भारत में गोमांस खाने की परंपरा बहुत पुरानी है. वैदिक संहिताओं में जहां यज्ञ की चर्चा की गई है, वहां गाय के बलिदान की चर्चा भी की गई है. बलि देने के साथ गोमांस खाने की चर्चा वैदिक संहिताओं में है. यह परंपरा बहुत समय तक चली. लेकिन उत्तर वैदिक काल में रचे गए धर्म सूत्रों या स्मृतियों में भी गोमांस और गोवध की चर्चा है. इन ग्रंथों में जिक्र किया गया है कि किसी राजा या किसी आदरणीय व्यक्ति के आगमन पर बलि दी जाती थी और उन्हें गोमांस परोसा जाता था. गाय की बलि देने की प्रथा को ‘मधुपर्क’ कहा जाता था. मधुपर्क का जिक्र याज्ञवलक्य स्मृति, नारद स्मृति, व्यास आदि स्मृतियों में है. गोमांस खाने की चर्चा स्मृति ग्रंथों के अलावा कई धर्मनिरपेक्ष साहित्य में भी है.
गोमांस खाने की परंपरा तो इस देश में रही है लेकिन यह भी सही है कि कई संप्रदाय (बौद्घ, जैन, वैष्णव आदि) ऐसे रहे जिन्होंने पशु बलि का विरोध किया. बलि प्रथा का इनका विरोध किसी खास पशु के लिए न होकर सभी जानवरों के लिए था.
भारतीय समाज में गाय या गोवंश के दूसरे प्राणियों के लिए विशेष आदर का भाव कृषि के विकास के साथ बढ़ता चला गया. कृषि के प्रसार में गाय, बैल, भैंस आदि का योगदान रहा है. जाहिर है उनके प्रति आदर और सहानुभूति तो हो ही जाएगी। दूध देनेवाले पशु का महत्व दूसरे घरेलू महत्व के जानवरों की तुलना में ज्यादा बढ़ पाया है लेकिन इनका राजनीतिकरण पहले कभी भी आज की तरह नहीं हुआ. सच तो यह है कि इनका राजनीतिकरण 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ.
दयानंद सरस्वती ने ‘गोरक्षण समिति’ बनाई और गाय बचाने के नाम पर आंदोलन भी चलाया था। इस आंदोलन के चलते मुसलमानों की पहचान गाय की हत्या करने और गोमांस खानेवाले के तौर पर स्थापित हो गई। यह भी प्रचारित किया गया कि मुगलों के भारत आगमन के बाद से ही गोमांस खाने की परंपरा शुरू हुई है. यह एक भ्रामक तथ्य है. अतः यह प्रतिबंध मुस्लिम विरोधी है.
दयानंद सरस्वती के इस आंदोलन के बाद पश्चिमी, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुत दंगे हुए. यहां से राजनीति का सांप्रदायीकरण शुरू हुआ. बाद में भाजपा और हिंदूवादी पार्टियों ने इस एजेंडे को आगे बढ़ाया. हिंदूवादी ताकतों ने गाय को पवित्रता का प्रतीक बताकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम किया. ये लोग हिंदू होने को लेकर गौरवांवित होते हैं और नारे लगाते हैं, ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’. कोई भी जब गौरवांवित होकर अपने को हिंदू बताएगा तो जाहिर है कि वह अन्य धर्म को हिकारत से या कम करके देखेगा. हिंदू धर्म के मुकाबले इस्लाम और ईसाईयत को हीन बताएगा.
गोमांस नहीं खाना है, यह तो सवर्णवादी (ब्राह्मणवादी) मानसिकता है. सूअर (वराह) को भी हिंदू धर्म में भगवान का एक अवतार बताया गया है लेकिन सवर्ण सूअर खाते हैं. इनके मन में सूअर बचाने को लेकर कोई दर्द नहीं है? अगर धर्म को बचाना ही है तो फिर सूअर को क्यों नहीं? सूअर खाने के पीछे या सूअर खाने को लेकर प्रतिबंध जैसी बातें इसलिए कभी नहीं उठती हैं क्योंकि मुसलमान सूअर नहीं खाते हैं. जाहिर है कि गोवध के प्रतिबंध के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है. इस प्रतिबंध के पीछे समाज और राजनीति का सांप्रदायीकरण करने की मंशा है.
धर्म शास्त्रों में दो तरह के पाप गिनाए गए हैं, महापातक और उप-पातक. ‘अत्रे’ और ‘व्यास’ स्मृति, जो वैदिक ग्रंथों के बहुत बाद के ग्रंथ हैं उसमें गोवध करनेवाले और गोमांस खानेवाले को अस्पृश्यता से जोड़ दिया गया और गोवध को महापातक (महापाप) नहीं माना गया है.
गोवध पर प्रतिबंध का दलित आबादी के स्वास्थ्य पर बहुत नकारात्मक असर पड़ेगा. दलितों में गोमांस बहुत सामान्य है. उनके लिए यह प्रोटीन का बहुत बड़ा स्रोत है इसलिए यह दलित विरोधी है. केरल और पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में गोमांस प्रचुरता से खाया जाता है तो यह केरल और पूर्वोत्तर विरोधी है. केरल में लगभग 80 फीसदी लोग गोमांस खाते हैं. कौन क्या खाएगा, यह कोई दूसरा नहीं बल्कि खानेवाला मनुष्य ही तय करेगा, तो यह संविधान में शामिल मूल अधिकारों के भी खिलाफ है. प्रतिबंध लगानेवाली पार्टी खुद को राष्ट्रवादी कहती है और राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण किताब संविधान में दर्ज व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन करती है. विविधता से भरे इस देश में ऐसे प्रतिबंध लगाकर दूसरे धर्म, जातियों और संप्रदायों को अपमानित करने की कोशिश की जा रही है.
(लेखक प्रसिद्घ इतिहासकार हैं)
लेखक भ्रम फैला रहा है , सुअर को सवर्ण खाते हैं यह डोर की कौड़ी कहाँ से लाया . ऐसी गंदी मानसिकता के लोगो का लेख न छापे
tiwari ji main aapse sahmat hoon, is lekh me ved aur shahstro ka galat interpretation kia gaya hai
Mr tiwari hambargar matalb pork se bana pashchimi daure par nonvegeterian savarn khate hai. Pork matlab suaar pata hoga aapko, sabhi naami 5 star hotel aur naami restrao me parosa jata hai india me
ऋग्वेदिक काल के इतिहास के स्रोत धरम ग्रंथ के अध्ययन के बिना जो लोग इतिहासकारों के अध्ययन पर फ़तवे जारी करते हैं उन्हें गलियाँ देने के अलावा कुछ पता नहीं है. डी. एन. झा के बातों में सत्यता है.
ham sabhi ko apne dharmik granth dhyan se padhne aur samajhne chahiye..aur fir jo usmein likha ho usi ke anusar chalna chahiye haan ek baat aur abhi jumme-2 aath din wale prakashan ki book nahi padhne chahiye jo purani se purani book ho wahi padhne chahiye.kyonki ab prakasan house bhi bik chuke hain.Taaki kisi neta aur mantri ke bahkaave mein naa ayein.