शाश्वत बदलाव है जड़ता नहीं

यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री कई बार अपनी नीतियों और प्रशासन के स्तर वाली निष्क्रियता को गठबंधन राजनीति के सर पर डाल चुके हैं. विधायी कार्य न होने के लिए संसद के न चलने को और संसद के न चलने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. जिन ममता बनर्जी से नीतिगत निर्णय लेने में सबसे ज्यादा दिक्कतें सरकार को थीं, वे इसे छोड़कर जा चुकी हैं. मगर आगे इस तरह की बातें प्रधानमंत्री या सत्ता-पक्ष से जुड़े लोग नहीं कहेंगे, इसकी उम्मीद न के बराबर है. वजह यह है कि विपक्ष तो वही है ही, इस सरकार को परेशान कर सकने लायक सपा, बसपा, डीएमके और राकांपा जैसे घटक अब भी इसमें हैं. अपनी अनदेखी का आरोप लगातार लगाते रहने वाले विपक्ष के पास बीते सत्र के दौरान जो मुद्दे थे वैसे मुद्दे भी कभी कम नहीं होने वाले. मगर यह केवल इस सरकार का ही सच हो ऐसा भी नहीं है. आगे भी आशंका यही है कि अजीबोगरीब विरोधाभासों वाले गठबंधन आते-जाते रहेंगे और विपक्ष की अनदेखी के आरोप संसद को कुश्ती का अखाड़ा बनाते ही रहेंगे.

सवाल यह उठता है कि पिछले 20-25 साल से आसन्न गठबंधन राजनीति की तथाकथित बुराइयों से निपटने के लिए देश की वर्तमान या पिछली कुछ सरकारों ने किया क्या है? क्यों हम अपने संविधान, कानूनों और संसद आदि के नियमों में थोड़ा ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकते जो सरकार को पूरे कार्यकाल के लिए न सही मगर आधे या इससे थोड़े कम-ज्यादा समय के लिए स्थिर बना दें? क्यों हम कुछ ऐसे प्रावधान नहीं बनाते जिससे संसद कुछ न्यूनतम समय के लिए तो अच्छी तरह से अपना कार्य कर सके? अगर संसद की गतिविधियों को चलाने में विपक्ष की भूमिका को थोड़ा बढ़ा दिया जाए तो ऐसा किया जाना असंभव नहीं. वर्तमान में स्थिति कुछ ऐसी है कि अगर सत्ता-पक्ष नहीं चाहता है तो विपक्ष केवल चिल्लाने और संसद को बाधित करने के अलावा कुछ भी करने की स्थिति में ही नहीं होता.

राजग की केंद्र सरकार ने वर्ष 2000 में एक संविधान समीक्षा आयोग बनाया था. कांग्रेस और वामदलों ने तत्कालीन सरकार के इस कृत्य को तरह-तरह की आशंकाओं के चश्मे से देखा था. मगर आयोग की रपट में कई बातें ऐसी भी थीं जो आज की राजनीति के मुताबिक संविधान को थोड़ा बदलने की कोशिश का शुरुआती बिंदु तो हो ही सकती हैं. चूंकि यह रपट राजग सरकार की कोशिशों का परिणाम थी, इसलिए विपक्ष का सहयोग भी इस रपट पर आधारित कुछ जरूरी परिवर्तनों पर लेने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए.

जब देश और उसकी राजनीति तरह-तरह के बदलावों से गुजरकर नई-नई चुनौतियों के दरवाजे खोल रही है तो संविधान कोई विधाता की खींची हुई स्थायी लकीर तो है नहीं जिसे बदला न जा सके. अगर ऐसा होता तो संविधान के लागू होते ही इसमें संशोधन करने की जरूरत क्यों महसूस होती? तो फिर हम अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ मौलिक प्रावधान इसमें डालने में इतने असमर्थ क्यों नजर आते हैं?

इस मामले में फ्रांस का उदाहरण हमारे सामने है जिसने 1958 में अपने संविधान में पूरी तरह से परिवर्तन लाकर अपने लोकतंत्र को सिर्फ संसदीय प्रणाली वाली व्यवस्था के बजाय राष्ट्रपति और संसदीय दोनों प्रणालियों के एक मिश्रित लोकतंत्र में तब्दील कर दिया था. इसके बाद भी उन्होंने अपनी व्यवस्था में कई जरूरी सुधार किए और इससे पहले भी वे अपनी राजनीतिक व्यवस्था में कई बार आमूल-चूल परिवर्तन ला चुके थे.