सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच मणिपुर हिंसा पर चर्चा को लेकर चालू मानसून सत्र के पहले दिन से ही जो हंगामा शुरू हुआ, जो लेख लिखे जाने तक जारी था। लेकिन इस हंगामे के बीच ही सत्र के पहले ही दिन यानी 21 जुलाई को केंद्रीय क़ानून एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में बताया कि भारतीय अदालतों में लंबित मुक़दमों की संख्या 5.02 करोड़ से ज़्यादा हो गयी है। अकेले सर्वोच्च अदालत में लंबित मामलों की संख्या 69,766 हो गयी है।
क़ानून एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राज्यसभा को बताया कि ‘इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम से प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक 01 जुलाई तक सर्वोच्च न्यायालय में 69,766 मामले लंबित हैं।’
उन्होंने कहा-‘ नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) पर मौज़ूद जानकारी के मुताबिक 14 जुलाई तक देश की 25 उच्च अदालतों में 60,62,953 और ज़िला व अधीनस्थ अदालतों में 4,41,35,357 मामले लंबित हैं।’
एनजेडीजी राष्ट्रीय स्तर पर अदालतों के प्रदर्शनों की निगरानी करता है। भारत में लंबित मामलों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है और समय-समय पर न्यायाधीश व सरकार भी इस गम्भीर मुद्दे पर अपनी-अपनी तरह से चिन्ता व्यक्त करते रहते हैं।
मई में जब किरण रिजिजू की जगह क़ानून एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को बनाया गया, तो उन्होंने कहा था कि सभी को इंसाफ़ उपलब्ध कराया जाना चाहिए और भारत की न्यायपालिका के सभी स्तरों पर मामलों का भारी बैक लॉग एक समस्या है, जिसे संबोधित करने की ज़रूरत है।’
मंत्री मेघवाल ने अपने नये कार्यालय के पहले दिन प्रेस वार्ता में कहा था -‘ मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता सभी को त्वरित इंसाफ़ सुनिश्चित करना होगी।’ दरअसल क़ानून मंत्री कोई भी हो, आम जनता को त्वरित न्याय दिलाने वाले उनके अल्फ़ाज़ बाद में आम जन को निराश ही करते हैं। हज़ारों लंबित मामले 25 साल या इससे अधिक समय से लंबित हैं। सवाल है कि लंबित मामलों की इस समस्या को कैसे कम किया जाए? न्यायिक तंत्र व न्याय दिलाने में सहयोग करने वाली अन्य एजेंसियों को कैसे कारगर बताया जाए कि धरातल पर सकारात्मक नतीजे दिखायी दे।
लंबित मामलों से लोकतंत्र को नुक़सान होता है। इस बाबत मिड-डे में छपी ख़बर के मुताबिक, वॉचडॉग फाउंडेशन के ट्रस्टी एडवोकेट गॉडफ्रे पिमेंटा ने कहा कि भारत में विभिन्न अदालतों में मामलों का ढेर एक दरकते हुए लोकतंत्र की तरफ़ इशारा है। राजनेता जनता को इंसाफ़ दिलाने की पहल में पिछड़ गये हैं, क्योंकि वे सिर्फ़ अपने स्वार्थों को पूरा करते हैं। कोर्ट रूम की संख्या बढ़ाने, ऑनलाइन सुनवाई में बदलाव करने और अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति जैसे बुनियादी ढाँचे में बदलाव की ज़रूरत है।
गॉडफ्रे पिमेंटा ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, लगभग सरकार भी उसके क़रीब ही खड़ी नज़र आती है। सिर्फ़ राजनेता वाले वाक्य को हटाकर। क़ानून एवं न्याय मंत्री मेघवाल का कहना है कि अदालतों में मामलों के लंबित होने के लिए कई कारणों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिनमें पर्याप्त संख्या में जजों और न्यायिक अफ़सरों की अनुपलब्धता, अदालत के कर्मचारियों और कोर्ट के इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी शामिल है। इसके साथ ही साक्ष्यों का जुटाया जाना; बार, जाँच एजेंसियों, गवाहों और वादियों जैसे हितधारकों का सहयोग भी इसमें शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि अदालतों में मामले के निपटान के लिए पुलिस, वकील, जाँच एजेंसियाँ और गवाह अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि यही देश में मामलों को लंबित करने के अहम कारण भी बनते हैं। कई मामलों में पुलिस समय पर आरोप-पत्र दाख़िल नहीं कर पाती, तो कई मामलों में वकील भी पेश नहीं होते। इसके अलावा अदालतों की लम्बी छुट्टियाँ होती हैं।
संदर्भ के लिए हाल ही में छपी एक ख़बर, राजस्थान की बूंदी पुलिस ने लकड़ी काटने के आरोप में 53 साल बाद 7 बुजुर्ग महिलाओं को गिरफ़्तार कर उन्हें अदालत में पेश किया गया। इन महिलाओं पर आरोप है कि 53 साल पहले इन्होंने जंगल से अपने घरों में खाना बनाने के लिए कुछ लकडिय़ाँ काटी थीं।
इस मामले में 12 महिलाओं के ख़िलाफ़ मुक़दमा सन् 1971 में दर्ज हुआ था और पुलिस ने उन्हें पकड़ा 2023 में। तीन महिलाओं की मौत हो चुकी है और दो को पुलिस नहीं पकड़ पायी। अदालत ने 500 रुपये के मुचलके पर इन आरोपी महिलाओं को रिहा कर दिया है। इसके अलावा अदालतें वकीलों की अनुपस्थिति में भी सुनवाई नहीं कर पाती हैं।
हाल ही में एनजेडीजी की रिपार्ट में बताया गया था कि देश में लंबित मामलों में 61,57,268 ऐसे मामले हैं, जिनमें वकील पेश नहीं हो रहे हैं और 8,82,000 मामलों में केस करने वाले और विरोधी पक्षों ने अदालत आना ही छोड़ दिया। इस रिपोर्ट में यह भी ख़ुलासा किया गया कि 66,58,131 मामले ऐसे हैं, जिनमें आरोपी या गवाहों की पेशी नहीं होने के कारण मामलों की सुनवाई रुकी हुई है। इनमें से 36 लाख से अधिक मामलों में आरोपी जमानत लेकर फ़रार हैं। क़ानून एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल का कहना है- ‘अदालतों में लंबित मामलों का निपटारा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में है। अदालतों के मामलों के निपटारे में सरकार की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है।’
सरकार या क़ानून मंत्री यह कहकर क्या अपनी जनता के साथ न्याय कर रहे हैं? अदालतें मामलों की त्वरित सुनवाई कर त्वरित न्याय करें, यह सुनिश्चित करना क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है। लंबित मामलों को जल्द-से-जल्द निपटाने के लिए सरकार व न्यायपालिका के दरमियान उचित समन्वय होना चाहिए। सर्वोच्च अदालत के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने 2019 में एक अख़बार में अपने लेख में कहा था कि ऐसा अनुमान है कि अगर कोई नया मामला दर्ज नहीं हो, तो बैक लॉग को निपटाने में क़रीब 360 वर्ष लगेंगे।’
उस समय लंबित मामलों की संख्या क़रीब 3.3 करोड़ थी और आज यह संख्या 5 करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है। गत जुलाई को सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने देश में लंबित मामलों पर तत्कालीन क़ानून एवं न्याय मंत्री किरण रिजिजू द्वारा व्यक्त की गयी चिन्ताओं का जबाव देते हुए कहा था कि न्यायिक रिक्तियों को न भरना इसका प्रमुख कारण है। मंत्री को यह संदेश साफ़ दिया गया था कि न्यायिक रिक्तियों को भरना और न्यायिक बुनियादी ढाँचे में सुधार करना चाहिए।
अगर अदालतों में जजों की संख्या पर निगाह डालें, तो पता चलता है कि दिसंबर, 2022 तक 25 उच्च अदालतों में जजों की संख्या 1,108 होनी चाहिए थी; लेकिन यह संख्या 778 है। इसी तरह निचली अदालतों में जजों के पद 24,631 थे; लेकिन जज 19,288 थे। भारत की निचली अदालतों में ज्यूडिशियल अफ़सरों के 5,388 से अधिक और उच्च अदालतों में 330 से अधिक पद $खाली हैं।
क़ानून मंत्रालय ने इंसाफ़ मिलने में हो रही देरी को दुरुस्त करने सम्बन्धित एक सवाल के जवाब में उत्तर दिया था कि केंद्र मामलों के त्वरित निपटारे और लंबित मामलों को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। क़ानून मंत्रालय ने इस दिशा में उठाये गये क़दमों का ज़िक्र किया और कहा कि जहाँ तक ज़िला अदालतों व अधीनस्थ अदालतों का सम्बन्ध है। 2014 में कोर्ट हाल की संख्या 16,000 थी, जो बढक़र 2020 में 19,500 हो गयी है।
डिजिटल समाधान को अपनाकर एक उल्लेखनीय क़दम मामलों के निपटान के वास्ते उठाया गया है। केंद्र देश भर में ई-कोर्ट मिशन मोड प्रोजेक्ट को लागू कर रहा है। क़ानून मंत्रालय ने यह भी कहा कि देश के उच्च अदालतों में पाँच साल से अधिक लंबित मामलों के त्वरित निपटारे के लिए एरियर कमेटी का गठन किया गया है। दरअसल सरकार अपनी सफ़ाई में बहुत कुछ कहती है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त क्या है?
हाल ही में बॉम्बे उच्च अदालत ने चोरी के मामलों में 83 साल की सज़ा पाने वाले पुणे के 30 वर्षीय व्यक्ति को रिहा करने के आदेश दिये। अदालत ने अपने आदेश में कहा कि अगर व्यक्ति को सही समय पर क़ानूनी मदद मिल जाती, तो वह 41 मामलों में से 38 में बरी हो जाता। चूँकि वह ग़रीब है और वकील नहीं कर सकता, इसलिए वह जेल में सज़ा काट रहा था। प्रसंगवश यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी है कि देश की जेलों में क्षमता से अधिक क़ैदी हैं और यह स्थिति बद से बदतर हो रही है। इसी अप्रैल को जारी ‘द थर्ड इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022’ के अनुसार, देश में सन् 2019 में 4.81 लाख क़ैदी थे और यह संख्या 2020 में बढक़र 4.89 लाख हो गयी। 2021 में यह संख्या 5.54 लाख तक पहुँच गयी। देश में कुल जेलों की संख्या 1,319 है। दिसंबर, 2021 तक एक जेल में औसतन 130 प्रतिशत क़ैदी थे। चिन्ता की बात यह है कि विचाराधीन क़ैदियों की संख्या बढ़ रही है। विचाराधीन क़ैदी ऐसे क़ैदी जिन्हें अदालत ने सज़ा नहीं सुनायी है। इसे देश में बढ़ते लंबित मामलों से भी जोडक़र देखा जा सकता है। एक दशक में विचाराधीन क़ैदियों की तादाद लगभग दोगुनी हो गयी है।
इसी रिपोर्ट के अनुसार, 2010 में विचाराधीन क़ैदियों की तादाद 2.14 लाख से बढक़र 201 में 4.3 लाख हो गयी थी। लंबित मामलों का असर देश की न्यायिक व्यवस्था के साथ-साथ पीडि़तों की सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक अवस्था पर भी पड़ता है। आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग इन लंबित मामलों की प्रवृत्ति को ये सोचकर अपराध करते हैं कि अपराध कर लो, अदालतों में तो कई-कई साल तक मुक़दमे चलते रहते हैं। लंबित मामलों से इस संदेश का निकलना किसी भी समाज, राष्ट्र, लोकतंत्र व मानव जाति के लिए ख़तरनाक है; क्योंकि न्याय में देरी भी एक तरह से अन्याय है।