शपथ और कपट

sushma-swarajनरेंद्र मोदी की नई सरकार के तीन केंद्रीय मंत्रियों सुषमा स्वराज, उमा भारती और डॉ हर्षवर्द्धन ने जब संस्कृत में शपथ ली तो वे क्या साबित करना चाहते थे? शायद यह कि उनकी शाखाएं-प्रशाखाएं चाहे जितनी भी फैल रही हों, उनकी जड़ें अपनी उसी संस्कृति से प्राणवायु और नैतिक बल ग्रहण करती हैं जिसमें संस्कृत की केंद्रीय उपस्थिति है. लेकिन क्या इस प्रतीकात्मकता का हमारे समय में कोई मोल बचा हुआ है? क्या भाषा का मामला इतना सहज है कि हम उसे प्रतीक की तरह इस्तेमाल करके अपनी एक खास पहचान सुनिश्चित करना चाहें और आगे बढ़ जाएं? भाषा में हमारी स्मृति बसी होती है, हमारे स्पंदन बोलते हैं, भाषाएं हमें बनाती और बसाती हैं. यह भी संभव है कि हम एक नहीं कई भाषाओं में बनते और बसते हों जो हमें हमारे छत और आंगन की तरह आसरा देती हों और घर-बाहर एक पहचान देती हों.

दुर्भाग्य से कम से कम पिछले दो दशकों में भारत में भाषा या भाषाओं के ये घर बिल्कुल उजाड़ दिए गए हैं- हम अंग्रेजी के लगातार अपरिहार्य होते बाजार में खड़े हैं और इस व्यावहारिकता को पूरे जीवन की ताबीज बना बैठे हैं कि अंग्रेजी सीखेंगे तो नई दुनिया के साथ चल सकेंगे, नए भारत में अपनी एक विशिष्ट हैसियत बना सकेंगे. चूंकि विकास के नाम पर एक तरह की उपभोक्ता आर्थिक समृद्धि ही जीवन का इकलौता लक्ष्य बना दी गई है और रोटी-रोजगार के सारे अवसर, ज्ञान-विज्ञान के सारे संसाधन अंग्रेजी के लिए समर्पित कर दिए गए हैं, इसलिए यह तर्क बड़ी आसानी से स्वीकार भी कर लिया जा रहा है. जो इसका विरोध कर रहे हैं वे उपहास की निगाह से देखे जा रहे हैं क्योंकि वे ऐतिहासिक तौर पर पिछड़े हुए लोग माने जा रहे हैं.

ऐसे में देश में एक ऐसी सरकार आई है जिसका प्रधानमंत्री हिंदी बोलता है और जिसके कुछ मंत्री संस्कृत तक में शपथ लेने को तैयार दिखते हैं तो इससे वह उपेक्षित और चोट खाई भाषिक अस्मिता अचानक अपने-आप को कुछ उपकृत महसूस करती है जो अन्यथा हर अवसर से वंचित रखी जा रही है. उसे लगता है कि हिंदी या भारतीय भाषाओं के दिन फिरने वाले हैं और सामाजिक-सार्वजनिक जीवन में उसकी पूछ बढ़ने वाली है. उसके इस कातर विश्वास को इस खयाल से भी बल मिलता है कि मनोरंजन की दुनिया में- टीवी और बॉलीवुड में हिंदी की हैसियत बची हुई है, उसमें क्रिकेट की कमेंटरी भी हो रही है, हॉलीवुड की फिल्में डब भी हो रही हैं और दुनिया के कई देशों में हिंदी पढ़ाई भी जा रही है. नेट पर भी हिंदी का विस्तार हो रहा है.

लेकिन जो लोग इस बाजार को करीब से जानते हैं, उन्हें मालूम है कि यहां भी हिंदी की हैसियत महज एक बोली की है. इस बाजार में फैसला करने वाले लोग अंग्रेजी के हैं और वे हिंदी को उसकी जातीय खुशबू से काट कर उसे ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी काट वाली भाषा बना कर पेश करने के हामी हैं. यही लोग अमिताभ बच्चन की करोड़पति वाली नकली किस्म की हिंदी पर वाह-वाह करते हैं और अपने टीवी-अखबारों में अंग्रेजी शब्दों ही नहीं, रोमन लिपि तक के इस्तेमाल को इसी तर्क के साथ लागू कराते हैं कि यही चल रहा है.

क्या यह जो चल रहा है, मोदी सरकार उसे बदलने का कोई इरादा रखती है? क्या वह संस्कृत या दूसरी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के मुकाबले खड़ा करके एक तरह की देशज प्रतिभा को उचित पोषण देने की सोच रही है? दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है. संस्कृत या भारतीय भाषाएं उसके लिए एक जज्बाती मुद्दा भर हैं जिनमें शपथ लेकर वह खुद को जड़ों के करीब महसूस करती है. लेकिन सच्चाई यह है कि इन जड़ों पर लगातार मट्ठा डालने की जो प्रक्रिया चल रही है, उसे वह जान-बूझ कर अनदेखा करती है. कभी हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान को अपना नारा बनाने वाले जनसंघ की कोख से निकली भाजपा को यह सीखने में समय लगा कि मामला सिर्फ हिंदी का नहीं, भारतीय भाषाओं का भी है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा तेजी से उसने यह सीख लिया कि इन्हें भुलाकर अंग्रेजी को बढ़ावा देकर ही वह नई दुनिया से अपने लिए मुहर हासिल कर सकती है. सच तो यह है कि भारत का पूरा प्रशासनिक तंत्र जैसे अंग्रेजी के बिना एक कदम बढ़ने को तैयार नहीं है. वह अपने प्रधानमंत्री या दूसरे मंत्रियों के लिए दुभाषिए का इंतजाम कर लेगा, उनके लिए फाइलों के हिंदी में संक्षिप्त नोट तैयार करवा लेगा, लेकिन पूरे राजकाज की भाषा बदलने को तैयार नहीं होगा.

क्योंकि ऐसा होगा तो सिर्फ भाषा नहीं बदलेगी, सारा राजकाज ही बदल जाएगा. अचानक वह विशेषाधिकार टूट जाएगा जो अंग्रेजी की आड़ में एक बहुत छोटे से तबके ने हासिल कर रखा है और जिसके बूते वह देश के सबसे ज्यादा संसाधनों पर काबिज है. सच तो यह है कि अंग्रेजी की इस भाषिक हैसियत ने भारत को एक नए उपनिवेश में बदल डाला है जिसकी प्रच्छन्न गुलामियां दिखाई नहीं पड़तीं. यह भाषिक गुलामी हमें आजादी का भ्रम देती है, लेकिन हमारे संसाधन हमसे छीन ले रही है. इन संसाधनों में हिस्सेदारी की प्राथमिक शर्त यही है कि हम अपनी भाषा की पगडंडियां छोड़ अंग्रेजी के राजपथ पर उतर आएं. यह भाषा नहीं, मनुष्य को और उसकी संस्कृति को बदलने की प्रक्रिया भी है।

इस पूरी प्रक्रिया की अनदेखी कर जो लोग सिर्फ संस्कृत में शपथ लेकर या कहीं हिंदी में भाषण देकर संतोष हासिल करते हैं या वाहवाही लूटते हैं वे दरअसल गहरे सांस्कृतिक अर्थों में बेहद नादान और उथले राजनीतिक अर्थों में बहुत सयाने लोग हैं- वे भाषाओं को मां बताते हैं और फिर मां की अनदेखी करते हैं- कहीं इस विश्वास और अभ्यास से भरे कि मां के साथ हर तरह की छूट ली जा सकती है, उसकी उपेक्षा भी की जा सकती है.