ओणम का पर्व था. तिरुअनंतपुरम में विश्वमोहनन पिल्लई त्योहार के इस मौके पर सेना में तैनात अपने बेटे अरुण वी की बाट जोह रहे थे. बेटे की जगह ताबूत में उसकी लाश आई. पता चला कि अरुण ने आठ अगस्त, 2012 को खुदकुशी कर ली. जम्मू-कश्मीर के सांबा जिले में तैनात 16वीं लाइट कैवलरी रेजिमेंट के इस जवान ने अपनी ही बंदूक से खुद को गोली मार ली थी. 30 साल के अरुण छुट्टी लेकर अपने परिवार के पास जाना चाहते थे, लेकिन उनकी छुट्टी की दरखास्त नामंजूर हो गई थी. बताते हैं कि इससे परेशान अरुण ने मौत को गले लगा लिया.
जैसे ही इस घटना की खबर फैली, नाराज जवानों ने अपने अधिकारियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. कई घंटे बाद भी जब टकराव नहीं थमा तो हालात काबू में करने के लिए अतिरिक्त बल बुलाए गए. इसके साथ ही एहतियातन अधिकारियों को उनके घरों से निकालकर दूसरी जगहों पर पहुंचाना पड़ा. घटना की जांच के लिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन किया गया.
सेना में यह कोई नई घटना नहीं है. बीती मई में ही लेह के पास तैनात सेना की एक हथियारबंद टुकड़ी, 226 फील्ड रेजिमेंट के अफसरों और जवानों के बीच हाथापाई की घटना सुर्खियां बनी थी. बताया जाता है कि विवाद एक जवान द्वारा एक मेजर की पत्नी से दुर्व्यवहार करने के बाद शुरू हुआ था जो पहले हाथापाई और फिर सामूहिक संघर्ष में बदल गया. जवानों ने शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया और वे वरिष्ठ अधिकारियों के इस आश्वासन के बाद ही शांत हुए कि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होगी.
हालांकि सेना अब तक ऐसी घटनाओं को अपवाद करार देती रही है. सैन्य प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह का मानना है कि 13 लाख सैनिकों और अधिकारियों वाले संगठन में ऐसी एकाध घटनाओं से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए. सांबा की घटना के बारे में बात करते हुए उन्होंने टकराव और आत्महत्या के बीच किसी संबंध की बात से इनकार किया. जनरल सिंह का कहना था, ‘हम समस्याओं की पड़ताल कर रहे हैं और उन्हें ठीक करने की कोशिश हो रही है.’
लेकिन बाद में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने जो बात कही वह इसके उलट थी. तीन सितंबर को उन्होंने संसद को बताया कि पिल्लई की आत्महत्या से सांबा सेक्टर में तैनात बलों में असंतोष पैदा हो गया है. उन्होंने टकराव और आत्महत्या का आपसी संबंध स्वीकारा. रक्षा मंत्री द्वारा जारी किए गए आंकड़ों ने एक डरावनी तस्वीर भी दिखाई जिससे साफ जाहिर हुआ कि जवानों और अधिकारियों में अपने काम से मोहभंग की स्थिति कितनी गंभीर है.
एंटनी के मुताबिक पिछले तीन साल में 25,000 सैनिकों ने सेवा से स्वैच्छिक अवकाश चाहा है. उन्होंने यह भी कहा कि इसी दौरान 1,600 से भी ज्यादा अधिकारियों ने या तो स्वैच्छिक अवकाश मांगा या फिर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. इस आंकड़े की गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि सेना पहले ही करीब 12,000 अधिकारियों की कमी से जूझ रही है. एंटनी ने यह भी बताया कि 2003 से अब तक 1,000 से भी ज्यादा जवान आत्महत्या कर चुके हैं.
पिछले तीन साल में 25,000 सैनिकों ने सेवा से स्वैच्छिक अवकाश चाहा है. उन्होंने यह भी कहा कि इसी दौरान 1,600 से भी ज्यादा अधिकारियों ने या तो स्वैच्छिक अवकाश मांगा या फिर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.
सवाल उठता है कि सेना में ऐसा क्यों हो रहा है. आखिर क्यों जवान और अधिकारी एक-दूसरे के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव कर रहे हैं? इसके जवाब में एक वर्ग सारा दोष अधिकारियों की कमी और नए रंगरूटों के गिरते स्तर पर मढ़ता है. रिटायर्ड मेजर जनरल अफसर करीम कहते हैं, ‘सेना का काफी विस्तार हुआ है और इसकी वजह से गुणवत्ता में कमी आई है. अधिकारियों की भर्ती जिस तरीके से होती है उसमें ही खामियां हैं. समस्या वरिष्ठ कमांड में भी है जो अप्रत्यक्ष तरीके से कई चीजों को प्रभावित करता है जैसे यह कि लोगों के साथ कैसा बर्ताव हो, उन्हें कहां तैनात किया जाए आदि.’ हालांकि सब इससे सहमत नहीं. रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी का मानना है कि शांतिकाल में ऐसा मुश्किल से ही होता है कि जवानों और अधिकारियों के बीच कोई मजबूत बंधन बन जाए. वे कहते हैं, ‘लड़ाई सबसे बड़ा जोड़ होती है. वहीं पर आप एक साथ मौत के सामने होते हैं.’
कुछ अधिकारियों की मानें तो कमांडिंग अफसरों और जवानों के बीच संवाद की कमी हो गई है. इसकी एक वजह तो यह है कि अधिकारियों की संख्या काफी नहीं है और दूसरी यह कि जूनियर कमीशंड अधिकारी को पर्याप्त जिम्मेदारी नहीं दी जाती जो अधिकारियों और जवानों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होता है. एक और पहलू वर्ग भेदभाव का भी है. वित्तीय मामले, कोर्ट ऑफ इंक्वायरी आदि अधिकारी ही देखते हैं. मोर्चा संभालने वाली एक बटालियन को 21 अधिकारियों की जरूरत होती है. लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो उसे सिर्फ सात-आठ अधिकारी मिल पाते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि एक अधिकारी तीन लोगों का काम संभाल रहा है. इससे अधिकारी को अपने जवानों के साथ संवाद के लिए उतना समय नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए.
ले. जनरल (सेवानिवृत्त) राज काद्यान कहते हैं, ‘पुराने दिनों में हम अपने पास एक नोटबुक रखते थे. इसमें हर उस जवान से जुड़ी जानकारियां होती थीं जो हमारे साथ होता था. उसकी पसंद, नापसंद, स्वभाव, परिवार आदि के बारे में हमें पता होता था. अब जवानों और अधिकारियों का अनुपात इतना बिगड़ा हुआ है कि इस तरह की गतिविधि के लिए समय ही नहीं मिल पाता.’
प्रोमोशन के लिए विकल्पों की कमी भी एक कारण है. नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व कमांडर बताते हैं, ‘अधिकारियों में सिर्फ 25 फीसदी ही कर्नल बनते हैं और जनरल बनने का अवसर तो 0.05 प्रतिशत को ही मिल पाता है. मेरे बैच में 1,200 कमीशंड अधिकारी थे और उनमें से सिर्फ मैं ही कमांडर के स्तर तक पहुंचा. अधिकारियों में काफी असंतोष है. कई साल की सेवा के बाद एक ऊंचे रैंक तक पहुंचने की चाह रखना स्वाभाविक ही है.’ दूसरी तरफ जवानों की बात करें तो पहले सेना में भर्ती होने वाले रंगरूट गांव-देहात से आते थे. उन्हें बाहरी दुनिया के बारे में ज्यादा पता नहीं होता था. पिछले 15-20 साल के दौरान एक बड़ा बदलाव यह भी हुआ है कि नए रंगरूटों में से ज्यादातर शहरी या कस्बाई इलाकों से आ रहे हैं. वे अब ज्यादा शिक्षित हैं और इसलिए उनकी महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी हैं. ये रंगरूट ऐसे नहीं हैं कि अफसरों ने जो हुक्म बजा दिया वह आंख मूंदकर मान लें.
2007 में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च से कहा था कि वह सेना में आत्महत्या और अपने साथियों को गोली मारने जैसी घटनाओं की पड़ताल करे2007 में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च से कहा था कि वह सेना में आत्महत्या और अपने साथियों को गोली मारने जैसी घटनाओं की पड़ताल करे. इस संस्था ने जांच के बाद कहा कि सुरक्षा बलों में कई ऐसे कारण हैं जो तनाव बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इनमें काम का भारी बोझ, पर्याप्त आराम और छुट्टियों की कमी, बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव, परिवार से जुड़ी चिंताएं और सिविल प्रशासन से पर्याप्त सहयोग न मिलना प्रमुख हैं.
रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी कहते हैं, ‘पिछले 20 साल में काफी कुछ बदल गया है. हकीकत यह है कि सेना के लिए सम्मान में कमी आई है. पहले सेना में जाना गर्व की बात होती थी. लोग आपकी इज्जत करते थे. अब तो आपको बेवकूफ समझा जाता है जो अपनी जवानी बेकार कर रहा है.’
वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार के हालिया मामलों ने भी सेना की छवि को चोट पहुंचाई है. इन मामलों में बड़े स्तर के अधिकारी शामिल रहे हैं. संसद में बयान के बाद एंटनी तीनों सैन्य प्रमुखों से मिले थे. रक्षा मंत्री ने उनके साथ आत्महत्या, सेवानिवृत्ति और सहयोगियों के साथ टकराव जैसे मुद्दों पर चर्चा की और उन्हें निर्देश दिए कि छुट्टी के मामले में जवानों के साथ उदारता दिखाई जाए. उन्होंने अपने मंत्रालय को रेलवे के साथ संपर्क करने को कहा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जब कोई जवान छुट्टी पर जाए तो उसे तुरंत आरक्षण मिल जाए. मंत्रालय तो सही कदम उठाता दिख रहा है. अब सेना को भी आत्ममंथन करके उचित कदम उठाना चाहिए. वर्ना स्थिति और गंभीर ही होती जाएगी.