प्रियंका गांधी आज कांग्रेस की जरूरत हैं. और मजबूरी भी. जरूरत वे कई सालों से थीं, खासकर उन सालों में जब राहुल गांधी हर फ्रंट पर असफलता की तहरीर लिख रहे थे. लेकिन राहुल के प्रति उनकी मां की आसक्ति, कांग्रेसियों की अंधभक्ति और पार्टी द्वारा एक कमजोर नेता को क्षितिज पर टांगने की लगातार आत्ममुग्ध कोशिशों के बीच अब कहीं कोई जंग लगी कील भी नहीं बची जिसपर टंगकर राजकुंवर गांधी चकमक-चकमक चमक सकें. तो अब 127 साल पुराने गर्व से फूली कांग्रेस इस कड़वे यथार्थ को स्वीकार कर प्रियंका को राहुल से आगे खड़ा करने की कोशिश कर सकती है. प्रियंका गांधी को आगे लाने की मजबूरी अगर पार्टी ने अभी भी नहीं समझी तो कांग्रेस सिर्फ 2014 के आम चुनावों की ही नहीं उसके बाद के कई सालों के लिए भी अपनी जमीन बंजर कर लेगी. जैसा कि गांधी परिवार पर लगातार लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘पार्टी के अंदर इस तरह की बातें होना कि प्रियंका को 2019 में आगे लाएंगे, बेमानी है. अगर एक बार कांग्रेस पार्टी टूट गई, उसका बिखराव हो गया तो कोई भी गांधी उसे 2019 में नहीं बचा पाएगा.’
प्रियंका के बड़े भाई राहुल गांधी अब एक असफल नेता हैं, यह स्वीकार करने के लिए 2014 के आम चुनावों का इंतजार नहीं किया जा सकता. उन सालों को गिनना, जब से राहुल गांधी राजनीति में सक्रिय हैं, भी अब पूरी तरह से बेमानी है. मीलों का सफर गिनने में मजा तब आता है जब आप मंजिल की ओर हों. राहुल तो राजनीति के पहाड़गंज की अंधेरी गलियों में दशक भर से भटक रहे हैं. चेहरे की सजावट से सज्जन दिखता यह ‘रिलक्टेंट राजनेता’ कई सालों से सिर्फ एक काम अच्छा कर रहा है. आज जब सभी नेता अर्बन इंडिया से चिपके रहना चाहते हैं, वह गांवों में जाता है, पगडंडियों पर लौटता है. पगडंडियों पर चलना अच्छा है, पर वहां बैठ कर आराम फरमाना कहां का शऊर है. क्या कहीं पहुंचना राहुल के लिए इतना निरर्थक है कि वे हमेशा ‘मैं अभी भी सफर में हूं’ का ही बचाव सभी सवालों के जवाब में सामने रख देते हैं. पब्लिक स्पेस में उनकी राजनीतिक निरर्थकता एक ऐसा ‘कल्ट’ हासिल कर चुकी हैं जिसके बाद अब उनकी जनसभाओं में भीड़ भी नहीं आती, सोशल मीडिया में उनकी हर बात का मजाक उड़ता है, भारत का युवा उन्हें अब सबसे ज्यादा नापसंद करता है, उनका आधे पेज का भी इंटरव्यू कहीं पढ़ने को नहीं मिलता, राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी राय गुप्तकाल के गुप्त दस्तावेजों से बाहर नहीं निकलती, और वे दिल्ली विश्वविद्यालय के विवादित ग्रैजुएशन प्रोग्राम जैसे ‘छोटे’ इश्यू को जानते भी हैं कि नहीं, यह लोग नहीं जानते.
ऐसा नहीं है कि प्रियंका गांधी का आगे आना ‘राजनीति की देवी’ के अवतरित होने जैसी कोई घटना होगी और वे कांग्रेस के सारे पाप धोने के अलावा जनता के भी कष्ट हर लेंगी. अभी तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे एक बेहतर राजनेता भी बनेंगी. लेकिन यह जरूर है कि हर मौसम राजनीति नहीं करने के बावजूद भी वे एक बेहतर जननेता हैं. राहुल गांधी से कई गुना बेहतर. और कांग्रेस को अभी सबसे ज्यादा जरूरत एक कुशल जननेता की ही है जो जनता से संवाद बना सके, क्योंकि पार्टी की मौजूदा लीडरशिप तो सोशल मीडिया नाम के वर्चुअल वर्ल्ड में भी ठीक से संवाद नहीं कर पाती. अमेठी-रायबरेली में प्रियंका का राहुल से ज्यादा प्रसिद्ध होना हो, लोगों की समस्या के प्रति ज्यादा जागरूक और पार्टी कार्यकर्ताओं को परिवार समझना हो या रैलियों में ज्यादा भीड़ खींचना, वे अब कांग्रेस के सत्ता में बने रहने का अकेला ब्रह्मास्त्र हैं. उनकी पार्टी पर और उनके पति पर भले ही कितने भी आरोप हों, उनकी फिर भी एक ईमानदार छवि है. वे समझदार हैं, चेहरे पर निश्छलता है, सुलझी होने का प्रमाण भी है. अच्छी वक्ता हैं और करिश्माई व्यक्तित्व लिए हैं. हाशिए पर धकेल दिए गए कांग्रेस के कई पुराने दिग्गज नेता उन्हें पसंद करते हैं. विपक्ष की उमा भारती और सुषमा स्वराज जानती हैं कि प्रियंका उनका आकर्षण खत्म करने की प्रतिभा रखती हैं. नेता, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रियंका और इंदिरा गांधी के बीच समानता की बातें खुले दिल से करते हैं. और वे नेता, जो चाहते हैं कि आज कांग्रेस देश को इंदिरा जैसा नेतृत्व दे, भी शायद ऐसा कह कर प्रियंका की ही तरफ इशारा करना चाहते हैं. बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक संजीव श्रीवास्तव कहते भी हैं, ‘उनके जैसी करिश्माई और स्वाभाविक नेत्री हमारी राजनीति में कम ही है.’
उधर राहुल गांधी की कांग्रेस में अभी भी कई घाघ कांग्रेसी हैं और वे हमेशा से ऐसे ही रहे हैं. भ्रष्टाचार के प्रति इन कांग्रेसियों की अफीमी लत और टिकट बंटवारे में भी उनका भ्रष्ट होना जितना कांग्रेस का नुकसान करता है उससे ज्यादा राहुल गांधी का इन मुद्दों पर खामोश या उदासीन रहना उनका खुद का नुकसान करता है. सच यह है कि ‘भ्रष्टाचार मुक्त देश’ एक मिथक है. सच्चाई नहीं. दुनिया का कोई भी देश पूरी तरह से भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है और न होगा. न भाजपा सरकारें भ्रष्टाचार मुक्त रहीं हैं न कांग्रेस सरकारें. लेकिन बात कोशिश की है. और राहुल गांधी यह कोशिश करते नहीं हैं. वे सामाजिक संरचना के जोड़ों में भ्रष्टाचार को भरने से नहीं रोकते, बस क्रांतिकारी बातों का कागजी पैरहन पहन अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेते हैं. वे संगठन के तौर-तरीकों को बदलने की क्रांतिकारी बातें तो डेढ-सौ डेसीबल के शोर में करते हैं, लेकिन जब टिकिट बंटवारे की बात आती है तब गहरी जड़ों वाले सभी पुराने कांग्रेसियों को उनका कोटा पहले की तरह ही आसानी से मिल जाता है. और पीछे रह जाती हैं हर प्रदेश में वे कहानियां जिसमें एक फलां नेता या कई नेता अपने बेटे-रिश्तेदारों को टिकिट देकर चुनाव में खड़ा करते हैं, बाकी के टिकिट बेचते हैं, और जब इसकी शिकायत करने कोई सोनिया-राहुल से मिलने दिल्ली जाता है तो राहुल गांधी उन्हें मिलने का वक्त भी नहीं देते हैं.
राहुल के संगठन, उनकी युवा कांग्रेस, उनकी सरकार सभी में 127 साल पुरानी जड़ता है जिसे दूर करने की काव्य में रची-बसी ढेर सारी बातें तो राहुल खूब करते हैं, लेकिन उन्हें दूर नहीं करते. या करने में असफल हो जाते हैं. चार विधानसभा चुनावों में हारने के बाद वे एक छोटी सी मीडिया बाइट में कह तो देते हैं कि ‘आप’ से हमको सीखना चाहिए, लेकिन उसी रात टीवी के पैनल डिस्कशन में उनके सत्यव्रत चतुर्वेदी यह कहना परम आवश्यक मानते हैं कि हमारी संस्कृति में तो पशु-पक्षियों से भी सीखा जाता है. राहुल गांधी चाहते तो वे कांग्रेस को आज की ‘आप’ बना सकते थे. वे चाहते तो उनकी पार्टी में से चुनाव जीतने वालों के नाम राखी बिरला, कमांडो सुरेंद्र सिंह, प्रकाश और संजीव झा हो सकते थे. लेकिन पार्टी और संगठन में युवाओं को आगे लाने के नाम पर राहुल ने अपने जैसे ही विचारधारा वाले सियासी परिवारों से निकल कर आने वाले रईस नौजवानों को ही आगे किया.
आशीष नंदी ने एक बार कहा था, ‘कांग्रेसी नेहरु-गांधी परिवार और उनके वंशवाद को सिर्फ इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि यह परिवार उन्हें वोट दिलवाता है. जिस दिन इसने उन्हें वोट दिलवाना बंद कर दिया उस दिन कांग्रेसी इन्हें भूल जाएंगे.’ राहुल की वोट दिलाने की क्षमता सबके सामने है. ऐसे में प्रियंका ही वह आखिरी बचा गांधी चेहरा है जो अब कांग्रेस को वोट दिला सकता है. रशीद किदवई भी दावा करते हैं, ‘अभी सबसे ज्यादा जरूरत पार्टी को प्रियंका गांधी की ही है. उनके राजनीति में आने का यही सही समय है. अभी कांग्रेस बीमार है और उसकी दवा सिर्फ और सिर्फ प्रियंका है.’ एक वाजिब बात मणिशंकर अय्यर भी करते हैं, ‘फासीवादी ताकतों से लड़ने के लिए देश को प्रियंका की जरूरत है और यह बात वे भी जानती हैं. लेकिन उन्हें खुद तय करना होगा कि वे राजनीति में अभी आना चाहती हैं या नहीं.’
आज जब हिन्दुस्तान ‘मोदीचूर’ के लड्डू खाने के लिए इतना बेचैन है कि उसे मोदी का फासीवादी चेहरा भी याद नहीं रहता, इस देश को एक ऐसी पार्टी और उसका ऐसा मजबूत चेहरा चाहिए जो फासीवादी ताकतों के सामने तगड़ी चुनौती पेश करने की हिम्मत रखता हो. और यह दुखद है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी ‘आप’ वह पार्टी नहीं है. ऐसे में हमें लौटना कांग्रेस पर ही पड़ता है. हालांकि प्रियंका गांधी को आगे लाने की बातें करना है तो वंशवाद को बढ़ावा देना है, लेकिन हमारे देश की राजनीति बरसों से ऐसी ही है. हमें कुछ साधारण विकल्पों में से चुनाव करना पड़ता है. ऐसे में प्रियंका गांधी को भी आजमा लेने में कोई हर्ज नहीं है. अरस्तू ने अपने विख्यात ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स’ में लिखा भी था, ‘जो मुमकिन है लेकिन श्रेष्ठ नहीं, से बेहतर वह नामुमकिन होता है जो श्रेष्ठतर होता है.’ सही लिखा था. प्रियंका वही नामुमकिन हैं.