प्रेम में यही मजा है. प्रेम हर पल नए प्रश्न प्रस्तुत करता है. कह लें कि प्रेम का यही मजा है कि यहां प्रश्न ही प्रश्न हैं और उत्तर ‘एक्को’ नहीं. उत्तर हों भी तो उन्हें खोजने, देने की किसी प्रेमी के पास फुर्सत नहीं. प्रेम स्वयं में ‘फुल टाइम जॉब’ टाइप चीज है भाई साहब. किसके पास टाइम है कि आपके प्रश्न सुने? किसके पास फुर्सत है कि उत्तर तलाशता फिरे? प्रेम में तो हर एक प्रश्न को सदियों से ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ देने का रिवाज चला आता है. उसी ने हमें प्रेम में डाला, महबूब से मिलवाया, जूते पड़वाए इत्यादि, वही यह प्रश्न भी देखेगा.
प्रेम में एक यही प्रश्न नहीं है भाई साहब कि यह रोग है या संजीवनी? ढेर से और भी प्रश्न हैं. जिन्होंने प्रेम किया है, या जो एक प्रेम से निकलकर दूसरे और फिर तीसरे, चौथे में उसी सहजता से जाते रहते हैं जैसे कि सर्कस के झूलों पर करतब दिखाने वाले कलाकार एक झूले से दूसरे झूले पर किया करते हैं, या कि वे जो क्रॉनिक डीसेंट्री- भगंदर तथा बवासीर की भांति प्रेम से अहर्निश पीड़ित हैं तथा जिनका इलाज न एलोपैथी में मिलता है न ही यूनानी दवाखाने में, या कि वे प्रेमी जिन्हें प्रेम तो विकट होता है पर किसी को भी, यहां तक कि महबूब तक को बता नहीं पाते, या कि वे जिन्हें प्रेम बिगड़े जुकाम की भांति निरंतर पकड़े रहने के बावजूद कोई उनकी बीमारी को सीरियसली लेता ही नहीं – इन सबसे कभी आप यही प्रश्न पूछ कर देखिएगा कि प्रेम रोग है या संजीवनी पूछेंगे तो वे बताएंगे कि यही तो एक ऐसा विचित्र रोग है जो लग जाए तो संजीवनी भी सिद्ध हो सकता है.
फिर भी मैंने आपके इस प्रश्न पर साहित्यिक, सामाजिक तथा चिकित्सीए कोणों से विचार किया है. मेरे साहित्यिक मन ने इस प्रश्न से और आगे जाकर कई इसी तरह के प्रश्न मुझसे और भी पूछ लिए. वह कहता है कि जब प्रेम पर ऐसे ऊलजुलूल प्रश्न पर विचार करने पर उतारू ही हो तो प्रेम से जुड़े कुछ अौर प्रश्न भी लगे हाथों क्यों नहीं निपटाते चलते? चलो, न भी निपटा पाओ पर से प्रश्न भी कम से कम सुन तो ले ही. तो आप भी सुनें.
कुछ और प्रश्न जो बनते हैं वे इस प्रकार हैं’ प्रेम आंवला है या मुरब्बा? कहीं प्रेम वह अचार तो नहीं जो मर्तबान में बहुत दिनों तक संयम का ढक्कन लगाकर सामाजिक वर्जनाओं की परछत्ती पर धर कर छोड़ दो तो उसमें फफूंद लग जाता है? इस अचार को फफूंद न लगने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या नया अचार डाल लिया जाए, फफूंद हटा कर वही पुराना अचार चाटते रहें या कि अचार की बरनी को परछत्ती से उतारें ही नहीं और मात्र दाल-रोटी खाकर ही मन बहलाया जाए? प्रश्न है कि क्या प्रेम दाढ़ी बढ़ाने का बहाना मात्र है जैसा कि असफल प्रेम में देखा या दिखाया जाता है? क्या प्रेम वजन घटाने का शर्तिया ‘वेट लॉस प्रोग्राम’ है क्योंकि पारंपरिक प्रेमकथाओं में प्रेमियों को सूख कर कांटा होते बताया जाता है? मेरे परम मित्र अंजनी चौहान इस संदर्भ में यह व्यावहारिक प्रश्न भी उठाया करते हैं कि यदि हर तरह के प्रेम तथा उससे जुड़े ठनगनों का हश्र शयनकक्ष में होने वाली कतिपय अनिवार्य उठापटक में ही हाेना है जिसके लिए प्रेम भाव के अतिरिक्त अन्य कूव्वतों की भी उतनी ही आवश्यकता होती है तो फिर प्रेम अकेले का स्साला इत्ता हल्ला क्यों? चौहान साहब कहते हैं कि प्रेम तो खूब हो और मान लो कि कूट-कूट कर भी भरा हो तब भी फायनली तो बात इस पर जाकर ही टिकेगी न कि प्रेम में आप बस ‘हें हें’ ही करते रहोगे या कुछ और भी ‘ठीकठाक’ कर पाते हो प्रेम के वायवीय या ‘प्लेटोनिक’ पक्ष पर तो बड़ी प्रेमकथाएं लिखी, पढ़ी तथा सरेआम सराही जाती हैं, परंतु जब इससे जुड़े असली खेल की बात पर बात आती है तो आप उसे अश्लील घोषित कर देते हो? ‘वैसा कुछ’ लिखा हो तो छिप कर पढ़ते हो?
तो प्रश्न तो अनेक हैं. चलो, हम आपसे पूछते हैं कि क्या प्रेम लेमनचूस की गाेली है कि जिसे ठीक से चूसो तो कुछ देर में ही खत्म हो जाती है पर स्वाद छोड़ जाती है, या कि यह च्यूंगम टाइप कोई चीज है जो खत्म ही नहीं होती और आप अभ्यासवश या परंपरावश उसे स्वादहीन होने के बावजूद चबाए चले जाते हो और फिर भी समझते हो कि कोई महत्वपूर्ण काम कर रहो हो? प्रेम जीवन की गाड़ी है, या गाड़ी का पहिया है, या कि पहिए में भरी हवा मात्र है? कहीं प्रेम, जीवन की गाड़ी में लगे पहिये से जुड़ा पंक्चर की रबर का छोटा-सा टुकड़ा और ‘सिलोचन’ मात्र तो नहीं है? या प्रेम इस पहिये में लगा गैटर तो नहीं है जो नियमित अंतराल पर यादों के पहिये को जीवन भर दचके देता रहता है? प्रेम कुहासा है कि साफ दृश्य? प्रेम दृष्टि है कि दृष्टि में उतरा मोतियाबिंद, या मात्र अंधापन, या कि दिव्य दृष्टि? प्रेम पागलपन है या पागल दुनिया के बीच एकमात्र सही दिमाग वालों का ईश्वरीय करतब? प्रेम स्वयं को मूर्ख बनाने का तरीका है या कि जीवन को सबसे समझदारी से देखने वालों का काम? प्रेम काम है या कामचोरी? प्रेम प्राइवेट सेक्टर की गतिविधि है तो इसमें ‘पब्लिक’ सेक्टर द्वारा इतना दखल क्यों दिया जाता है? प्रेम यदि आग का दरिया है तो इस पर कोई भी पुल टिक कैसे सकता है और टिकेगा भी तो उतने गर्म पुल पर से आवाजाही कोई कैसे कर सकता है? समाज इस दरिया पर अपनी खाप पंचायतों, जाति, गोत्र, मान्यताओं और वर्जनाओं के बांध बांधने की कोशिश क्यों करता है? प्रेम कहीं वह गुलाब तो नही जो अंततः गुलकंद बनने को अभिशप्त हो?
अनेक प्रश्न हैं जो इस समय मेरे साहित्यिक मन में उठ रहे हैं. पर इन्हें यहीं छोड़ना श्रेयस्कर होगा. ये अतिप्रश्न जैसे हैं. अभी मैं आपके दिए प्रश्न पर बात करूं. मैं एक चिकित्सक के तौर पर प्रेम का अध्ययन करूं तो पाता हूं कि प्रेम को रोग भी कहा तो जा सकता है. प्रेम को बाकायदा एक रोग की भांति भी समझा जा सकता है जिसके लक्षण होते हों, डायग्नोसिस की जा सकती हो, टेस्ट किए जा सकते हों तथा कुछ हद तक इस रोग के शर्तिया टाइप के इलाज भी संभव हों.
पहले प्रेमरोग के लक्षणों की बात कर ली जाए. प्रेम के रोगी को हल्की हरारत-सी लगी रहती है. तेज बुखार तो खैर नहीं आता परंतु बदन गर्म रहता है जो प्रेमी को देखकर एकाध डिग्री और बढ़ जाता है. यह बुखार थर्मामीटर में रिकॉर्ड नहीं हो पाता. कई बार समाज इसे अपने जूते से रिकॉर्ड करने की कोशिश अवश्य करता है, परंतु जूते के चमड़े की तासीर ठंडी होती है जबकि प्रेमी की खाल गर्म – दोनों का तालमेल नहीं बैठता. प्रेमरोगी का हृदय धड़कता रहता है. छाती में धक-धक होती है जो महबूब की गली की तरफ जाने में और बढ़ जाती है. कुछ को छाती में मीठा-मीठा दर्द भी होता है जिसके लिए वह कोई दवाई लेना पसंद नहीं करता. प्रेम के रोगी के हाथ कांपते हैं, मुंह सूखता है, आंखों के सामने ठीक से कुछ सूझता ही नहीं अर्थात ठीक वे सारे लक्षण होते हैं जो ज्यादा दस्त लग जाने पर डीहाइड्रेशन में हुआ करते हैं. इसलिए किसी को भी ये लक्षण हों और उसे दस्त न लगे हों तो जान लें कि उसे प्रेमरोग हो सकता है. पर कई बार ऐसे रोगी को लड़की के बाप या भाई को देखकर दस्त भी लग सकते हैं. तब यह थीसिस काम नहीं करेगी. प्रेम के रोगी को नींद नहीं आती और रात भी दिल खाली-खाली और छाती भरी-भरी लगती है. प्रेम की चपेट में आए रोगी का अपने पांवों पर नियंत्रण खत्म-सा हो जाता है. उसके पांव स्वतः महबूब की गली की तरफ चलने लगते हैं. प्रेमरोगी में ऐसा अजीब अंधापन भी देखा जाता है जहां काला चश्मा या सफेद घड़ी के बगैर भी वह बिना किसी से टकराए सड़क तो पार कर ही जाता है जिसके उस तरफ महबूब खड़ा हो या इस तरफ बाप जूता लेकर उसे तलाश रहा हो. प्रेमरोग से पीड़ित व्यक्ति इसके इलाज के लिए नहीं आता क्योंकि उसे लगता है कि इलाज कहीं और ही है.
क्या कोई टेस्ट होते हैं इस रोग के?
इस रोग की खासियत तथा परेशानी यही है कि इसे किसी खून, पेशाब, मल या एक्स-रे की जांच द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता. डीएनए टेस्ट द्वारा भूतपूर्व प्रेमी तो पकड़े जा सकते हैं परंतु वर्तमान के अभूतपूर्व प्रेम रोगी को नहीं पकड़ा जा सकता है. ऐसा इसीलिए है कि प्रेम में मुब्तिला प्रेमरोगी अपना डीएनए स्वयं रच रहा होता है. वास्तव में प्रेमरोग तो एक क्लीनिकल डायग्नोसिस है और मरीज को ठीक से देखने से ही यह पकड़ में आ जाती है.
अब प्रेमरोग का इलाज
है न. बहुत-से इलाज हैं. मिर्गी के अलावा इस रोग के इलाज में भी जूते का एक आदरणीय स्थान सदियों से रहा है. जूते में फायदा यह भी है कि जूता हमेशा उपलब्ध रहता है, इसे तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है, यह इलाज लगभग मुफ्त होता है, एक ही जूते को कई रोगियों पर और बार-बार प्रयोग किया जा सकता है, और इसे पास या दूर खड़े रोगी पर उतनी ही तत्परता से प्रयोग किया जा सकता है. प्रेमरोग के इलाज में डंडों, थप्पड़, लात, घूंसों अादि का भी अपना स्थान है, पर ये औषधियां प्रायः बिगड़े हुए रोगी में ही ट्राई की जाती हैं. ये सारे इलाज कारगर होते तो हैं पर कई बार नहीं भी होते. हां, एक इलाज जो हर प्रेमरोगी को एकदम दुरुस्त कर देता है वह यह है कि आप ऐसे रोगी की उसी लड़की (या लड़के) से शादी करा दें. विवाह इस रोग का शर्तिया इलाज है.
अब हम आते हैं आपके प्रश्न पर कि प्रेम रोग है या संजीवनी. प्रेम रोग है, यह तो हमने अभी सिद्ध कर दिया. पर सच यह भी है कि इससे बड़ी संजीवनी भी आज तक खोजी नहीं गई. सो आपका यह प्रश्न मुर्गी और अंडे वाला शाश्वत प्रश्न है जिस पर हमेशा ही माथापच्ची होती रही है. यूं कह लें कि प्रेम रोग तो है पर यह किसी जीवनदायी टीके का काम भी करता है. जैसे पोलियो के टीके में बीमारी के कीटाणु शरीर में डाले जाते हैं ठीक वैसे ही. प्रेमरोग कभी हुआ हो तो आप जीवन को इतना अच्छा, इतनी तरह से, इतना गहरा समझने लगते हैं कि फिर जीवन का आनंद ही अलग हो जाता है. सो प्रेमरोग कितना भी रोग हो परंतु संजीवनी भी है – यही विरोधाभास है प्रेम का, क्या करें?
प्रेम, राजनीति और नेहरू-गांधी परिवार
भारतीय राजनीति के शीर्ष पर खड़ा एक ऐसा परिवार जिसने अकसर राजनीति के आगे प्रेम को तरजीह दी. प्रियदर्शन का आलेख.
यतीन्द्र मिश्र हिंदी साहित्य की उन प्रणय रचनाओं की चर्चा कर रहे हैं जिनमें कथ्य के बांकपन से लेकर प्रेम का उदात्त रूप और साथ में दैहिक पक्ष भी कई कोणों से समाहित रहा है