होना ही जिनका अपराध है

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वो लड़की जो धूप सी खिलकर उठती थी हर सुबह…
इक रोज़ कुछ ऐसा उसके साथ हुआ…
आदमी जानवर, गांव सारा जंगल हुआ…
जानवर के जिस्म की भूख और आग में…सब राख हुआ
‘उन्होंने मेरी बेटी को जला दिया, वो मेरे सामने तड़प-तड़पकर मर गई.’
‘वो मेरी लड़की को खा गए, उसके साथ खराब काम किया और उसे जला कर मार डाला.’
‘अरे, मेरी फूल सी बच्ची के साथ जबरजस्ती करी और उसे जला दिया, मार डाला उसे.’

बुंदेलखंड के पथरीले सूखे गांवों में रहने वाले कई परिवारों का दिल दहला देने वाला यह रुदन चट्टान पर उकेरी गई किसी बदसूरत लकीर की तरह जेहन में बस जाता है. हालांकि मध्य प्रदेश का यह क्षेत्र महिलाओं के खिलाफ हिंसा की आपराधिक परंपरा के लिए हमेशा से बदनाम रहा है, लेकिन पिछले एक साल में इन अपराधों ने यहां हिंसा और बदसूरती के चरम को छू लिया. इस दौरान यहां कम से कम 15 लड़कियां बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जला दी गईं.

बुंदेलखंड के सामाजिक हालात देखकर महसूस होता है कि जैसे औरत होना ही यहां अपने आप में सबसे बड़ा अपराध है. पिछले पांच वर्षों से भीषण सूखे की मार झेल रहे यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में बसे और धूल में लिपटे छोटे-छोटे गांव, औरतों की गूंगी चीख में डूबी एक रहस्यमयी चुप्पी में लिपटे हुए भी प्रतीत होते हैं. यहां के बाशिंदे उनके आसपास बेरहमी से जलाई गई औरतों के बारे में पूछने पर खामोशी का चुनाव कर लेते हैं. उनकी यह खामोशी ऐसे हत्याकांडों को समाज से  मिलने वाली मौन स्वीकृति की पुष्टि कर देती है. तभी अचानक एक नौजवान कहता है, ‘इस इलाके में औरतों के साथ ऐसी घटनाएं होना आम बात है, आप लोग क्यों परेशान हो रहे हैं?’  इस तरह बुंदेलखंड में महिलाओं के साथ हो रहे जघन्य अपराधों की स्याह तसवीर सामने आ जाती है.

‘औरत होने की सजा’ यह बात जेहन में आते ही दिमाग 900 साल पीछे चला जाता है. नौ शताब्दियों पहले दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाली इकलौती महिला शासक रजिया सुलतान को हटाकर उसकी हत्या करवा दी गई थी. तब उस वक्त के मशहूर इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने अपनी किताब ‘तबकात-ए-नासिरी’  में लिखा था, ‘रजिया में शासक होने के सारे गुण थे और वह अपने सभी भाइयों से ज्यादा काबिल थी. पर उसकी सिर्फ एक ही कमजोरी थी. वह औरत थी.’ तकरीबन हजार साल के भी बाद मिन्हाज के ये शब्द बुंदेलखंड की धूलभरी, सूखी बसाहटों में आज भी प्रासंगिक है. यहां सदियों पुरानी परंपराएं और रूढ़ियां आज भी रोजमर्रा के जीवन से मजबूती से जुड़ी हैं.

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हालिया वक्त की बात करें तो महिलाओं के साथ बलात्कार या ऐसा करने के प्रयास के बाद उन्हें जला दिए जाने की सबसे ज्यादा घटनाएं बुंदेलखंड के दमोह और छतरपुर जिलों में हुई हैं. इन जिलों के दूर-दराज के हिस्सों में बसे गांवों के पीड़ित परिवारों की रोंगटे खड़े कर देने वाली दास्तानें प्रदेश में महिलाओं की स्थिति की काली सच्चाई सामने रख देती हैं. एक ओर जहां ये घटनाएं राज्य सरकार की बहुप्रचारित ‘महिला सशक्तीकरण, ‘बेटी बचाओ’ और ‘स्त्री सुरक्षा’ सरीखी तमाम खोखली नीतियों की पोल खोलती हैं वहीं दूसरी ओर दुनिया के इस हिस्से में महिलाओं की कमजोर और दोयम स्थिति की ओर भी इशारा करती हैं. बुंदेलखंड के इन उजाड़ पठारी क्षेत्रों का दौरा करने पर कई सवाल जेहन में उभरते हैं. आखिर क्यों लड़कियों का बलात्कार करने के बाद उन्हें जलाने जैसे अपराध का यह खास पैटर्न यहां उभर रहा है? ज्यादातर मामलों में बहुत लंबा समय बीत जाने के बाद भी अपराधी खुले क्यों घूम रहे हैं? एक बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर वे कौन-सी सामाजिक परिस्थितियां हैं जो एक समाज को अपने आधे हिस्से के साथ इस बर्बरता से पेश आने की वजह बन रही हैं.

इन तमाम हत्याओं के पीछे ‘पुरुष अहंकार’ को एक प्रमुख कारण माना जा सकता है. दमोह जिले के मुख्य सरकारी वकील राकेश शुक्ला के अनुसार बुंदेलखंड में ठाकुरों और राजपूतों का बड़ा दबदबा है. ‘कोई उनका विरोध नहीं करता. अगर कोई उनके अत्याचारों के खिलाफ शिकायत करे तो वे उसे जला देते हैं. उस पर औरतों का शिकायत करना तो खासतौर पर उनके तथाकथित सम्मान को गहरी ठेस पहुंचाता है. यहां के समाज का घोर रूढ़िवादी और अशिक्षित होना भी इसका एक कारण है.’

पर पुलिस प्रशासन कुछ करता क्यों नहीं और अपराधी कोर्ट से कैसे बरी हो जाते हैं?. करीब दो दशक से इस क्षेत्र में वकालत कर रहे शुक्ला का मानना है कि ज़्यादातर मामलों में पुलिस परोक्ष रूप से अपराधी की ही मदद करती है. ‘जैसे वे एफआईआर ठीक से नहीं बनाते हैं तो केस वहीं ख़त्म हो जाता है. फिर अपराधी को पुलिस की तरफ से पूरा मौका दिया जाता है कि वह अग्रिम ज़मानत ले ले. तीन-तीन महीने चार्जशीट ही दाखिल नहीं होती और आरोपी को ज़मानत मिल जाती है. परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की तो बात ही न कीजिये. सामान्य जांच पड़ताल में ही इतनी गलतियां करते हैं कि आरोपी के खिलाफ सबूत ही नहीं बचते. डॉक्टर मेडिकल ठीक से नहीं बनाते. गवाहों को पक्षद्रोही बना दिया जाता है, बयानों में इतना विरोधाभास पैदा कर दिया जाता है कि उनका कोई मतलब ही नहीं रह जाता. सब के सब ‘बेनिफिट आफ डाउट’ के चलते बरी कर दिए जाते हैं. और यह सब इसलिए क्योंकि ज्यादातर मामलों में अपराधी किसी बड़े ठाकुर या अमीर जमीदार का बेटा-भतीजा होता है’, शुक्ला कहते हैं. पर दमोह जिले के पुलिस अधीक्षक डीके आर्य शुक्ला की बातों से जरा भी सहमत नहीं. वे मानते हैं कि पुलिस पूरी मुस्तैदी से अपना काम कर रही है, ‘यह बात सच है कि लड़कियों को बलात्कार के बाद जला दिए जाने की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है पर उसके कई दूसरे सामाजिक-आर्थिक कारण हैं. पुलिस के काम में कोई कमी नहीं है. हम अपनी जांच-पड़ताल उचित तरीके से करते हैं.’

वहीं राज्य में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की अध्यक्ष संध्या शैली का मानना है कि बुंदेलखंड में औरतों की इस बदतर स्थिति के लिए पूरी तरह से सरकार और ठप पड़ा पुलिस प्रशासन जिम्मेदार है. वे कहती हैं, ‘असल में बुदेलखंड में राजनीतिक भ्रष्टाचार, ठप पुलिस प्रशासन और उदासीनता की हदें पार करने वाली नौकरशाही की तिकड़ी काम कर रही है. न वहां शिक्षा है और न रोज़गार के साधन. वहां का समाज दो हिस्सों में बंटा है, बहुत ज्यादा अमीर और बहुत ज्यादा गरीब. इन जिलों का महिला लिंग अनुपात भी बहुत कम है. जाहिर है, जब प्रशासन सोता रहेगा तो दबंग जमींदार गरीब औरतों को अपने पैरों की धूल समझ कर जलाते ही रहेंगे.’ यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि पूरे भारत में महिलाओं के खिलाफ सबसे ज्यादा अपराध दर्ज करने वाले इस प्रदेश में महिला आयोग के अध्यक्ष का दफ्तर पिछले 6 महीनों से सूना है.

दमोह में लंबे समय तक काम कर चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर तहलका से अपने विचार साझा करते हुए कहते हैं कि बुंदेलखंड ऐतिहासिक रूप से रियासती और सामंती इलाका रहा है. सामाजिक विषमता बहुत ज्यादा होने के साथ-साथ यहां औद्योगीकरण और रोजगार के अवसर बिलकुल भी नहीं हैं. ‘यहां के सामाजिक पिछड़ेपन का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यहां यातायात के साधन तक नहीं हैं. छतरपुर में खजुराहो के पास अभी-अभी रेल लाइन डाली है. यहां के परंपरावादी समाज में जाति वैमनस्य भी बहुत ज्यादा है. आप खुद ही देखिए कि भैया राजा से लेकर आशा रानी और जीतेंद्र सिंह बुंदेला जैसे आपराधिक छवि वाले लोग यहां के बड़े नेता हैं. यहां के राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह गुंडों का राज है. इसी राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से पुलिस भी निरंकुश हो गई है.’

राज्य में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों की पुलिस महानिरीक्षक अरुणा मोहन राव तहलका को बताती हैं कि कई बार पुलिस हिंसा की शुरुआती घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती. ‘आम तौर पर पुलिस महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं होती जितना होने की जरुरत है. यह प्रवृत्ति जिला और ब्लाक स्तर के थानों में और अधिक देखने को मिलती है. अगर शुरुआती अपराधों, जैसे बलात्कार, के बाद ही अपराधी को पकड़ लिया जाए तो कई लड़कियों की जानें बचाई जा सकती हैं. हम इस दिशा में लगातार प्रयास कर रहे हैं और जल्दी ही बेहतर नतीजों की उम्मीद करते हैं’ वे कहती हैं.

अरुणा कम से कम पुलिस की लापरवाही को स्वीकार तो करती हैं. प्रमुख  गृह सचिव, अशोक दास इन घटनाओं पर आश्चर्य जाहिर करते हुए कहते हैं, ‘आप जो कह रही हैं, वह बहुत खतरनाक है. मैं मालूम करता हूं, इस पर तुरंत कार्रवाई की जाएगी. वैसे राज्य सरकार इस तरह के जघन्य अपराधों से निपटने के लिए एक खास तरह का तंत्र विकसित कर रही है. इसके तहत हर जिले में एक “सनसनीखेज और जघन्य अपराध सेल” बनाया गया है. इस सेल की समिति में जिला कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और जिला न्यायाधीश, सब शामिल होंगे. इस सेल में इसी तरह के जघन्य अपराधों को दर्ज किया जायेगा और उनकी फास्ट ट्रैक जांच और सुनवाई होगी. मुख्यमंत्री खुद इस सेल का तिमाही निरीक्षण करेंगे.’ पर राजधानी के इन प्रमुख अधिकारियों को शायद यह अंदाजा नहीं है कि जिला स्तर पर किसी को भी इस तरह की किसी योजना के बारे में पता ही नहीं है.

बुंदेली लोक गीतों में डूबा बुंदेलखंड आज भी पुरातन हर्ष और भय के भावों में जकड़ा हुआ है. गावं के लोग मानते हैं कि औरतें मर्यादा को लांघ रही हैं, इसलिए जलाई जा रही हैं. पर परंपराओं के पैरोकार यह भूल रहे हैं कि वे मानवता की सीमाओं को लांघ रहे हैं. बदलते सामाजिक प्रतिमानों की तुलना में यहां का समाज उजाड़ बंजर भूमि सा कठोर बना हुआ है. अपने एक प्रसिद्ध वक्तव्य में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी भी समाज में अच्छाई और मानवता की स्थिति का अंदाजा इस बात से ही हो जाता है कि वह समाज अपनी स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार करता है. गांधी के ग्राम राज्य में, राम राज्य के प्रकाश में और दिन के उजाले में लड़कियां जलाई जा रही हैं. सरकार, प्रशासन और न्याय…..रात सी गहरी नींद में सोया हुआ है.

01 : ‘किसी ने हमारी मोड़ी को हाथ न लगाया. हम्हीं उसे लेकर अस्पताल गए’

अपनी फूल-सी बच्ची की मौत के निशान गेंदाबाई गोंड ने आज तक अपनी जर्जर झोपड़ी की दीवार से नहीं मिटाए. दीवार पर जमी काली राख और धुएं के ये निशान दिखाते हुए उनके हाथ कांपने लगते हैं. लड़खड़ाती आवाज में वे कहती हैं, ‘जहीं पर जलाया था उसे. मिट्टी का तेल डालकर मारी मोड़ी को जला दिया बा ने’. कहते-कहते उनकी आंखों के कोर भीग जाते हैं और फिर वे रोने लगती हैं.

20 मार्च, 2010 की तारीख गेंदाबाई के लिए जिंदगी भर तकलीफ देने वाला एक घाव बन गई है. इसी दिन उनकी बड़ी बेटी लीलाबाई उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गई. गांव के ही एक युवक गोविंद सिंह ठाकुर ने बलात्कार की कोशिश के बाद उसे जलाकर मार डाला.

गेंदाबाई गोंड की छोटी-सी झोपड़ी दमोह जिले के बटियागढ़ थाने की सडारा ग्राम पंचायत में है. वे और उनके पति चंदू आदिवासी भूमिहीन मजदूर हैं. 14 साल की लीलाबाई की हत्या के बाद उनके परिवार में अब दो बेटे और एक बेटी है. वे बताती हैं, ‘पिछले साल चैत का महीना चल रहा था, सोमवार का दिन था. शाम के पांच बज रहे थे. मैं और लीला के बापू खेतों में कटाई कर रहे थे कि तभी गोलू चिल्लाते हुए आया. वह कह रहा था कि तुम्हारी मोड़ी को जला दिया, लीला को जला दिया. मैं और लीला के बापू भागे-भागे घर पहुंचे तो देखा कि मेरी लड़की आंगन में जली पड़ी थी, छटपटा रही थी.’

अपनी लाड़ली को आग में झुलसा देखकर एक पल को गेंदाबाई बेहोश हो गई थीं. वे बताती हैं, ‘फिर मैंने खुद को संभाला और लड़की को गोद में सुलाया. उसके बापू ने मुन्ना सरपंच को बताया और उसी की गाड़ी में हम तुरंत अस्पताल दौड़े. पूरा गांव इकठ्ठा हो गया था पर किसी ने हमारी मोड़ी को हाथ न लगाया. हम दोई उसे लेकर अस्पताल गए.’

दमोह जिला अस्पताल में कुछ घंटों तक लीलाबाई 95 फीसदी जल चुके अपने शरीर के साथ मौत से लड़ती रही. 21 मार्च को रात आठ बजे उसकी सांसों ने जवाब दे दिया. जिंदगी के आखिरी घंटों में गेंदाबाई अपनी बेटी को सीने से चिपकाए अस्पताल में बैठी रहीं. वे बताती हैं कि उनकी बेटी ने मरने से पहले चिल्ला-चिल्ला सबके सामने कहा था कि दरोगा के बेटे गोविंद सिंह ठाकुर ने उसके साथ जबर्दस्ती की और उसे मिट्टी का तेल डालकर जला दिया. वे कहती हैं, ‘वो लड़का न जाने क्यों मेरी मोड़ी के पीछे पड़ा था. उस दिन जब हम खेत पर गए थे, तब वह जबर्दस्ती हमारे घर में घुस आया. लीला ने मरने से पहले डाक्टरों और अधिकारियों, सबके सामने कई बार कहा कि गोविंद उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ उसे घर में ले गया और उसके साथ जबरजस्ती करने लगा. जब मोड़ी ने खुद को छुड़ाने की कोशिश में हाथ-पांव मारना शुरू किए तो उसे गुस्सा आ गया. उसने मिट्टी के तेल से भरी कुप्पी मेरी लड़की पर उड़ेल दी और उसे माचिस लगाकर भाग गया. मोड़ी जल गयी…मारी मोड़ी जल गयी.’

स्थानीय थाना बटियागड़ में मामला दर्ज होने के तीन महीने बाद किसी तरह आरोपित को गिरफ्तार तो किया गया पर एक साल बीतने के बाद भी अदालत में सुनवाई शुरू नहीं हुई है. थाने में मौजूद इकलौते अधिकारी नरेंद्र तिवारी यही बता पाते हैं कि गोविंद सिंह ठाकुर पर कौन-सी धाराओं में मामला दर्ज हुआ है. तफ्तीश की कछुआ चाल के सवाल पर अलसाए और उनींदे-से थाना पुलिसकर्मी सारा दारोमदार अपने बड़े अधिकारियों पर डालते हुए कहते हैं, ‘मैडम, एसटी/एससी वाले केसों की जांच तो बड़े अधिकारी ही करते हैं. हमें इस मामले में ज़्यादा जानकारी नहीं है.’

गेंदाबाई का कहना है कि पुलिस एक बार भी उनके घर जांच करने नहीं आई. मौत से पूर्व लीलाबाई के अहम बयान की प्रति तो दूर की बात है, पीड़ित परिवार के पास मामले की एफआईआर की प्रति तक नहीं है. गेंदाबाई और उनके पति को यह भी पता नहीं कि सरकारी वकील कौन है, कोई है भी या नहीं. वे कहती हैं, ‘एक भी बार हमारी पेशी नहीं हुई. हमें तो कुछ नहीं पता कि कचहरी में क्या चल रहा है. लीला के बापू तो मजूरी करने के लिए बाहर रहते हैं. काम नहीं करेंगे तो बच्चों का पेट कैसे पालेंगे? क्या बताएं साहिब, वो पैसे वाले ताकतवर लोग हैं. हम गरीबों की कौन सुनेगा? डर है मेरी लड़की को मारने के बाद भी वो छूट जाएगा.’

जब पुलिस का जांच दल मौका-ए-वारदात पर गया ही नहीं तो परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का क्या हाल होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है. लचर प्रशासन और पुलिस के मनमाने उदासीन रवैये की वजह से बुंदेलखंड के इन पिछड़े इलाकों में कई अशिक्षित और गरीब आदिवासी परिवारों को कभी न्याय नहीं मिल पाता. हम जब गेंदाबाई से विदा लेते है तो अचानक दुनिया की सारी संकल्प शक्ति अपनी आंखों में समेटते हुए वे कहती हैं, ‘मैंने अपनी लड़की की शादी के लिए पीतल की बड़ी परात खरीदी थी. उसकी शादी तो सपना ही रह गई. पर हम हार नहीं मानेंगे. कुछ भी करेंगे, कर्जा लेंगे, मजूरी करेंगे…पर केस ज़रूर लड़ेंगे. मैं उसके हत्यारे को सजा दिलाए बिना नहीं मरूंगी.’

 02 : ‘मम्मी पानी पिला दो. मम्मी हमें चार जनन ने जला दिया’

‘मैं और संध्या के बापू खेत से घर लौट रहे थे. हम गांव में घुस ही रहे थे कि रास्ते में मीना बढ़ई ने चिल्लाते हुए बताया – संध्या जल गई, संध्या जल गई. हम दोनों दौड़ते हुए घर पहुंचे तो देखा कि हमारी मोड़ी आंगन में पड़ी-पड़ी तड़प रही थी, पूरी जल चुकी थी. मुझसे बार-बार एक ही बात कह रही थी, ‘मम्मी, पानी पिला दो. मम्मी, हमें चार जनन ने जला दिया. मम्मी पानी पिला दो, मम्मी हमें चार जनन ने जला दिया’ कहते कहते रमादेवी रिछारिया दहाड़ें मार-मार कर रोने लगती हैं. उनकी 18 वर्षीया बेटी संध्या रिछारिया को उनके पड़ोस में रहने वाले चार लड़कों ने 4 मार्च, 2010 को बलात्कार के प्रयास के बाद मिट्टी का तेल डालकर जला दिया था. बलात्कार के बाद लड़कियों को जलाने के हालिया मामलों में यह एकमात्र ऐसा मामला है जिसमें निचली अदालत ने फैसला सुना कर सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया है.

संध्या छतरपुर जिले के हमा गांव में अपने माता-पिता और दो भाई-बहनों के साथ रहती थी. पांचवी कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद उसने स्कूल छोड़ दिया और घर के कामों में मां का हाथ बंटाने लगी. संध्या के पिता सूरजपाल रिछारिया और मां मजदूरी करके अपना परिवार चलाते हैं. उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने बच्चों के रहने के लिए एक कच्चा घर बनाया था. गांव में ज़्यादातर घर राजपूतों के हैं और संध्या का परिवार गांव के मुट्ठी भर ब्राह्मण परिवारों में से एक है. संध्या के घर के ठीक सामने चंद्रपाल नायक का परिवार रहता है. नायक परिवार अपने बेटे से संध्या की शादी के लिए सूरजपाल पर दबाव बना रहा था. ‘वो हमसे पांच महीनों से कह रहे थे कि तुम लोग अपनी लड़की की शादी हमारे लड़के दीपक से कर दो जबकि हम उसकी शादी अलीपुरा के चौबे परिवार में तय कर चुके थे’ संध्या की मां कहती हैं, ‘चंद्रपाल अकसर कहता था कि अपनी लड़की की शादी हमारे लड़के से कर दो, वरना किसी के साथ भाग जाएगी और गांव की बदनामी हो जाएगी.’

इसी बात पर संध्या की हत्या के कुछ दिन पहले ही, संध्या के पिता का चन्द्रपाल से झगड़ा भी हो गया था. ‘हमने साफ मना कर दिया. हम अपनी बेटी की शादी अपने कुल के ही किसी अच्छे घर में करना चाहते थे. यही बात उनको बुरी लग गयी’, रमादेवी आगे बताती हैं. संध्या के परिवार को आशंका तो थी कि इस झगड़े से नाराज होकर चंद्रपाल कुछ करेगा पर उनकी बेटी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी.

4 मार्च, 2010 को रमादेवी संध्या को घर पर अकेला छोड़ अपने पति के साथ मजदूरी करने खेत पर गई थीं. लगभग शाम चार बजे, संध्या घर के पीछे वाले कमरे में खटिया पर आराम कर रही थी. तभी आंगन की दीवार फांद कर चार लोग उसके घर में घुस आए और उसके साथ बलात्कार का प्रयास किया. ‘पहले तो उन्होंने मेरी लड़की के साथ जबरजस्ती करी और जब उसने विरोध किया तो उसे हमारे ही घर के एक स्टूल पर बैठा दिया. दो लोगों ने उसे पकड़ा, तीसरे ने मिट्टी का तेल डाला और चौथे ने माचिस से उसे जला दिया. संध्या ने चिल्ला चिल्लाकर चारों के नाम सबको बताए. उसने कहा था कि उसे दीपक, रमाकांत, अशोक और हीरालाल ने जला दिया. पर फिर भी सबको छोड़ दिया साहेब.’ दर्द भरी आवाज में रमादेवी बताती हैं. दीपक के अलावा बाकी तीनों आरोपित भी चंद्रपाल नायक के ही रिश्तेदार हैं. घटना की खबर मिलते ही संध्या के माता-पिता उसे छतरपुर जिला अस्पताल ले गए. वहां तहसीलदार, टाउन इंस्पेक्टर और डॉक्टरों ने उसके बयान लिए. संध्या ने अपने मृत्यु पूर्व बयान में चारों अभियुक्तों के नाम लेकर दस्तखत भी किए थे.

छतरपुर जिला अदालत ने दीपक,अशोक और हीरालाल को ‘संदेह का लाभ’ देते हुए बरी कर दिया जबकि चौथा आरोपित रमाकांत आज तक फरार है. असल में संध्या के बयान में जिला अस्पताल के डॉक्टर ने यह टीप नहीं लगाई थी कि संध्या बयान देने के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ है या नहीं. इसलिए कोर्ट ने उसे वैध मानने से इनकार कर दिया. रमादेवी के अनुसार पुलिस और डॉक्टरों ने उनकी बेटी के बयान को गंभीरता से लिया ही नहीं. ‘वो सब वहीं खड़े थे और मेरी लड़की चिल्ला-चिल्ला के कह रही थी कि उसे किसने जलाया. पर न तो पुलिस ने ध्यान दिया और न डाक्टरों ने. सब पैसे का कमाल है. हमारे गवाह भी अदालत में पेश नहीं होने दिए गए. सिर्फ उन्हीं के गवाह आए. वो बहुत पैसे वाले लोग है इसलिए डाक्टर, पुलिस , वकील…सब उन्ही के हाथ में है.’ एडिशनल सेशन जज पीके शर्मा का निर्णय पढ़ने पर मालूम होता है कि पुलिस ने जांच और उसके दस्तावेजीकरण में कई गलतियां कीं, जैसे मृत्युपूर्व बयान जैसे निर्णायक सबूत को सावधानी से नहीं बनवाना. डॉक्टरों के पक्ष की भी कई विरोधाभासी बातें इस निर्णय से पता चलती हैं. अस्पताल प्रभारी डॉक्टर लखन तिवारी ने संध्या का कथन लेते समय उसकी मानसिक स्थिति पर नोट नहीं लगाया था. इसी वजह से कोर्ट में विरोधी पक्ष ने यह साबित कर दिया कि संध्या सौ प्रतिशत जल चुकी थी और ‘डेलेरियम’ की स्थिति में थी. इस स्थिति में रक्त का सीरम जलकर बाहर आ जाता है और दिमाग तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती. ऐसे में मरीज अपने पूरे होश में नहीं रहता. इसीलिए ऐसी मानसिक अवस्था में दिए गए बयान को मान्य नहीं किया जा सकता.

अदालत से अपनी बेटी को न्याय न दिलवा पाने के बाद, अब रमादेवी की निराशा की कोई सीमा नहीं है. ‘पहले उसे जला दिया और फिर उसके बयान को इसलिए नहीं माना, क्यूंकि वह जल चुकी थी? यह कहां का इंसाफ हुआ. जिसने हमारी बेटी को मारा, वो हमारे सामने ही रहता है. हम गरीब लोग क्या कर सकते हैं? दूसरे बच्चों के लिए भी डर लगता है की कहीं उन्हें भी न मार डालें ये लोग’ निराशा और दुख में डूबी रमादेवी तहलका को बताती हैं.

उधर गांव वाले उनके परिवार का हुक्का पानी बंद करने की धमकी देते हैं. ‘वो कहते हैं कि हम पर हत्या लग गई है. जब तक अपनी बेटी के नाम पर सारे गांव को खाना नहीं खिलाएंगे, हम उनके साथ उठ-बैठ नहीं सकते.’ अदालत की पेचीदगियां रमादेवी की समझ से परे हैं. मगर वे यह नहीं समझ पा रही हैं कि आखिर कैसे उनकी बेटी को जलाने वाले बाहर घूम रहे हैं और वे पीड़ित होकर भी समाज से बहिष्कृत हैं.

03 : ‘पूरा गांव राजीनामा करवाने पर जोर दे रहा है’

करीब छह महीने पहले तक दमोह की नोहाटा तहसील स्थित मुग्दापुरा गांव के नौनिलाल पटेल, आम लोगों की तरह हंसते-मुस्कुराते थे. लेकिन 19 अक्टूबर, 2010 की सुबह उनकी भूरी आंखों वाली मासूम बच्ची वसुंधरा को उसी के गांव के पांच लोगों ने मिट्टी का तेल डालकर जला दिया. वजह सिर्फ यह थी कि नौनिलाल अपनी बेटी के साथ हुए बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने घटना की रात को ही उसे लेकर स्थानीय थाने गए थे. उनकी इस ‘जुर्रत’ से गुस्साया बलात्कार का आरोपित सौरभ पटेल, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उनके घर जा पहुंचा और वसुंधरा को आग के हवाले कर दिया. तब से नौनिलाल मुस्कुराना भूल गए हैं. वे कहते हैं, ‘पूरा गांव राजीनामा करवाने पर जोर दे रहा है. हमारी बच्ची के साथ खराब काम किया. उसे हमारे ही घर में जला दिया. वे बड़े लोग हैं. उनकी भोपाल तक में बहुत पहुंच है इसलिए सारा गांव उन्हीं के साथ है.’

17 वर्षीया वसुंधरा, नौनिलाल की इकलौती बेटी थी और वे उसके भविष्य के लिए बड़े सपने देख रहे थे. बुंदेलखंड के एक पिछड़े गांव में रहते हुए भी उन्होंने वसुंधरा का दाखिला गांव से सात किलोमीटर दूर स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवाया था. वसुंधरा होनहार थी. नौनिलाल नहीं चाहते थे कि उनकी बिटिया सिर्फ लड़की होने की वजह से पीछे रहे. लेकिन परंपराओं के नाम पर चल रही पाशविक सामाजिक प्रवृत्तियों के सामने वसुंधरा और उसका परिवार हार गया.

18 अक्टूबर, 2010 को नौनिलाल के गांव में भंडारा था. गांव के ज्यादातर लोग भंडारे में व्यस्त थे. त्योहार की वजह से वसुंधरा के स्कूल की भी छुट्टी थी. शाम करीब पांच बजे वह अपने घर के सामने वाले अरहर के खेत की तरफ टहलने के लिए निकली थी. तभी सौरभ पटेल ने उसे अकेला पाकर उसके साथ बलात्कार किया. वसुंधरा की मां ज्ञानवती बताती हैं, ‘लड़की की चीख-पुकार सुनकर उसका भाई गगन खेतों की ओर दौड़ा. पर तब तक सौरभ भाग निकला. हम लड़की को घर ले आए.’ नौनिलाल कहते हैं, ‘पर मोड़ी चुप ही नहीं हो रही थी. रोए-चिल्लाए जा रही थी. फिर रात करीब आठ बजे हम उसे गाड़ी में बिठाकर तेजगड़ थाने ले गए. पर थानेवालों ने रिपोर्ट लिखने के लिए हमसे 1000 रु मांगे. हमारे पास 300 ही थे सो हमने उन्हें दे दिए. फिर उन्होंने मुझे और मेरे भाई को बाहर बिठा दिया और मेरी रोती लड़की से रात के ढाई बजे तक पूछताछ करी. रिपोर्ट लिखी या नहीं, यह तो पता नहीं पर हम रात ढाई बजे अपनी लड़की को लेकर गांव वापस आ गए.’

पीड़ित परिवार के मुताबिक रात को ही गांव में यह बात फैल गई थी कि वसुंधरा के बापू पुलिस में रिपोर्ट करने गए हैं. सिसकियों के साथ वसुंधरा की मां ज्ञानवती बताती हैं, ‘सौरभ पटेल का परिवार बहुत संपन्न और शक्तिशाली है. उन्हें यह बात गवारा नहीं हुई होगी कि कोई उनके लड़के की शिकायत दर्ज कराने जाए. अगले दिन लगभग सुबह सात बजे की बात है. मैं खेत पर गई थी और वसुंधरा के बापू दालान में बैठे थे. लड़की भीतर थी. तभी सौरभ अपने परिवार के चार अन्य लोगों के साथ बीच वाले दरवाज़े से घुसकर अंदर आया और मेरी लड़की का मुंह दबाकर उस पर मिट्टी का तेल डाल दिया. फिर उस पर आग लगाकर वे लोग भाग गए. जब तक हम लोग पहुंचे, मोड़ी बहुत जल गई थी.’

अपनी तड़पती बच्ची को लेकर वसुंधरा के माता-पिता सीधा दमोह जिला अस्पताल पहुंचे. जिले के पुलिस अधीक्षक और स्थानीय मीडियाकर्मी भी सूचना मिलने पर अस्पताल पहुंचे. पर तब तक वसुंधरा की हालत बिगड़ चुकी थी. वह 95 फीसदी से भी अधिक जल चुकी थी. मौत से पहले उसने बयान दिया और उस पर दस्तखत भी किए. ज्ञानवती कहती हैं, ‘उसने नाम भी गिनवाए थे. नन्नू, पुरुषोत्तम, सीताराम, टीकाराम और सौरभ पटेल. उसने पुलिस वाले साहेब को भी बताया था कि इन पांचों ने उस पर मिट्टी का तेल डाला और उसे जला दिया. मीडियावालों ने भी देखा. फिर भी आज तक उन लोगों को सजा नहीं हुई.’

जिला अस्पताल से तुरंत वसुंधरा को जबलपुर रेफर कर दिया गया, पर उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. घटना के लगभग 45 दिन बाद पुलिस ने पांच में से चार मुख्य आरोपितों को गिरफ्तार तो कर लिया पर उन्हें ज्यादा दिन जेल में नहीं रख सकी. नन्नू पटेल जमानत पर रिहा हो चुका है. दो अन्य आरोपितों की भी जमानत होने वाली है जबकि मुख्य आरोपित सौरभ पटेल का मामा टीकाराम, आज भी फरार है. सुनवाई शुरू होने से पहले ही आरोपित को जमानत मिल जाने से वसुंधरा के परिवार की निराशा और बढ़ गई है. नौनिलाल कहते हैं, ‘उसके परिवारवाले हमसे बार-बार कहते हैं कि केस वापस ले लो. हम तो करोड़ों रु खर्च करके भी सबको बचा ले जाएंगे. बोलते हैं कि सागवान के ट्रक में लदवाकर तुझे भी जंगल में मरवा देंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. मेरा एक लड़का बचा है, उसे भी मारने की धमकी देते हैं. उनके पास  पैसा और ताकत है. पुलिस, प्रशासन, डाक्टर और न्याय, सब उन्हीं के पक्ष में हैं.’

अदालत में जारी मामले के बारे में नौनिलाल पटेल और उसके परिवार को ज्यादा जानकारी नहीं है. पुलिस ने पीड़ित परिवार को एफआईआर की एक प्रति देने की भी जहमत नहीं उठाई. मौत से पूर्व दिए गए बयान की प्रति तो दूर की बात है. स्थानीय थाने में मामले पर बात करने के लिए कोई अधिकारी मौजूद नहीं था. बहुत पूछताछ करने पर तेजगड़ थाने के एक सिपाही ने एफआईआर की प्रति दिखाई. आरोपित इतनी देर से क्यों पकड़े गए, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का क्या हुआ, इन सवालों के जवाब पुलिस के पास नहीं हंै.

वसुंधरा पटेल हत्याकांड के सरकारी वकील को ढूंढ़ने पर देवी सिंह का नाम सामने आया. उनसे जानकारी मिली कि एडिशनल सेशन जज की अदालत में मामला लंबित है. वे कहते हैं, ‘अभी चार्जशीट कमिट करी जाएगी और फिर आरोप पर बहस के बाद आरोप की धाराएं तय होंगी. तब केस आगे बढे़गा.’ सिंह  का मानना है कि ऐसे मामलों में अकसर पैसे या सामाजिक दबाव के कारण गवाह बयान से मुकर जाते हैं. टूट चुकी उम्मीदों का अंधेरा आंखों में लिए वसुंधरा के माता-पिता कहते हैं कि वे आगे केस नहीं लड़ेंगे. ज्ञानवती कहती हैं, ‘बस फैसला हो जाए. हम वैसे ही बहुत परेशान हैं. एक तो हमारी पाली-पोसी लड़की को जलाकर मार डाला और अब बेटे को भी मारने की धमकियां मिलती हैं. हम किसके लिए लड़ें? फैसला तो उन्हीं के पक्ष में हो रहा है जिनके पास पैसा और ताकत है. गरीबों के बच्चों तो ऐसे ही जलाकर मार दिए जाते हैं.’

04 : ‘आरोपित रिहा होने लगे तो लड़की की मां भी अपना दिमागी संतुलन खो बैठी’

अप्रैल की एक गर्म दोपहर में मई-जून सा तपता, दमोह जिले की नोहाटा तहसील में बसा ‘छोटी बडाऊ’ गांव. पहली नजर की तहकीकात से ही पता लग जाता है कि जिस तरह इस गांव की जमीन पर सूखे की वजह से दरारें पड़ गई हैं, ठीक उसी तरह यहां के समाज में भी सामंतवाद की गहरी दरारें मौजूद हैं. खुश्क चेहरे वाले यहां के ज्यादातर गांववालों का दिल अपने पड़ोस में जलाई गई एक लड़की के प्रति सूखी जमीन की तरह कठोर है.

गांव से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर एक उजाड़ झोपड़ी है जिसका पता बताने को गांववाले तैयार ही नहीं. इस झोपड़ी के दरवाजे को ईंटों और पत्थरों से ढक दिया गया है. कुंडे पर एक मोटा ताला भी जड़ा है. यह घर रविता उर्फ फरजाना का है जिसकी मौत जलने की वजह से हुई थी. 26 सितंबर, 2009 को रविता को उसी के घर में उसी के रिश्तेदारों ने मिट्टी का तेल डाल कर जला दिया.

17 साल की रविता अपने पिता सलीम उर्फ़ मुन्ना और मां तुलाई की अकेली संतान थी. रविता की मौत के कुछ ही दिन बाद उसके पिता अपनी बच्ची के गम में गुज़र गए. इसके बाद उसकी मां पागल हो गई. अब वह सड़कों पर भीख मांगती है. गांव के लोग इस हादसे को लगभग भूल चुके हैं. आश्चर्य की बात है कि गांव की एकमात्र मस्जिद में मौजूद तमाम लोगों में से किसी को भी अपने ही गांव में हुई एक मुसलमान बच्ची की हत्या की घटना याद नहीं. वहां मौजूद एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘हमें तो ऐसी कोई रविता या फरजाना याद नहीं पड़ती. आप आगे की दुकान पर पूछ लीजिए.’

थोड़ा भटकने पर घर का पता चल जाता है. थोड़ी मेहनत पड़ोसियों को बात करने के लिए राजी करने के लिए भी करनी पड़ती है. रविता के पड़ोसी राम सिंह लोधी बताते हैं, ‘कोई झगड़ा और मार-पीट हुई थी इनके घर. फिर लड़की जल गई और अगले ही दिन उसने दम तोड़ दिया. पर उसे किसने जलाया, ये हमें नहीं पता’. पास में रहने वाले मुन्ना सिंह बताते हैं कि इस घटना के बाद पूरा परिवार उजड़ गया. बड़ा खुशहाल परिवार था. पर रविता को जलाकर मार दिया गया. पिता तो लड़की के गम में पहले ही मर गया था. जब आरोपित रिहा होने लगे तो लड़की की मां भी अपना मानसिक संतुलन खो बैठी. घर पर ताला पड़ गया और उसकी मां ने गांव छोड़ दिया. हमने कई बार उसे पास के कस्बों में भीख मांगते देखा है.’ रविता के घर के पुराने टूटे दरवाजे पर करीने से रखी ईंटों को देखकर महसूस होता है जैसे आहिस्ता-अहिस्ता, ईंट-दर-ईंट इस हत्याकांड की सच्चाई को छिपाया गया हो और एक खुशहाल परिवार को अपने ही समाज की चुप्पी ने बर्बाद कर दिया हो.

रविता की हत्या कैसे हुई, यह गुत्थी आज तक पुलिस भी सुलझा नहीं पाई है. स्थानीय नोहटा थाने के टाउन इंस्पेक्टर केसी तिवारी तहलका को बताते हैं कि रविता का उसकी चची जिंदी के साथ झगड़ा हुआ था. इसी झगडे़ में रविता और उसके चाचा मुनीर के परिवार के बीच मारपीट हुई. ‘रविता की मौत जलने की वजह से हुई थी. उसकी मां का आरोप था कि रविता को उसके चाचा मुनीर, चाची जिंदी और चचेरे भाइयों (इकबाल और शाहिद अली) ने मिलकर जलाया है. रविता ने अपने मृत्युपूर्व बयान में भी यह कहा था कि उसके इन चार रिश्तेदारों ने उसे जलाया. पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 323, 302 और 34 के तहत मामला दर्ज कर लिया था. पर रविता की मां के आरोप को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे. इसीलिए चार में से तीन आरोपित बरी हो गए जबकि चौथे पर सुनवाई चल रही है’, तिवारी कहते हैं.

सबूत होते भी कैसे जब पुलिस का मानना है कि रविता ने स्वयं अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर खुद को आग लगाई थी. कारण पूछने पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एक बड़ा ही अतार्किक-सा जवाब देते हैं, ‘पहले की महिलाएं अलग थीं. आज कल की लड़कियों में जरा भी सहन शक्ति नहीं है. जरा कुछ हुआ नहीं कि गुस्से में खुद को आग लगा लेती हैं. अरे, औरतों को तो समुंदर की तरह सहनशील होना चाहिए. पर खैर, उन्हें प्रताडि़त तो किया ही जाता है.’

इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है. स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है  कि रविता की हत्या की गई थी. एक स्थानीय पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं कि घटना वाले दिन रविता की मां और रविता चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थीं कि उसके रिश्तेदारों ने ही उसे जलाया है. ‘मैंने तो खुद इस केस को कवर किया था. ज्यादातर मामलों में आदमी मरने से पहले झूठ नहीं बोलता है. अगर हम एक पल को पुलिस की यह बात मान भी लें कि रविता ने आत्महत्या की थी तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया. असल में स्थानीय पुलिस प्रशासन औरतों को जलाकर मार दिए जाने की ऐसी घटनाओं को छिपाना चाहता है. इसलिए हत्या को आत्महत्या में बदलकर दिखा देना सबसे आसान रास्ता है.’ रविता की हत्या की गुत्थी आज तक सुलझ नहीं पाई है. उसके पिता अपनी बेटी की बर्बर मृत्यु के सदमे को सह नहीं पाए और मां सड़कों पर एक पागल भिखारी की तरह घूम रही है. उसकी मां ने जिन लोगों को अपनी बेटी की हत्या का दोषी ठहराया था, सभी एक-एक कर छूट गए. और एक खुशहाल परिवार अपनी ही जमीन पर खत्म हो गया.

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साल 2009 से 2010 के बीच लड़कियों को जलाने के कुछ मामले

• 11 जुलाई, 2009 को दमोह जिले के पिटराऊधा गांव (थाना हाटा) में एक पुजारी ने एक महिला से बलात्कार करके उसे जिंदा जलाया.
• 26 जून, 2009 को दमोह जिले के छोटी बडाऊ गांव में रविता उर्फ़ फरजाना को संदिग्ध परिस्थितियों में जिंदा जलाया गया.
• 18 अगस्त, 2009 को दमोह जिले के कुम्भारी गांव (थाना मंझौली) में कल्पना नामक लड़की को जिंदा जलाया गया.
• 18 सितम्बर, 2009 को दमोह जिले के छपवारा गांव (थाना नोहटा) में गेंदा बाई नामक महिला को बलात्कार के बाद जिंदा जलाया गया.
• 3 मार्च, 2010 को दमोह जिले के रसीलपुर थाने क्षेत्र में देवी बाई नामक महिला को जिंदा जलाया गया.
• 20 मार्च, 2010 को दमोह जिले के सडारा गांव (थाना बटियागढ़) में लीलाबाई को बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जलाया गया.
• 19 अक्टूबर, 2010 को दमोह जिले के मुग्दापुरा गांव (तहसील नोहटा) में वसुंधरा पटेल को बलात्कार के बाद जलाया गया.
• 19 अक्टूबर, 2010 को दमोह जिले के कुम्भारी गांव (थाना पटेरा) में एक महिला को बलात्कार के बाद जिंदा जलाया गया.
• 26 नवम्बर, 2010 को दमोह जिले के चिरौला गांव (थाना पटेरा ) में तुलसी बाई लोधी को जिंदा जलाया गया.
• 4 मार्च, 2010 को छतरपुर जिले के हमा गांव (थाना ओरछा रोड) में संध्या रिछारिया को बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जलाया गया.

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