शरत गायकवाड़ का बायां हाथ जन्म से ही ऐसा है. एक नई जिंदगी इस रूप में दिखे तो किसी भी मां-बाप का परेशान होना स्वाभाविक है. शरत के माता-पिता भी भाग्या और महादेव राव भी अपवाद नहीं थे. साथ देने को जब बस एक हाथ हो तो साधारण काम भी असाधारण लगने लगता है. लेकिन साधारणता की हसरत अब बहुत पीछे छूट गई है. आज शरत असाधारण उपलब्धियों के पहाड़ पर बैठे हैं. बंगलुरू में रहने वाला 21 साल का यह तैराक पिछले सात सालों के दौरान 40 राष्ट्रीय और 30 अंतरराष्ट्रीय पदक अपने नाम कर चुका है. उपलब्धियों की इस किताब में एक नया पन्ना जोड़ते हुए शरत ने पैरालिंपिक-2012 के लिए क्वालीफाई किया है. इस मुकाम पर पहुंचने वाले वे पहले भारतीय तैराक हैं.
जाहिर है हर कोई उनकी इस प्रेरणादायी यात्रा के बारे में जानना चाहता है. वे बताते हैं कि इसमें उनके दृढ़ संकल्प और उन सभी लोगों का हाथ है जिन्होंने समय-समय पर उनका हौसला बढ़ाया. अपनी मां के बारे में बात करते हुए उनके चेहरे पर मुसकान आ जाती है. शरत कहते हैं, ‘शुरूआती दौर में मैं जब भी पदक जीतता तब मां मेरी पसंद का खाना बनाती थीं. लेकिन मुझे लगता है कि अब तो यह सब उनके लिए सामान्य बात हो गई है.’
शरत ने पहली बार राष्ट्रीय खेलों में 2003 में भाग लिया था. वे तब सिर्फ 12 साल के थे. इस आयोजन के दौरान उनकी झोली में चार स्वर्ण पदक आए. आज भी उन्हें याद है कि जैसे-जैसे इस आयोजन का वक्त पास आता जा रहा था तो उन्हें बड़ी घबराहट हो रही थी. वे बताते हैं, ‘लेकिन एक बार पानी में क्या उतरा कि सारी घबराहट छूमंतर हो गई.’ शरत को सहजता से तैरते हुए देखकर कोई भी पल भर के लिए यह भूल सकता है कि तैराकी के लिए पूरी तरह संतुलित एक शरीर बहुत जरूरी है. तैरने के क्रम में दोनों बाजुओं का इस्तेमाल पानी को काटने के लिए और पैरों का उपयोग शरीर को आगे धकेलने में किया जाता है.
‘मेरा मुकाबला मुझ जैसे किसी खिलाड़ी से नहीं है. न ही मैं दो बाजुओं वाले किसी तैराक से होड़ लेना चाहता हूं. मैं तो अपनी ही उपलब्धियां पीछे छोड़ना चाहता हूं’
विकलांग बच्चों में भविष्य को लेकर डर मां-बाप से प्यार कम मिलने की वजह से पैदा नहीं होता है. यह डर पैदा होता है दूसरों को देखकर खुद को कम समझने के बाद. अच्छी बात यह रही कि माता-पिता से लेकर लिटिल फ्लॉवर पब्लिक स्कूल के उनके शिक्षकों तक सबने उनका हौसला बढ़ाया. सबने कहा कि जो सब कर सकते हैं वह तुम भी कर सकते हो . थोड़ी सी आशंकाएं तभी पैदा हुईं जब शरत को नौ साल की उम्र में ही तैराकी के अभ्यास में भी शामिल कर लिया गया. उनके पिता महादेव राव को एक बार लगा था कि शिक्षकों से इस बारे में बात की जाए. शरत की मां भाग्या उस समय को याद करते हुए कहती हैं, ‘मेरे पति बेटे के स्कूल प्रिंसिपल के पास गए और उनसे कहा कि वे शरत का ख्याल रखें. दरअसल उनके मन में बेटे के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया था. लेकिन प्रिंसिपल ने जोर देते हुए कहा था कि जब वह हरेक गतिविधियों में क्लास के अन्य बच्चों की बराबरी कर रहा है तब उसे तैराकी से अलग रखने का कोई मतलब नहीं. उन्होंने कहा कि उसका विशेष ख्याल रखने से कहीं वह दूसरे बच्चों से अलग-थलग न पड़ जाए. प्रिंसिपल ने शरत के पिता को यह समझाया कि कोच उसका दूसरे बच्चों की तरह ही ख्याल रखेंगे. कोच को यह अच्छी तरह पता है कि वे क्या कर रहे हैं.’
एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा. कंधों, पांव और भीतरी तौर पर खुद को मजबूत बनाना होगा. पिछले सात सालों से शरत के कोच 41 वर्षीय जॉन क्रिस्टोफर बताते हैं, ‘यह एक चप्पू से नाव खेने जैसा है. अगर शरत ने अतिरिक्त ताकत विकसित नहीं की होती तो वे आगे नहीं बढ़ सकते थे. इसकी बजाय वे एक ही जगह पर गोल-गोल घूमते रहते.’
शरत अपने कोच को ‘जॉन सर’ कहकर बुलाते हैं. जॉन की नजर शरत पर पहली बार 2003 में लिटिल फ्लॉवर स्कूल के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान पड़ी थी और उन्हें यह लग गया था कि इस लड़के को एक पेशेवर खिलाड़ी के तौर पर तैयार किया जा सकता है. लेकिन जॉन ने इससे पहले ऐसे किसी खिलाड़ी को प्रशिक्षित नहीं किया था. इसका मतलब यह नहीं है कि शरत ने इस वजह से ट्रेनिंग में कोई रियायत ली हो.
तैराकी सीखने के दौरान आई समस्याओं को याद करते हुए शरत कहते हैं कि एक नौ साल के बच्चे को अक्षम और विशेष रूप से सक्षम लोगों के बीच भेद करना सीखना था. वे कहते हैं, ‘वे दिन घोर निराशाओं से भरे होते थे. दोस्त मुझ पर कमेंट पास करते थे और हंसते थे. मैं ज्यादातर समय अपने दोनों हाथ होने की दुआ करता था. लेकिन इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता था. शरत थोड़ा गंभीर होते हुए कहते हैं, ‘शरीर को प्रशिक्षण देने से पूर्व अपने मन को प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है. आपको अपनी कमियों की ओर देखना बंद करना होता है.’ शरत ने ऐसा ही किया और अब उनके मन में हठ समा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वे ऊंचे से ऊंचे मुकाम तक पहुंचेगे.
वर्ष 2010 में हुए एशियाई पैरा खेलों के आयोजन में शरत ने कांस्य पदक जीता और वे पैरालिंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी कर गए. लेकिन उसके बाद कंधों की चोट की वजह से उनके प्रदर्शन में दो सेकेंड की गिरावट आई. लंदन में आयोजित होने वाले पैरालिंपिक में अपना प्रदर्शन ठीक करने के लिए वे हर रोज पांच घंटे से भी ज्यादा मेहनत कर रहे हैं. पसंदीदा जंक फूड से भी उन्होंने तौबा कर ली है और घर का बना खाना खा रहे हैं. लड़कियों की बात उनसे पूछने पर वे थोड़ा शरमाते हैं और फिर कहते हैं कि लड़कियां उन्हें बहुत भाव देती हैं लेकिन इन चक्करों में पड़ने से उनका ध्यान बंट जाएगा. वे कहते हैं, ‘मेरे जीवन का एक और एकमात्र उद्देश्य पैरालिंपिक खेलों में पदक हासिल करना है.’
शरत ने अपने कमरे में बचपन के हीरो सचिन तेंदुलकर और इयान थोर्प की तस्वीर लटका रखी है. ऐसे कोई स्टार आपके रोल मॉडल नहीं हैं जो आपकी तरह विशेष रूप से सक्षम हों, इस सवाल पर शरत पहले एक गहरी सांस लेते हैं और फिर कहते हैं,’मुझे लगता है कि मीडिया ने कभी भी हम जैसे खिलाड़ियों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है. शायद यही वजह है कि मैंने ऐसे खिलाड़ियों के बारे में कभी नहीं सुना. मैं भी थोर्प और तेंदुलकर जैसा खिलाड़ी बनना चाहता हूं जिनका मुकाबला हमेशा अपने आप से होता है. मेरा मुकाबला मुझ जैसे किसी दूसरे खिलाड़ी से नहीं है. न ही मैं दो बाजुओं वाले किसी तैराक से होड़ लेना चाहता हूं. मैं तो अपनी ही उपलब्धियां पीछे छोड़ना चाहता हूं.’ क्रिस्टोफर को वह दिन याद है जब वे शरत को ओलंपियन बनाने का निश्चय लिए उनके माता-पिता से मिले थे. वे बताते हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि यह लड़का विकलांगता नहीं बल्कि काबिलियत लेकर जन्मा है. अब आप इस चीज के लिए मानसिक रूप से तैयार न हों कि आप इसे कैसे पालेंगे. तैयारी उन उपलब्धियों के लिए कीजिए जो यह अब हासिल करने वाला है. ’