मुझे याद आ रहा है, वह जून महीने की 14 तारीख थी और एफआरआई देहरादून में हम इस चर्चा में मुब्तिला थे कि अगर हम प्रकृति को नहीं समझेंगे तो प्रकृति हमें अपने तरीके से समझाएगी. इस बात को तीन ही दिन बीते थे कि रुद्रप्रयाग से पापा का फोन आया, ‘यहां तो बारिश ने कहर बरपा दिया है सड़कें तक बह गई हैं. अच्छा किया तूने जो 10 को ही चला गया. अगस्त्यमुनि में कई घर तबाह हो गए हैं. तेरी बुआ के घर तक भी पानी भर गया है.’ अगला दिन तो और भी हृदयविदारक खबर लेकर आया. पता चला कि केदारनाथ में भारी बारिश से कई लोगों की मौत हो गई है. लेकिन कोई स्पष्ट खबर सामने नहीं आ रही थी. आखिरकार मैंने एक स्थानीय पत्रकार साथी को फोन लगाया.
उन्होंने इस बात की पुष्टि की लेकिन ज्यादा कुछ न कहते हुए फोन काट दिया. तब तक टीवी पर खबरें आनी शुरू हो गई थीं लेकिन यह पता नहीं था कि दरअसल वह दिन कितने लोगों के लिए आखिरी दिन था. दो दिन बाद हमें जैसे ही आपदा का ठीक-ठीक अनुमान लगा, हम देहरादून के एक निजी विश्वविद्यालय के सहयोग से आपदा राहत के काम में जुट गए. 22 जून को 7 बजे सुबह 18 लोगों की टीम 7 ट्रक राहत सामग्री लेकर रुद्रप्रयाग की ओर रवाना हो गई. हम जैसे-तैसे श्रीनगर तक पहुंच गए. वहां हालात दिल दहला देने वाले थे. जलमग्र घर तथा उन पर गिरे विशाल वृक्ष. हमने आगे बढ़ना जारी रखा. रुद्रप्रयाग-तिलवाड़ा मार्ग बंद होने की वजह से हमें मयकोटी, दुर्गाधार होकर तिलवाड़ा जाना पड़ा.
तिलवाड़ा में हमने लोगों को राहत शिविरों में से बुलाकर सामान बांटना शुरू किया. कुछ परिवारों के पास तो केवल तन ढकने को कपड़े ही बचे थे. उनकी मदद करके हम अगस्त्यमुनि की ओर रवाना हो गए. रास्ते में सड़क टूटी थी और सीमा सुरक्षा बल के एक अधिकारी की सलाह पर हमने गुप्तकाशी जाने के लिए मयाली वाला वैकल्पिक रास्ता चुना जो काफी लंबा था. वहां का दृश्य कभी भूला नहीं जा सकता. हजारों लोगों का जन सैलाब, जिसको जहां जगह मिली थी वह ठंस गया था. हमने वह सामग्री वहां काम कर रहे सेना के जवानों और प्रशासन को सौंपी तथा वापस लौटने लगे.
राह में देवभूमि की एक दूसरी ही तस्वीर हमारा इंतजार कर रही थी. स्थानीय लोगों ने सड़कों पर आपदा पीड़ितों के लिए राहत शिविर लगा रखे थे और अपने घर से अनाज लाकर उन्हें मनुहार करके खिला रहे थे. मेरे उम्र तो ज्यादा नहीं लेकिन मुझे अपने पत्रकारिता के पेशे में जितनी भी यात्राओं का जितना अनुभव हुआ है यह उन सब अनुभवों में से सबसे हैरतअंगेज था. प्राकृतिक आपदा का ऐसा महातांडव और ऐसी विनाश लीला मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. श्रीनगर, गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, अगस्त्यमुनि, केदारनाथ आदि में मची तबाही ने मेरे साथ ही सबके दिलों को झकझोर कर रख दिया है. इस भीषण आपदा ने हजारों की संख्या में लोगों को मौत की नींद सुला दिया है.
इस बीच यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार तथा लूटखसोट की खबरें भी आ रही हैं लेकिन वह केवल एक पक्ष है न कि इकलौता सच. सेना के जवानों तथा स्थानीय लोगों ने जिस साहस, धैर्य और आत्मबल का परिचय इस कठिन समय में दिया है उसे बचने वाले लोग और हम जैसे प्रत्यक्षदर्शी शायद कभी भुला नहीं पाएंगे. अब इस त्रासदी में मानव की भूमिका की पड़ताल भी चालू हो चुकी है.
पता नहीं यह इस बात का सही वक्त है या नहीं लेकिन मुझे बचपन में बुजुर्गों से सुनी एक कहावत याद आती है कि जब-जब इंसान अति करता है तब-तब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाकर उसे अपनी ताकत का अहसास कराती है. हमें प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा न कि उसका शोषण करके. शोषण का नतीजा तो हम देख ही रहे हैं.
प्रियंक ‘मोहन’ वशिष्ठ ,
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं.