामिल होते हैं. ऐसे में यदि कोई सूचना मांगे तो विभाग के बड़े अधिकारी और अपीलीय सूचना अधिकारी भी सूचना न देने में लोक सूचना अधिकारी की पूरी सहायता करते हैं.’
कई प्रदेशों में तो सूचना अधिकारी आवेदन के जवाब में इतने ज्यादा दस्तावेज जुटा देते हैं कि आवेदक को शुल्क ही लाखों में देना पड़े. आरटीआई कार्यकर्ताओं का मानना है कि सूचना अधिकारी जान-बूझकर ज्यादा दस्तावेज देने की बात करते हैं ताकि आवेदक को हतोत्साहित कर सकें. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के परिवहन निगम से मांगी गई एक सूचना का जवाब हासिल करने के लिए आवेदक से एक लाख 24 हजार रूपये मांगे गए. इतना ज्यादा शुल्क होने के कारण अधिकतर आवेदक जवाब लेने से इनकार कर देते हैं. हरियाणा के आरटीआई कार्यकर्ताओं की मानें तो प्रदेश के कुछ लोक सूचना अधिकारी यहां तक कह देते हैं कि जानकारी से संबंधित दस्तावेज जिस जगह रखे थे वहां आग लग जाने के कारण सूचना नहीं दी जा सकती. कुछ सूचना अधिकारी यह भी कह चुके हैं कि बाढ़ आने के कारण संबंधित दस्तावेज बह चुके हैं या उन्हें
दीमक खा गई है.
सूचना का अधिकार अधिनियम लागू हुए सात साल हो गए हैं. एक तरफ आरटीआई कार्यकर्ता मानते हैं कि अभी तक इस कानून का 50 प्रतिशत उपयोग भी नहीं हो रहा. लोगों को इस अधिकार के प्रति जागरूक करने की कई मुहिमें चलाई जा रही हैं. दूसरी तरफ कई सरकारों ने इसके दुरुपयोग की बात करके इस पर लगाम लगाने की पहल कर दी है. सर्वोच्च न्यायालय भी आरटीआई के दुरुपयोग पर टिप्पणी कर चुका है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या इतने जन आंदोलनों और अथक प्रयासों के बाद हासिल किए गए सूचना के अधिकार को कमजोर करना ही इसका दुरुपयोग रोकने का एकमात्र तरीका है. इस संदर्भ में महाराष्ट्र के भास्कर प्रभु का सुझाव व्यावहारिक लगता है. वे कहते हैं, ‘सरकार का यही तर्क होता है कि कई लोग लगातार इस अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं और इसके जरिए ब्लैकमेल कर रहे हैं. तो सरकार को हर विभाग में आने वाले आवेदनों को सार्वजनिक कर अपनी वेबसाइट पर डाल देना चाहिए. जब हर आवेदन वेबसाइट पर होगा तो जनता को भी यह पता चलेगा कि कौन व्यक्ति कितने और किस तरह के आवेदन कर रहा है. लगातार कई आवेदन करने वाले और दुर्भावना से सूचना मांगनेवाले व्यक्तियों को जनता भी पहचान सकेगी. ऐसे लोगों को समाज भी स्वीकार नहीं करेगा और तब इन लोगों पर रोक लगाना भी संभव हो सकेगा.’ बात वाजिब भी लगती है, जिन लोगों का हवाला देकर सरकार इस कानून को कमजोर करने की बात कहती है उन लोगों पर रोक लगाना कानून पर रोक लगाए जाने से बेहतर है.
साक्षात्कार:“जोश-जोश में कानून तो बना दिया, अब इससे बचने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं.”
केंद्रिय सूचना आयुक्त एमएल शर्मा से राहुल कोटियाल की बातचीत.
सात साल बाद आरटीआई को आप कैसे देखते हैं?
आजादी के बाद जो भी कानून बनाए गए हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना का अधिकार ही है जिसने आम आदमी को सशक्त करने का काम किया है. केंद्रीय सूचना आयोग के स्तर पर तो यह काफी प्रभावी रहा है. हां, कुछ राज्यों में इतना सराहनीय कार्य नहीं हो पाया क्योंकि लंबित मामलों की संख्या काफी ज्यादा है, स्टाफ कम है, आवेदनों का निस्तारण नहीं हो पा रहा है और यदि शीघ्र निस्तारण न हो तो सूचना का महत्व ही खत्म हो जाता है. इस सबके बावजूद भी यह कानून एक सफल है क्योंकि इसके जरिए कम से कम आम आदमी को बोलने का मौका तो मिला वरना उसकी तो कोई सुनवाई ही नहीं हो पाती थी. हमारे सामने जब दोनों पक्ष उपस्थित होते हैं तो आम नागरिक जमकर अपनी भड़ास सरकारी कर्मचारियों पर निकालते हैं. मैं तो कहूंगा कि यह कानून ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम कर रहा है जिसके जरिए आम नागरिक सरकार के प्रति अपनी भड़ास निकाल रहे हैं.
इसके दुरूपयोग और अनावश्यक उपयोग की बातें भी पिछले कुछ समय से उठती रही हैं. प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय इस सन्दर्भ में टिप्पणी कर चुके हैं.
हां, आरटीआई का दुरुपयोग भी है और इसको नकारा नहीं जा सकता. हमारे सामने ही एक आवेदन आया जिसमें विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय से किसी ने पूछा था कि ‘मैंने सुना है कि विदेश में एक ऐसी मशीन बनी है जिससे देश के भाग्य का पता लग जाता है. बताया जाए कि वो कौन-सा देश है जहां ऐसी मशीन बनी है और यह भी बताया जाए कि इस देश का भाग्य क्या है; तो ऐसे भी मामले हैं लेकिन यह दुरूपयोग अपवाद के तौर पर ही है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से सूचना आयोग को बल दे दिया है कि ऐसे मामले यदि आते हैं तो इन्हें सिरे से नकार दिया जाए. आखिर आरटीआई का मतलब सिर्फ नागरिक का ही नहीं बल्कि देश का भला भी है.
विभिन्न सूचना आयोगों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं. क्या इसका एक कारण लोगों द्वारा आरटीआई का अनावश्यक उपयोग भी है?
मैं इसका कारण आरटीआई के अनावश्यक उपयोग को ज्यादा नहीं मानता. स्टाफ की कमी एक बड़ा कारण जरूर है और सूचना आयुक्तों को भी तो ज्यादा काम करना चाहिए. जो भी सूचना आयुक्त एक दिन में 25 से कम मामले देखता है वह ठीक नहीं है. प्रत्येक सूचना आयुक्त को महीने में 400 से 500 मामलों का निस्तारण कर देना चाहिए. लेकिन देश में ऐसे भी आयोग हैं जहां आयुक्त दिन में तीन या चार मामले ही देख रहे हैं. इसके अलावा स्टाफ को बढ़ाए जाने की भी आवश्यकता है. सरकार ने पर्याप्त स्टाफ नहीं दिया है. हमारे केंद्रीय आयोग में ही आप स्टाफ की हालत देख लीजिए. अधिकतर लोग संविदा पर हैं और कई तो सेवानिवृत्त लोग ही काम कर रहे हैं.
कई राज्यों और संस्थाओं ने अपने आरटीआई नियमों में बदलाव कर आवेदन शुल्क 500 रुपये तक कर दिया है. क्या ऐसा करना आरटीआई के मूल उद्देश्य को ही समाप्त करना नहीं है?
आरटीआई के अंतर्गत आवेदन शुल्क 10 रुपये बहुत सोच-समझ कर रखा गया था. अब तंग आकर यदि कोई सरकार या संस्था इसे 20-30 रुपये बढ़ा देती है तो बात फिर भी समझ में आती है लेकिन शुल्क को 500 रुपये कर देना मेरी समझ से बाहर है. मैं मानता हूं कि 10 रुपये बहुत ही कम हैं लेकिन 500 रुपये तो बहुत ही ज्यादा हैं. जहां भी ऐसा किया गया है वह गलत है. ऐसी स्थिति जरूर बने कि इस अधिकार का दुरुपयोग रुके मगर ऐसी भी स्थिति ना हो जाए कि इस अधिकार का कोई उपयोग ही ना कर सके. दरअसल जोश-जोश में कानून तो
बना दिया लेकिन अब इससे बचने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं.
लोक सूचना अधिकारियों की मानें तो उन्हें आरटीआई की वजह से कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
लोक सूचना अधिकारी इस आंदोलन की जान हैं, वे ही इसकी आधारशिला हैं. शुरू में उन्हें यह कार्य जरूर बोझ जैसा महसूस हो रहा था परंतु अब वे मान चुके हैं कि सूचना तो उन्हें देनी ही है. वैसे भी कोई सारी उम्र के लिए तो सूचना अधिकारी बनाया नहीं जाता, ज्यादा से ज्यादा दो-तीन साल के लिए ही किसी को लोक सूचना अधिकारी बनाया जाता है फिर उसे हटाकर किसी और को यह कार्य सौंप दिया जाता है. अब दो-तीन साल के लिए यदि कुछ लोगों को अतिरिक्त कार्यभार संभालना भी पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन मैं यह भी कहूंगा कि जिसे भी लोक सूचना अधिकारी बनाया जाए उसे कुछ अतिरिक्त स्टाफ भी प्रदान किया जाए.
कई राज्यों ने फीस बढ़ाने के साथ ही आवेदन पर 150 शब्दों की सीमा लगा दी है. ऐसा किया जाना कितना उचित है?
बिल्कुल उचित है. हमने 50-50 पेज के भी आवेदन देखे हैं, परन्तु उन्हें आरटीआई आवेदन नहीं कहा जा सकता. वह तो पूरी राम कथा है. मैं समझता हूं कि 150 शब्द ऐसी सीमा है जिसमें हर तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है. अगर आपका काम एक आवेदन से नहीं बनता तो दो आवेदन दाखिल कर लीजिए. एक आवेदन एक ही विषय पर हो यह भी बिल्कुल सही है. अगर आप कई विषयों से संबंधित सूचना एक ही आवेदन में मांगते हैं तो आपको खुद भी पूरी सूचना प्राप्त नहीं हो पाती. ऐसे में यह सभी के हित में है कि एक आवेदन एक ही विषय पर हो और सीमित शब्दों में लिखा गया हो. हमें इस कानून को व्यावहारिक बनाना है सैद्धांतिक नहीं.
तो आपके अनुसार आरटीआई एक्ट में किसी संशोधन की गुंजाइश है या फिर आप मानते हैं कि यह अपने आप में बिल्कुल सही और सपूंर्ण है?
इसमें बिल्कुल संशोधन की गुंजाइश है. पहला तो यह कि आरटीआई आवेदन में शब्दों की सीमा राष्ट्रीय स्तर पर ही निर्धारित की जाए. दूसरा, फीस भी कुछ हद तक बढ़ाई जानी चाहिए. माना कि 500 रूपये बहुत ज्यादा है लेकिन 10 रुपये फीस बहुत ही कम है. केंद्र सरकार को दोबारा विचार कर इसे बढ़ाना चाहिए जो कि पूरे देश के लिए एक ही रहे और कोई भी लोक प्राधिकारी इसमें संशोधन न कर सके. तीसरा, आरटीआई अधिनियम में आयोग को जुर्माना वसूलने का कोई भी प्रावधान नहीं है, इसलिए इसकी व्यवस्था भी होनी चाहिए. चौथा, प्रथम अपीलीय अधिकारियों पर जुर्माना करने का भी कोई प्रावधान कानून में नहीं है और मेरी नजर में इस कानून की सबसे कमजोर कड़ी प्रथम अपीलीय अधिकारी ही हैं क्योंकि उनको आयोग का भी कोई डर नहीं होता. इसलिए अपीलीय अधिकारियों को भी आयोग के अधिकार क्षेत्र में लाया जाना चाहिए. आखिरी बात यह कहूंगा कि आयोग में अपील करने हेतु कोई भी शुल्क नहीं देना होता तो लोग धड़ाधड़ आयोग में अपील करते चले जाते हैं. इसलिए चाहे 50 रुपये ही हो मगर आयोग आने वाले हर आवेदक से शुल्क लिया जाना चाहिए.