‘झूठ और लूट की संस्कृति के खिलाफ जन संस्कृति की जरूरत’

साहित्य की दुनिया से आपका साबका कब और कैसे हुआ?

साहित्य से मेरा जुड़ाव दो-तीन स्थितियों में हुआ.  मिडिल स्कूल और हाईस्कूल के समय से ही मुझे कुछ ऐसे अध्यापक मिले जिनकी साहित्य में गहरी दिलचस्पी और गति भी थी. उनके कारण साहित्य में दिलचस्पी जगी. जब मैं बनारस आया तो उस समय बनारस में रहने वाले दो कवियों, त्रिलोचन शास्त्री और धूमिल से मेरा संबंध बना. काशीनाथ सिंह से मेरा संबंध था और उनके कारण ही नामवर सिंह से थोड़ा-बहुत परिचय हुआ. मैं स्वयं काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हिंदी का छात्र था, इसलिए वहां के हिंदी विभाग की जो आलोचना की परंपरा थी- रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि, उससे भी जुड़ने की प्रेरणा मिली. बुनियादी तौर पर साहित्य से जुड़ाव बनारस में हुआ और यहीं से मैं कुछ लिखने की ओर भी गतिशील हुआ.

मौजूदा दौर में साहित्य और समाज के सामने कौन-सी बड़ी चुनौतियां देख रहे हैं?

भारतीय समाज पिछले बीस वर्षों से आंधी की गति से पूंजीवाद और अंतरराष्ट्रीय पूंजी की गिरफ्त में जिस तरह आया है उससे बहुत सारी चीजें उलट-पुलट गईं. पूंजीवाद स्मृतियों को महत्व नहीं देता क्योंकि उसके अपने इतिहास की स्मृतियां इतनी भयावह हैं कि उनसे गुजरना गहरा अपराधबोध पैदा करता है. इसलिए पूंजीवाद हमेशा वर्तमान और भविष्य की चिंता करता है. कुल मिलाकर पूंजीवाद के स्वभाव के अनुकूल ही राजनीति देश में चल रही है, जिसे मैं झूठ और लूट की राजनीति कहता हूं. एक संकट तो इस झूठ और लूट की राजनीति की वजह से है. इस अर्थव्यवस्था और राजनीति का असर सांस्कृतिक परिदृश्य पर पड़ रहा है, जिससे साहित्य और संस्कृति में भी अपने अतीत के प्रति कोई सच्चा लगाव दिखाई नहीं देता है और यदि कोई लगाव दिखाई भी देता है तो बाजार की दृष्टि से उपयोगी होने पर ही सामने आता है. खास तौर पर लोकभाषाओं का जीवन खतरे में है. तीसरे भारत का मध्यवर्ग धीरे-धीरे विकसित हुआ मध्यवर्ग नहीं है, यह अचानक हनुमान कूद की तरह उछलकर ऊपर आया मध्यवर्ग है, इसलिए उसमें कोई संयम और सामाजिक चेतना नहीं है. चिंता की बात यह है कि भारत में संस्कृति का क्षेत्र अधिकांशतः मध्यवर्ग के दायरे में सीमित है और यह मध्यवर्ग ब्रिटिश राज के दिनों में जितना अवसरवादी था उतना ही आज भी अवसरवादी है. हिंदी में मुक्तिबोध ने जीवन भर अपनी कविता और लेखों में सबसे अधिक आलोचना मध्यवर्ग के अवसरवाद की थी. अब वह आलोचना साहित्य से भी गायब हो गई है. हिंदुस्तान का मध्यवर्ग इस समय सेलीब्रेशन मतलब उत्सव मनाने की मानसिकता में है. इसलिए अवसरवाद को वह अवसरों की तलाश समझता है. इस सबके बावजूद इसी मध्यवर्ग में और उसके बाहर भी अब भी कुछ ऐसे लेखक व बुद्घिजीवी हैं, जिनमें सामाजिक चेतना है, मानवीय संवेदनशीलता है.

इस दौर में आम तौर पर लेखक संगठन साहित्य की दिशा निर्धारित करने में कितने सफल रहे हैं? आप स्वयं एक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. क्या लेखक संगठनों की कोई सामाजिक भूमिका संभव लगती है?

हिंदी में तीन लेखक संगठन हैं. सबसे पुराना प्रगतिशील लेखक संघ, उसके बाद का जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच. जहां-तहां कुछ शहरों में इनके विरोधी लेखक संगठन भी हैं. बहुत छोटे और सीमित दायरे में काम करने वाले ही सही. लेकिन मैं इन्हीं तीन प्रमुख लेखक संगठनों के बारे में बात करूंगा. असल में आज का दौर सारी दुनिया में और अपने देश में भी मार्क्सवाद और उससे जुड़ी राजनीति, संस्कृति और सक्रियता के संकट का दौर है. उस संकट की छाया हिंदी के इन तीनों वामपंथी लेखक संगठनों पर भी बनती दिखाई देती है. प्रायः ये तीनों लेखक संगठन उत्साह या उत्थान की स्थिति में तब होते हैं जब देश में वामपंथी राजनीति और जनांदोलन उत्साह और उत्थान की स्थिति में हों. चूंकि पिछले एक दशक में वामपंथी राजनीति स्वयं उत्साह की स्थिति में नहीं है. इसलिए उससे जुड़े लेखक संगठन भी पस्ती की दिशा में दिखाई देते हैं.

लेकिन कहा तो यह जाता है कि जब राजनीति बुरे दौर से गुजर रही हो तब आगे बढ़कर रोशनी दिखाने की जिम्मेदारी भी साहित्य-संस्कृति के लोगों की होती है.

हां, ठीक कहा हिंदी में प्रेमचंद का एक वाक्य हजार बार दोहराया गया है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल दिखाने वाली सच्चाई है. पर वास्तविक रूप से देखिए तो प्रेमचंद के इस कथन का अब उससे अधिक अर्थ नहीं रह गया है, जितना सरकारी दफ्तरों में टंगे हुए सत्यमेव जयते का.

आपने कबीर को भोजपुरी का कवि और भक्तिकाल को मातृभाषाओं के उत्थान का काल कहा है. क्या आपको मौजूदा दौर की चुनौतियों से निपटने के लिए ऐसे ही व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत लगती है?

जितना मूलगामी और व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन भक्ति आंदोलन था उससे थोड़ा ही कम व्यापक प्रगतिशील आंदोलन का आरंभिक दौर था, जिसके अंतर्गत केवल भारत की अधिकांश भाषाओं के साहित्य सृजन का ही समावेश नहीं था बल्कि रंगमंच के साथ फिल्म, संगीत, नृत्य और चित्रकला में भी प्रगतिशील आंदोलन से प्रेरित और प्रभावित सृजनशीलता के प्रमाण मौजूद थे. उस दौर की वामपंथी राजनीति ने जो हासिल नहीं किया उससे बहुत अधिक प्रभाव की व्यापकता प्रगतिशील आंदोलन के कारण पैदा हुई. फिर धीरे-धीरे प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए लोगों की कमियों, कमजोरियों और दुविधाओं और दुर्नीतियों के कारण वह आंदोलन और उससे जुड़े संगठन बिखर गए. आजकल भारत का संपूर्ण सांस्कृतिक परिदृश्य जिस असमंजस, संकट और दिशाहीनता की दशा से गुजर रहा है उससे उसे उबारने और जनोन्मुखी बनाने के लिए पुराने प्रगतिशील आंदोलन की तरह का एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन जरूरी लगता है. अभी कुछ समय पहले यह बात हुई थी और अब भी प्रक्रिया चल रही है कि तीनों वामपंथी लेखक संगठन मिल-जुल कर काम करें. एक व्यापक जनतांत्रिक सांस्कृतिक परिवेश बनाने की कोशिश करें और जनोन्मुखी रचनाशीलता को शक्ति देने की भी कोशिश करें. लेकिन यह तभी संभव होगा जब ये वामपंथी संगठन आत्मालोचन करते हुए अपनी पुरानी कमियों, कमजोरियों और गलतियों को स्वीकार करें और भविष्य के लिए नयी नीति, सोच और दिशा की पहचान करें.

हिंदी रचनाशीलता में आपको वे कौन लोग लगते हैं जो इन समस्याओं से सीधे टकराने की कोशिश कर रहे हैं?

बहुत सारे जरूरी नामों के छूट जाने के खतरे के बावजूद भी मैं यह कहूंगा कि भारत में किसानों की आत्महत्या पर राजेश जोशी ने दो अत्यंत मार्मिक और महत्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं, चंद्रकांत देवताले ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी और यातना पर एक अत्यंत प्रभावपूर्ण कविता लिखी है. झारखंड के आदिवासियों के शोषण और दमन पर रणेन्द्र ने ‘ग्लोबल गांव के देवता’ नाम का महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है और जून 2011 के अंक में सुभासचंद्र कुशवाहा की एक कहानी छपी है ‘केहू ना चीन्ही’ जिसमें गांवों में घटती सामूहिक सांस्कृतिक चेतना और बढ़ती सांप्रदायिक चेतना, जोगियों की खत्म होती गतिविधियों और गायकी के विनाश का मर्मस्पर्शी चित्रण है. हिंदी क्षेत्र में जोगी जाति वही है, जिसमें कहा जाता है कि कबीर पैदा हुए थे. जोगियों की संस्कृति और चेतना के अंत के साथ किसी और कबीर के पैदा होने की संभावना का भी अंत दिखाई देता है.