पृथ्वी को बचाना ज़रूरी
इंसानों का अस्तित्व कई चीज़ों के होने पर निर्भर करता है, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है पृथ्वी। अगर पृथ्वी रहने लायक नहीं बचेगी, तो जीवन भी नहीं बचेगा। पृथ्वी पर लगातार घट रही आपदाएँ साफ़ संकेत दे रही हैं कि प्रकृति इंसानों के विनाशकारी अभियानों से पीडि़त है, जिसका नतीजा भूकंप, भूस्खलन, भयंकर तूफ़ानों और अन्य कई आपदाओं के रूप में हमारे सामने बार-बार आ रहा है। लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी पर लगातार हो रहे विनाशकारी उजाड़ को रोका कैसे जाए? 22 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस है। सन् 1970 से पृथ्वी और पर्यावरण की चिंता करने वाले हर साल लगातार दुनिया 22 अप्रैल को पृथ्वी को बचाने के लिए जगह-जगह मंचों पर इकट्ठे होते आ रहे हैं।
सन् 2009 में एक प्रस्ताव के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 22 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस के रूप में प्रस्तावित किया। यानी पिछले पाँच दशक से ज़्यादा समय से मनाये जा रहे अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस में हर साल करोड़ों रुपये की बर्बादी करके पृथ्वी को बचाने पर चिन्ता ज़ाहिर की जाती है, संकल्प लिया जाता है; लेकिन पृथ्वी का बचाव तो दूर साल दर साल विनाश के बीज इंसानों द्वारा बोये जाते रहते हैं। वैसे तो 21 मार्च को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस को संयुक्त राष्ट्र का समर्थन हासिल है; लेकिन इसका वैज्ञानिक और पर्यावरण महत्त्व ही है। सही मायने में उद्घाटन पृथ्वी दिवस की शुरुआत विस्कॉन्सिन के सेन गेलॉर्ड नेल्सन ने सन् 1970 में की थी। नेल्सन ने पर्यावरण मुद्दों को लेकर जो चिन्ता ज़ाहिर की थी, उसके मायने लोग आज बार-बार की प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद नहीं समझ रहे हैं। उन्होंने एक ऐसी टीम बनाने में मदद की, जिसने प्राकृतिक संरक्षण कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया।
एक अनुमान के मुताबिक, पिछले 80 वर्षों में इंनानों ने क़रीब 27 प्रतिशत जंगल ख़त्म कर दिये हैं। क़रीब 40 प्रतिशत शहरीकरण बढ़ाया है। क़रीब 12 से 13 प्रतिशत पेयजल नष्ट किया है। क़रीब 17 प्रतिशत पेयजल दूषित कर दिया है। क़रीब 30 प्रतिशत नदियों के पानी को दूषित किया है। क़रीब 20 प्रतिशत समुद्रों के पानी को दूषित किया है। क़रीब 40 प्रतिशत कृषि भूमि को दूषित कर दिया है। $खाली पड़े मैदानों का क़रीब 60 से 62 प्रतिशत हिस्सा अपने क़ब्ज़े में ले लिया है। एक इंसान ही है, जो प्रकृति को अपने फ़ायदे के लिए लगातार उजाड़ रहा है। इंसान ही इसे रोक सकता है। बाकी जीव तो प्रकृति के अनुरूप ही हैं, क्योंकि वो सिर्फ़ भोजन और रहने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। प्रकृति में ख़ुद हरी-भरी होने की सामथ्र्य है। वह हवा, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को संजोने और सँवारने में ख़ुद समर्थ है; लेकिन तभी, जब उसे उजाड़ा न जाए और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हद से ज़्यादा न हो।
महासागर प्लास्टिक, कूड़े और ज़हरीले केमिकलों से भरते जा रहे हैं और उनमें लगातार अम्ल बढ़ रहा है। जंगल घटते जा रहे हैं। कृषि क्षेत्र भी कम हो रहा है। कई दूसरे जीवन समाप्त हो चुके हैं और लगातार इंसानों की आबादी बढ़ रही है, जिसका नतीजा गर्मी, बाढ़, मौसम परिवर्तन. ग्लेशियर पिघलने, पहाड़ खिसकने और रिकॉर्ड तोडऩे वाले अटलांटिक तूफ़ानों का आना है। आजकल हर तरह का प्रदूषण बढऩा, तेल रिसाव बढऩा, नुक़सानदायक गैसों में बढ़ोतरी, नुक़सानदायक केमिकल का लगातार उत्पादन, जीव हत्या में बढ़ोतरी, इंसानों की आबादी में लगातार बढ़ोतरी और कंकरीट में बढ़ोतरी से पृथ्वी का ही नहीं, इंसानों के साथ-साथ दूसरे प्राणियों के लिए भी घातक है। जलवायु परिवर्तन, प्रकृति में मानवजनित परिवर्तन के साथ-साथ ऐसे अपराध जो जैव विविधता को नुक़सान पहुँचा रहा है। इसके अलावा जंगलों की लगातार अवैध कटाई, ज़मीन का ग़लत इस्तेमाल, ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव, चीज़ों में मिलावट, अवैध वन्यजीव तस्करी और वैज्ञानिकों द्वारा लगातार विनाशकारी प्रयोग होने से पृथ्वी को बहुत ज़्यादा नुक़सान पहुँच रहा है।
अब पारिस्थितिकी तंत्र बदहाल हो चुका है, जिसे बहाल करने की ज़रूरत है। पारिस्थितिकी तंत्र का मतलब है पृथ्वी पर सभी के लिए जगह और उन्हें जीने की आज़ादी, जो कि प्रकृति ने तैयार किया है। लेकिन इंसानों ने इस तंत्र को इस हद तक बिगाडक़र रख दिया है कि कई तरह के जीवन पृथ्वी से विलुप्त हो चुके हैं। लेकिन विचार करना होगा कि हमारा पारिस्थितिकी तंत्र जितना बेहतर और स्वस्थ होगा, इंसान और दूसरे प्राणी उतने ही स्वस्थ और निर्भय होकर जी सकेंगे। इसलिए आज क्षतिग्रस्त पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने की ज़रूरत बहुत ज़्यादा हो चुकी है, जिसके लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है पुराने समय के हिसाब से रहन-सहन को बढ़ावा देना। जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिश में छटपटाने की बजाय जलवायु परिवर्तन के कारणों पर रोक लगाने की ज़रूरत है, ताकि प्रकृति की तरफ़ से ही ख़तरा कम हो सके। वर्ना असहाय होने के सिवाय इंसानों के पास और कोई चारा नहीं होगा, क्योंकि प्रकृति की ताक़त के आगे इंसान एक कीड़े से ज़्यादा कुछ नहीं है, भले ही वह कितनी भी मज़बूत और आलीशान इमारतें बना ले, चाहे कितने भी संसाधन अपने फ़ायदे के लिए जुटा ले।
एक अच्छा पर्यावरण बीमारियों से बचाव करता है और स्वस्थ ज़िन्दगी के लायक होता है। इसके लिए जन जागरूकता की ज़रूरत है, क्योंकि लोग मिलकर ही पृथ्वी को संरक्षित कर सकते हैं। दूसरे जीवों की तरह ही इंसानी स्वभाव भी गंदगी करना है। हालाँकि इंसानों द्वारा फैलायी जा रही गंदगी दूसरे जीवों द्वारा फैलायी जा रही गंदगी में मूल अंतर यह है कि दूसरे जीव केवल मल-मूत्र करके गंदगी फैलाते हैं, जिसे पृथ्वी अपशिष्ट करके उसका उपयोग पेड़-पौधों और फ़सलों के लिए खाद तैयार करने में कर लेती है। इंसानों के मल-मूत्र को भी खाद में परिवर्तित करके पृथ्वी उसका उपयोग कर लेती है; लेकिन इसके अलावा जो गंदगी इंसान फैला रहे हैं, उससे पृथ्वी को बहुत ज़्यादा नुक़सान हो रहा है।
इंसानों में इतनी अक्ल है कि वह इस गंदगी को साफ़ भी कर सके, लेकिन कुछ ऐसी गंदगी इंसानों ने फैला रखी है, जिसका समाधान इंसानों के पास भी नहीं है। क्योंकि उसे एक केमिकल को नष्ट करने के लिए दूसरे केमिकल का इस्तेमाल करना ही होगा। इस तरह से हर नये प्रयोग के लिए, हर नये उत्पादन के लिए एक ऐसा केमिकल या पदार्थ पैदा हो जाता है, जो और घातक साबित होता है। पृथ्वी पर केमिकल और प्लास्टिक बढऩे का सिलसिला इतना तेज़ है कि हर रोज़ दुनिया में लाखों टन प्लास्टिक और हज़ारों गैलन केमिकल पैदा हो रहा है। इस प्लास्टिक से करोड़ों लीटर पानी ख़राब हो रहा है और हवा दूषित हो रही है।
पृथ्वी को संरक्षित कैसे किया जाए? इस सवाल का जवाब तो ऊपर मिल ही चुका होगा; लेकिन मुख्य सवाल यह है कि यह काम ऐसे समय में कौन आगे बढक़र करे, जब पृथ्वी को बचाने की कोशिशों में लगे लोगों को लकड़ी तस्करों, पशु और पशु अंग तस्करों, केमिकल पैदा करने वालों, फैक्ट्री चलाने वालों की ओर से धमकियाँ मिलती रहती हैं। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ग्लोबल विटनेस ने एक अध्ययन की रिपोर्ट में ख़ुलासा किया है कि जलवायु परिवर्तन पर लोगों को चेताने वाले वैज्ञानिकों को लगातार धमकियाँ मिल रही हैं। ये धमकियाँ पुरुष वैज्ञानिकों को जान से मारने की, उनके परिवार को नुक़सान पहुँचाने की मिल रही हैं, तो महिला वैज्ञानिकों को बलात्कार की और उन्हें जान से मारने, नुक़सान पहुँचाने और उनके परिवार को नुक़सान पहुँचाने की मिल रही हैं। इन धमकियों की वजह से अनेक वैज्ञानिक तनाव में हैं, अनेक बीमार हो चुके हैं और अनेक अपने काम को लेकर डरे हुए हैं। यही हाल भू-संरक्षण पर काम करने वाले वैज्ञानिकों और वन संरक्षण, वन्य जीव संरक्षण, जल संरक्षण, ऑक्सीजन संरक्षण, रेत संरक्षण और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में लगे लोगों का है। यानी सभी प्रकार से अच्छे कामों में लगे लोगों को या तो धमकियाँ मिलती रहती है, उन पर हमले होते रहते हैं और कई की तो हत्याएँ हो चुकी हैं।
पृथ्वी के संसाधनों के दोहन में लगे लोग इस काम को अंजाम देते हैं और उनका कुछ नहीं होता। इसकी वजह यह है कि बड़े-बड़े माफ़ियाओं और तस्करों के सिर पर बड़े-बड़े पूँजीपतियों का हाथ होता है, बड़े-बड़े नेताओं का हाथ होता है, जो ख़ुद सत्ता में बैठे होते हैं। इस तरह दोहरी नीति के तहत काम होता है, एक तरफ़ सरकारी पैसे पर संरक्षण के दिखावे के लिए काम कराया जाता है और दूसरी तरफ़ पर्दे के पीछे पैसा कमाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन माफ़िया, तस्करों और दूसरे प्रकार के अपराधियों से प्रकृति के ख़िलाफ़ काम करवाये जाते हैं।
सन् 2018 में अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस पर पृथ्वी को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने का अभियान चलाया गया था; लेकिन तब से अब तक 12 फ़ीसदी प्लास्टिक धरती पर बढ़ चुका है। इस प्लास्टिक को ख़त्म करने के लिए कई कंपनियाँ और फैक्ट्रियाँ काम कर रही हैं, जो या तो एक प्लास्टिक की चीज़ को नष्ट करके उससे दूसरी प्लास्टिक की चीज़ बना रही हैं या फिर प्लास्टिक नष्ट करने के नाम पर उससे ज़्यादा ख़तरनाक केमिकल पैदा कर रही हैं, जिससे पृथ्वी और पृथ्वी पर मौज़ूद प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ पृथ्वी पर मौज़ूद सभी प्रकार की ज़िन्दगियों को बेहद नुक़सान पहुँच रहा है। दुनिया भर की सरकारें प्लास्टिक और केमिकल को नष्ट करने के लिए हर साल अरबों रुपये पानी की तरह बहा रही हैं; लेकिन बढ़ते प्लास्टिक कचरे और केमिकल में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, जिससे समस्या और विकराल होती जा रही है। इसलिए पृथ्वी संरक्षण के लिए कई उत्पादनों को रोकना होगा, जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाना होगा, पानी और हवा को साफ़-सुथरा रखना होगा।
प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी रोकनी होगी और प्रकृति से हर तरह के खिलवाड़ को रोकना होगा, जिसके लिए दुनिया भर की सरकारों को बुरे लोगों से, माफ़ियाओं से और तस्करों से एक बड़ी लड़ाई लडऩी होगी और अच्छे लोगों का साथ देना होगा, जो कि संभव नहीं लगता। लेकिन संकल्प लेने से सब कुछ सम्भव है और पृथ्वी तथा प्राकृतिक संसाधनों को बचाने का संकल्प सिर्फ़ दुनिया के सभी देशों की सरकारों को ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोगों को भी लेना होगा।