किस हाल में ‘माई’ के लाल

Lalu Prasad yadav interacting with media. Photo/Prashant Ravi30 अगस्त को पटना के गांधी मैदान में स्वाभिमान रैली का आयोजन था. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के मेल-मिलाप और सीटों को लेकर आपसी तालमेल के बाद पहला बड़ा साझा राजनीतिक आयोजन. नीतीश को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए दिल्ली से चलकर सोनिया गांधी भी पटना पहुंची थीं. लालू प्रसाद यादव और दूसरे कई बड़े नेता भी साथ थे. तपती दुपहरी के साथ गांधी मैदान लोगों से पटता जा रहा था. सड़कों पर चलने की जगह नहीं थी. कहीं नाच, कहीं बैंड बाजा, हर ओर लोगों का हुजूम. हर हाथ में झंडा, जुबां पर नारा.

आयोजन नीतीश को केंद्र में रखकर था, सो जाहिर-सी बात है कि नीतीश कुमार का पोस्टर-बैनर ज्यादा से ज्यादा लगा हुआ था. कांग्रेस को यह मौका अरसे बाद मिला था, या यूं कहिये कि करीब ढाई दशक पहले भागलपुर दंगे के बाद से बिहार में धीरे-धीरे खात्मे के राह पर अग्रसर होकर लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस के लिए यह सुनहरा मौका था, सो उसने भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी. कांग्रेसियों ने भी खूब झंडे, बैनर-पोस्टर लगाए थे. लेकिन इन सभी झंडे-बैनर-पोस्टर पर लालू यादव का बैनर-पोस्टर भारी पड़ रहा था. गांधी मैदान में और पटना की सड़कों पर भी. टमटम पर लालटेन रखकर पटना की सड़कों पर चल रहे राजद कार्यकर्ता आकर्षण का केंद्र थे. तो वर्षों बाद पटना के लोग सड़कों पर लौंडा नाच भी देख रहे थे.

सिर्फ रैली के दिन ही नहीं, उसके ठीक पहले 29 अगस्त की रात से ही पटना रैली के रंग में रंगा हुआ नजर आ रहा था. वर्षों बाद पटना के कई इलाके रात भर नाच-गाने और तरह-तरह के आयोजनों से गुलजार थे. इससे पहले यह सब तब होता था, जब लालू यादव अपने उफान के दिनों में रैलियां करवाया करते थे. स्वाभिमान रैली के बहाने लालू पुराने दिनों की ओर लौट रहे थे. सिर्फ तैयारियों के स्तर पर नहीं, बल्कि जब वे स्वाभिमान रैली को संबोधित करने आए तो वर्षों बाद अपने पुराने रंग में दिखे. लालू प्रसाद आखिरी वक्ता के तौर पर माइक के सामने आए थे. ऐसा क्यों हुआ कि सोनिया गांधी के रहते भी प्रमुख वक्ता के तौर पर लालू प्रसाद यादव आखिर में आए. नीतीश, जिनके नाम पर यह आयोजन था, वह भी क्यों पहले ही बोलकर निकल लिये, यह भी समझ में नहीं आया. शरद यादव, जो खुद को लालू का निर्माणकर्ता बताते नहीं अघाते, उन्हें तो काफी पहले ही बोलने का मौका देकर बिठा दिया गया था.

लालू जब बोलने लगे तब सबको समझ में आया कि क्यों इतने दिग्गजों के बीच में भी वह सबसे महत्वपूर्ण तरीके से पेश किए गए. लालू ने नरेंद्र मोदी और भाजपा को निशाना पर लेना शुरू किया. मोदी की नकल उतारकर मोदी के ही अंदाज में जवाब देने की कोशिश की. लालू ने एक प्रसंग के बहाने ऊंची जातियों पर निशाना साधा और जोर देकर कहा, ‘सब कान खोलकर सुन ले, यह 1990 के पहले वाला बिहार नहीं है.’ जाति आधारित जनगणना की बात कहकर उन्होंने अपना एजेंडा भी साफ कर दिया और ‘जंगलराज’ की बजाय अपने शासनकाल को ‘मंडलराज’ और आने वाले शासनकाल को ‘मंडलराज पार्ट टू’ की संज्ञा दी.

रैली के बहाने भारी भीड़ को देख गदगद लालू प्रसाद एक लय में बोलते रहे, उन्होंने लगे हाथ नीतीश कुमार को डरपोक बताते हुए इस बात का आश्वासन भी दिया कि नीतीश को मन में धुकधुकी रखने की जरूरत नहीं है, हम उन्हें ही सीएम बनाएंगे. ऐसा कहकर लालू प्रसाद सोनिया को भी बताना चाहते थे कि उन्होंने जिस लालू को अछूत मानकर दूरी बना ली हैं, वह अहम है और जिस नीतीश का साथ दे रही हैं, उसके पास लालू के रहमोकरम पर  आगे की राजनीति करने के अलावा कोई चारा नहीं है. वे भूल गए कि मंडल की राजनीति का सिर्फ यदुवंशियों से ही वास्ता नहीं होता, उसमें पिछड़े-दलित सब होते हैं और बिहार की राजनीति अब बदल चुकी है. पिछड़ों का भी विस्तार होकर ‘अतिपिछड़ा’ समूह बन चुका है और दलितों में ‘महादलित’ नाम का एक नया खेमा खोज लिया गया है.

लालू बार-बार बताते रहे कि भाजपा के लोग यदुवंशियों को भटकाना चाहते हैं, मगर उन्हें भटकना नहीं है. फिर उन्होंने कृष्ण का वंशज होने का वास्ता देकर यदुवंशियों को अपने साथ ही रहने की बात कही. कृष्ण से भी संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने यदुवंशियों को समझाने के लिए भैंस का भी सहारा लिया और कहा, ‘जब जादव का बेटा को भैंस पटकिये नहीं पाता है तो नरेंद्र मोदी क्या पटकेगा, तैयार रहना है.’ लालू अपनी धुन में थे. शरद यादव और मुलायम सिंह यादव का न जाने कितनी बार उन्होंने नाम लिया. हर तरीके से लालू प्रसाद यदुवंशियों पर जी भरकर बोल चुके थे, लेकिन शायद इतने से उन्हें संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने आखिरी में यदुवंशियांे को संबोधित करते हुए  सवाल पूछ ही लिया, ‘बताओ साथ दोगे न! दोगे या नहीं! अगर देना है तो खुलकर दो, नहीं देना है तो वह भी कह दो!’ लालू अपने भाषण में मजबूत बने रहे. वाहवाही बटोरते रहे. हर लाइन के बाद तालियों की गड़गड़ाहट होती रही लेकिन जैसे ही वह आखिरी वाक्य तेज आवाज में बोलना शुरू किया और जब यदुवंशियों को साथ देने का वास्ता देने लगे तो तालियों की गूंज कम हो चली थी. उस वक्त उनकी मजबूत आवाज में मजबूरी झलकने लगी थी. एक किस्म का डर. यह पहली बार हो रहा था कि लालू प्रसाद को अपने कोर वोट बैंक के सबसे बड़े समर्थक यादवों से सार्वजनिक तौर पर पूछना पड़ा कि साथ दोगे या नहीं! यह अकारण नहीं था. लालू प्रसाद के पहले स्वाभिमान रैली के बहाने असरे बाद मंच पर आईं उनकी पत्नी और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी अपने भाषण में यदुवंशियों की चिंता करते हुए पप्पू यादव पर निशाना साधा. पप्पू को कोसने के बहाने वह यदुवंशियों को एकजुट करने में ऊर्जा लगाते हुए दिखीं.

उधर, रैली के एक दिन पहले ही तारिक अनवर और एनसीपी जैसे जैसी पुरानी सहयोगी पार्टी को दरकिनार कर पांच सीटें समाजवादी पार्टी के हवाले करके लालू प्रसाद यादव मतदाताओं को अपनी ओर करने का इंतजाम कर चुके थे. स्वाभिमान रैली में नए नवेले समधी बने उत्तर प्रदेश के नेता व मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल सिंह यादव की प्रशंसा कर, बार-बार उनका नाम लेकर भी वह यादव खेमे में और यादवी राजनीति में अपने विस्तार का संकेत दे चुके थे.

बहरहाल स्वाभिमान रैली खत्म हुई और लालू प्रसाद ही उसके चैंपियन बने. नीतीश कुमार और सोनिया गांधी अहम होते हुए भी उतने चर्चित नहीं हो सके, वाहवाही नहीं बटोर सके, जो लालू प्रसाद के खाते में आया. इस वाहवाही में यह सवाल वहीं दबकर रह गया कि आखिर क्यों लालू प्रसाद को यदुवंशियों से भी साथ देने के लिए पूछना पड़ा?

स्वाभिमान रैली के दिन तो वह सवाल नहीं पूछा जा सका लेकिन उसके बाद बिहार के राजनीतिक गलियारे का एक अहम सवाल यही रहा? पूरे भाषण में लालू प्रसाद की यही लाइन ऐसी थी जिससे भाजपाई खेमे में खुशी की लहर दौड़ पड़ी थी. भाजपा इसलिए खुश हुई क्योंकि लालू प्रसाद ने पहली बार स्वीकार किया कि वे जितने मजबूत दिख रहे हैं, उतने ही मजबूर भी होते जा रहे हैं. यदुवंशी उनके हाथ से निकल रहे हैं. खुशी की दूसरी वजह यह रही कि लालू ने यदुवंशियों पर खुद को इतना ज्यादा केंद्रित किया कि भाजपा और राजग खेमे को इसी में संभावना के सूत्र दिखने लगे. भाजपा और राजग के नेता चाहते थे कि लालू प्रसाद खुलकर यादवों की राजनीति के पक्ष में आएं. वे पूरी ऊर्जा लगभग 15 प्रतिशत आबादी वाले यादव मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में लगाएं. अतिपिछड़ों, दलितों, महादलितों पर कम से कम बोलें. अगर लालू प्रसाद ऐसा करेंगे तो दूसरी ओर बैकफायर करने की गुंजाइश खुद बनेगी. यादव जितने एकजुट होंगे, दूसरी गैरयादव, पिछड़ी व दलित जातियां खुद-ब-खुद दूसरे छोर पर ध्रुवीकृत होंगी. ऐसा पहले भी बिहार की राजनीति में देखा और आजमाया जा चुका है. नीतीश कुमार यादवों को राजनीति में अलग कर ही, गैर यादव पिछड़ों व दलितों को एकजुट कर दस सालों तक सत्ता की सियासत के सफर में लंबी रेस का घाेड़ा साबित होने में सफल रहे हैं.

बहरहाल अब सवाल ये उठता है कि क्या वाकई लालू यादव का कोर वोट बैंक दरक रहा है? इसका जवाब इतना आसान नहीं लेकिन इतना कठिन भी नहीं. लालू प्रसाद को अपने कोर वोट बैंक की चिंता है तो यह बेवजह भी नहीं है. लालू के कोर वोट बैंक में यादव (वाई) और मुसलमान (एम) रहे हैं, जिसे बिहार में ‘माई (एमवाई)’ समीकरण कहा जाता रहा है. इन्हीं को साधकर लंबे समय तक वह बिहार में प्रभावी रहे हैं और इन्हीं के सहारे राबड़ी देवी से लेकर तमाम दूसरे प्रयोग भी करते रहे हैं. मधेपुरा व दानापुर जिसे अब पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र कहा जाता है और छपरा, ये इलाके ऐसे रहे हैं, जहां से ‘माई’ के ये लाल खुद या अपने परिजनों को चुनाव लड़वाते रहे हैं लेकिन यादव बहुल होने के बावजूद एक-एक कर ये इलाके उनके हाथों से निकल चुके हैं. विधानसभा क्षेत्र में राघोपुर, सोनपुर जैसे इलाके का चयन लालू प्रसाद करते रहे हैं, जो यादव बहुल हैं लेकिन इन सीटों पर भी राबड़ी बुरी तरह हार चुकी हैं. यादव के गढ़ में लालू प्रसाद लगातार हारते रहे हैं तो उनकी चिंता वाजिब ही है.

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एक वजह यह भी है कि लालू प्रसाद अब आगे की सियासत खुद के बजाय अपने दोनों बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी को राजनीति में जमाने के लिए कर रहे हैं. तेजप्रताप और तेजस्वी में वह तेज-ओज नहीं, जिसके सहारे वे लालू के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बन सके. लालू प्रसाद जानते हैं कि वे अगर सक्रिय राजनीति के जमाने में अपने बेटों को स्थापित नहीं कर सके तो फिर आगे उनके बेटों का भी वही राजनीतिक हश्र होगा, जो बिहार के और दूसरे मुख्यमंत्रियों की संतानों का होता रहा है. अधिक से अधिक विधायक-सांसद बनकर राजनीतिक जीवन काटते रहे हैं. लालू अपने बेटों के लिए भी अपना कोर वोट बैंक को बचाए-बनाए रखना चाहते हैं लेकिन इस बार कोर वोट बैंक के दोनों ही समूह में उनके सामने बड़ी चुनौती है.

हाल के वर्षों में एक-एक कर सारे यादव नेता लालू को छोड़कर अलग खेमे में जा रहे थे, मुस्लिम वोटों में भी नीतीश कुमार के जरिये बिखराव हो चुका था. लेकिन इस बार नीतीश कुमार के साथ आने बाद मुसलमान मतों के बिखराव की नई चुनौती सामने आ गई है, जो एक तरीके से आगे के लिए खतरनाक भी है. यह लालू प्रसाद के लिए बड़ा खतरा है, नीतीश कुमार के लिए कम.नीतीश कुमार राजनीति में सत्ता की सियासत साधने के लिए इधर से उधर भटकने वाले नेता माने जाते रहे हैं लेकिन लालू प्रसाद के साथ स्थिति दूसरी है. वह सांप्रदायिकता विरोधी नेता माने जाते रहे हैं. अगर मुस्लिमों का वोट एक बार उनके आधार से खिसक गया तो फिर भावी राजनीति ही खतरे में पड़ जाएगी. और इस बार 16.5 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम वोट पर सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष तौर दूसरे किस्म की चुनौतियां सामने आई हैं.

सीमांचल इलाके में तारिक अनवर अब लालू-नीतीश-कांग्रेस के गठबंधन के साथ नहीं. तारिक साॅफ्ट मुसलमान चेहरा माने जाते रहे हैं, उनका अपना आधार रहा है. धनबल के कारण चंपारण इलाके में साबिर अली एक अहम नेता रहे हैं. पहले वह नीतीश के साथ थे. बीच में भाजपा के साथ गए थे. विवाद हुआ था तो भाजपा का साथ छोड़ दिया. अब फिर भाजपा के साथ है. इन सबके बीच ओवैसी का बिहार में आगमन अलग कहानी लिखने की राह पर है. 25 सीटों पर लड़ने की घोषणा कर उन्होंने दूसरे दलों के लिए परेशानी खड़ी कर दी है. वे मुसलमानों का भी वोट एक हद तक काटेंगे लेकिन उससे ज्यादा हिंदुओं के ध्रुवीकरण में सहायक साबित हो सकते हैं. ये नई चुनौतियां हैं, जो मुसलमान वोटों को लेकर महागठबंधन के सामने हैं और उससे लालू प्रसाद का चिंतित होना स्वाभाविक है.

चुप-चुप क्यों हैं लालू

स्वाभिमान रैली में लालू ने जमकर बोला और जोरदार तरीके से अपने विरोधियों को ललकारा भी. इसके बावजूद पार्टी में इस बात की चर्चा है कि मोदी के लगातार उन पर हमला बोलने के बाद भी लालू शांत क्यों हैं. इतना ही नहीं गठबंधन के उनके सहयोगी नीतीश कुमार भी उनका पक्ष न लेते हुए सिर्फ अपने प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं. इससे राजद कार्यकर्ताओं में गुस्सा भी नजर आ रहा है.

जुलाई महीने में जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पटना में आकर सरकारी योजनाओं का शिलान्यास करने के बाद मुजफ्फरपुर में पहली बार चुनावी शंखनाद करने वाले थे, उसी शाम की बात है. पटना के विधायक आवास वाली चाय की दुकान पर लगने वाली चौपाल में कई राजद कार्यकर्ता उत्तेजना में थे. बोलेरो-स्कॉर्पियो से चलने वाले छिटपुटिया नेता भी. सब चिट्ठी तैयार कर रहे थे. लालू प्रसाद यादव के नाम. चिट्ठी में कुछ यूं लिखा था, ‘माननीय अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादवजी, आप कब तक चुप रहेंगे! आप क्यों नहीं कुछ बोल रहे. नीतीश कुमार जान-बूझकर भाजपा के सामने आपको गाली खाने के लिए परोस रहे हैं और खुद की छवि बड़े-बड़े होर्डिंग-पोस्टर में और गीतों में चमका रहे हैं लेकिन आपके साथ कहीं फोटो तक नहीं लगा रहे. खुद के डीएनए को बिहार का डीएनए बताने में ऊर्जा लगाए हुए हैं लेकिन उनके इशारे पर भाजपा वाले आपको गाली दे रहे हैं, आपको जंगलराज का पर्याय बता रहे  हैं, तब भी वे आपके पक्ष में एक लाइन तक नहीं बोल रहे, सिर्फ अपना दामन बचाने में लगे हुए हैं.’

ऐसी ही कई बातों को मिलाकर चिट्ठी तैयार हुई. तय हुआ कि लालू प्रसाद यादव के यहां जाकर इसे देना है. उनसे सामूहिक तौर पर आग्रह करना है कि वे अपना मुंह खोलेें, कुछ बोलें. लेकिन यह होने से पहले ही वहां एक सीनियर टाइप बुजुर्गवार नेता ने सबको गणित समझाया कि नीतीश कुमार को करने दो, जो कर रहे हैं. भाजपा को देने दो गालियां, जितना जी में आए, चुनाव हमारे नेता लालू प्रसाद यादव के इर्द-गिर्द ही होना है और नीतीश को हमारे पीछे चलना होगा, अभी भले ही आगे-आगे फुदक रहे हों. बुजुर्गवार नेता ने बहुत ही तसल्ली और कायदे से समझाया कि भाजपा जितना ज्यादा लालू प्रसाद को निशाने पर लेगी, हमें फायदा होगा. लोकसभा चुनाव में जो कोर मतदाता इधर-उधर बिखर गए थे, वे भी साथ में जुट जाएंगे. और नीतीश कुमार को तो इसलिए पीछे आना होगा कि वे बिना लालू प्रसाद यादव कर क्या सकते हैं इस बार के बिहार चुनाव में? सांप्रदायिकता पर खुलकर बोल नहीं पाएंगे, क्योंकि ऐसा बोलेंगे तो भाजपा वाले नोच लेंगे उन्हें कि सांप्रदायिक थे तो 17 साल से साथ क्यों थे? तब सांप्रदायिक नहीं थे, जब केंद्र से लेकर बिहार में सत्ता की मलाई काट रहे थे! नीतीश कुमार जातीय समीकरणों पर खुलकर बोल ही नहीं पाएंगे, क्योंकि उन्हें वह सूट नहीं करेगा. वे खुद को सुशासन और विकास पुरुष के दायरे में ही रखेंगे और इससे उन्हें वोट मिलने वाला नहीं. तो इसके लिए भी उन्हें लालू प्रसाद यादव के पीछे चलना होगा.

ऐसी ही कई बातों को बुजुर्ग नेताजी ने समझाया और जो चिट्ठी लिखी गई थी, उसे वहीं रोक लिया गया. उस दिन लालू प्रसाद के समर्थकों में गुस्सा इसलिए था, क्योंकि पटना के वेटनरी कॉलेज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बोलने के पहले नीतीश कुमार ने उस रोज कहा था, ‘जिस रेलपथ पर प्रधानमंत्री आज हरी झंडी दिखाकर परिचालन कर-करवा रहे हैं, उस पर अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में ही परिचालन हो गया होता, अगर उनकी सरकार छह माह और रह गई होती. नीतीश कुमार ने लगे हाथ यह भी कहा कि यह उसी समय की परियोजना है, जिस समय अटलजी की सरकार में वे रेल मंत्री थे लेकिन यह बीच में लटका ही रह गया. उसके बाद सबने देखा-सुना था कि पटना के वेटनरी कॉलेज में किस तरह नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार की बातों के एक छोर को पकड़कर फिर लालू प्रसाद को निशाने पर ले लिया था.’

वहीं नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘नीतीश जी ठीक कह रहे हैं. यह रेल परियोजना तब ही चालू हो गई होती लेकिन बाद में जो बिहार से ही रेल मंत्री बने, उन्हें अपने राज्य में रेल का विकास याद ही नहीं रहा, वे राजनीति में उलझे रहे.’ और भी तरीके से नरेंद्र मोदी लालू प्रसाद को निशाने पर लेते रहे. नीतीश कुमार वहीं बैठकर चुपचाप सुनते रहे. सुनने के अलावा कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि यह बोलने का अवसर नीतीश कुमार ने ही दिया था. बात वहीं खत्म नहीं हुई. उसके बाद नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर में जाकर नीतीश कुमार के डीएनए की बात हवा में उछाली, साथ ही लालू प्रसाद यादव की पार्टी को रोज जंगलराज का डर वाला नाम दिया. इसके बाद शाम को पटना में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के सवालों का जवाब देना शुरू किया. डीएनए वाले मसले को  लेकर सेंटी-सेंटी बयान दिए, ललकार लगाए लेकिन लालू प्रसाद यादव को जितने तरीके से निशाने पर नरेंद्र मोदी ने लिया, उस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. एक बार भी नहीं. राजद कार्यकर्ताओं व नेताओं के गुस्से की वजह यही थी. अखरन और गुस्सा होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि उस दिन यह पहली बार नहीं हुआ था, बल्कि नीतीश कुमार से गठबंधन होने के बावजूद जिस तरह से नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी से अलगाव-दूराव का भाव बनाते रहे हैं, उससे इस किस्म का गुस्सा उपजना स्वाभाविक भी है.

नीतीश कुमार ने जितने चुनावी अभियान चलाए, वे उनके लिए या जदयू के लिए ही रहे. इतना ही नहीं, नीतीश कुमार ने राजद द्वारा गठबंधन के नेता व सीएम पद के लिए उम्मीदवार के तौर पर खुद का नाम घोषित होने के पहले ही, खुद के पोस्टरों से पटना को पाट दिया था और उस वक्त जब नीतीश से यह पूछा गया था कि अभी लालू प्रसाद यादव ने आपको नेता घोषित भी नहीं किया है तो खुद को कैसे मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित कर दिया? इस पर उनका जवाब था कि जो भी पोस्टर-होर्डिंग लगे हैं, वह किसी ने लगा दिए हैं, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं लेकिन बाद में लोगों ने जाना कि वे होर्डिंग व पोस्टर खुद नीतीश कुमार की सहमति से उनके सलाहकार प्रशांत किशोर ने लगवाया था. वही पोस्टर अब पटना समेत पूरे राज्य में सबसे ज्यादा चमक रहे हैं. बीच में ऐसी कई बातें होती रहीं, जिस वजह से राजद कार्यकर्ताओं का गुस्सा नीतीश कुमार पर लगातार बढ़ता रहा और उस शाम चौपाल में चिट्ठी लिखकर लालू प्रसाद यादव को देने और नीतीश से कुट्टी कर लेने का दबाव बनाने की कोशिश करना, उसी गुस्से का सम्मिलित प्रस्फुटन था.

सवाल यह है कि बिहार की राजनीति के रग-रग से वाकिफ और नीतीश की राजनीति को भी सबसे बेहतर तरीके से समझने वाले लालू प्रसाद यादव क्या इन बातों को नहीं जानते, जो उनके कार्यकर्ता-नेता जानते हैं और जिन वजहों से गुस्से में रहते हैं? अगर जानते हैं तो फिर क्यों लालू प्रसाद यादव जानकर भी इससे मुंह मोड़े हुए हैं और इस विषय पर एक बार भी कुछ नहीं बोलना चाहते!

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