हममें से देशद्रोही कौन नहीं है?

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राष्ट्रवाद या यूं कहें कि ऑफिशियल राष्ट्रवाद इन दिनों सुर्खियों में है. एक तरफ ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए और दूसरे ही सुर में मां-बहनों के नाम अपशब्दों की बौछार करते हुए लंपटों के गिरोह हर स्वतंत्रमना व्यक्ति को लातों-मुक्कों से, या जैसा कि बीते दिनों इलाहाबाद की कचहरी में देखने को मिला, लोग लाठियों की मार से राष्ट्रवाद का असली मतलब समझा रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़ते दिख रहे इन निक्करधारी गिरोहों के साथ जगह-जगह खाकी वर्दीधारियों की भी मौन सहमति नजर आ रही है. और दिख रहा है कि आप अगर किसी को मार भी डालें और सफाई में यह कह दें कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कह रहा था तो उसे माफ कर दिया जाएगा.

विडंबना ही है कि इन दिनों देश की किस्मत के आका कहे जाने वाले लोग नकली ट्वीट की बैसाखी के सहारे ऐसे तमाम उत्पातों, उपद्रवों और उद्दंडता को वैधता का जामा पहनाते नजर आ रहे हैं. आए दिन हो रही संविधान की इस खुल्लमखुल्ला अनदेखी को लेकर संविधान को सबसे पवित्र किताब का दर्जा देने वाले वजीर-ए-आजम मोदी भी अपना मौन बनाए हुए हैं. अंधराष्ट्रवाद की आंधी चलाने की तेज होती कोशिशों को देखते हुए बरबस राजेश जोशी की बहुचर्चित कविता की पंक्तियां साकार होती दिख रही हैं कि ‘जो इस कोलाहल में शामिल नहीं होंगे मारे जाएंगे.’

ध्यान रहे कि अब तक ऐसे स्वयंभू राष्ट्रभक्तों की नजर में ‘समुदाय विशेष’ के लोग ही राष्ट्र के पंचम स्तंभ अर्थात भेदिये थे- मिसाल के तौर पर, संघ के सुप्रीमो गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ अर्थात ‘विचार सुमन’ में बाकायदा कुछ समुदायों को चिह्नित किया है जिसमें वे लिखते हैं, ‘बाहरी आक्रमणकारियों की तुलना में देश के अंदर मौजूद दुश्मन तत्व ही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं.’ किताब के आंतरिक खतरे नामक अध्याय में वे मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को इस श्रेणी में रखते हैं और उसके बाद एक लंबे आलेख में इन समूहों की देशभक्ति को संदेह के दायरे में रखते हैं (देखें- रामचंद्र गुहा, ‘द हिंदू,’ 28 नवंबर, 2006). मगर मामला अब काफी आगे बढ़ गया है. अब हर वह शख्स उनकी निगाह में राष्ट्रद्रोही है जो उनकी हां में हां नहीं मिलाता है, उनके साथ कदमताल करने को तैयार नहीं है और सबसे बढ़कर असहमति की आवाजों का होना जनतंत्र का प्रमुख गुण समझता है.

फिर कोई रोहित वेमुला जैसा प्रचंड प्रतिभाशाली दलित युवक और डॉ. आंबेडकर के विचारों को साकार करने में मुब्तिला उसका संगठन ‘आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ एंटीनेशनल अर्थात राष्ट्रद्रोही की कतार में आ सकता है, तो उधर, सोनी सोरी जैसी छत्तीसगढ़ की आदिवासी स्त्री- जिसके यौनांगों में पत्थर भरकर उसे किसी रणबांकुरे पुलिस अफसर ने राष्ट्र के असली मायने समझाने की कोशिश की थी- और जो आज भी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ अलख जगा रही है, उस पर भी दोबारा एसिड से हमला करके उसे उन्हीं ‘राष्ट्रद्रोहियों’ की कतार में खड़ा किया जा सकता है या तमिल लोकगायक कोवन सरकार की शराब नीतियों का अपने गीतों में विरोध करने के लिए देशद्रोह के आरोपों के तहत जेल में ठूंसा जा सकता है या कोई प्रिया पिल्लई जो पर्यावरण को लेकर कॉरपोरेट साजिशों का खुलासा करने का जोखिम उठा सकती है, वह भी एंटीनेशनल करार दी जा सकती है.

यह अकारण नहीं कि जी. संपथ ‘द हिंदू’ के अपने आलेख में लिखते हैं, ‘संघ परिवार की इस राष्ट्रवादी नामकरण शैली में अब मध्य भारत के आदिवासी, दलित छात्र, वामपंथी बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, एक खास धार्मिक अल्पसंख्यक, नाभिकीय ऊर्जा विरोधी कार्यकर्ता, बीफ खाने वाले, पाकिस्तान से नफरत न करने वाले, अंतरधर्मीय जोड़े, समलैंगिक, मजदूरों के संगठनकर्ता सभी राष्ट्रद्रोही हैं.’ (देखें- द हिंदू, 17 फरवरी, 2016)

वैसे इन दिनों इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों ने देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ही राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा साबित करने की मुहिम छेड़ी है और जिसके लिए 9 फरवरी की रात में वहां आयोजित एक कार्यक्रम को बहाना बनाया गया है. निश्चित ही हुक्मरानों को लगता है कि देशद्रोह के इर्द-गिर्द हौवा खड़ा करके वह अपनी तमाम नाकामियों, अपनी आर्थिक असफलताओं, अपनी अमीरपरस्त नीतियों पर परदा डाले रख सकते हैं और सबसे बढ़कर इस देश के पूंजीपतियों को कई लाख करोड़ रुपये के कर्जे से एक ही रात में मुक्ति दिलाने के उनके कदम के प्रति उठ रहे विरोध के स्वर को दबा सकते हैं. लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं है कि इस बहस को खड़ा करके उन्होंने अपने विवादास्पद इतिहास के प्रति भी लोगों में रुचि नए सिरे से जगा दी है. आजादी का आंदोलन ऐसा दौर रहा है जब इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के पुरखों की तमाम ‘बहादुरी’ सामने आई थी. मगर इसके पहले कि हम उसकी बात करें चंद लफ्ज ‘देशद्रोह’ की इस बहस को लेकर.

वैसे देशद्रोह को लेकर जो इतना हंगामा खड़ा किया जा रहा है, उसके कानूनी पक्ष बिल्कुल स्पष्ट हैं. जाने-माने कानूनविद और संविधान विशेषज्ञ फली एस. नरीमन इंडियन एक्सप्रेस में 17 फरवरी, 2016 को प्रकाशित अपने एक आलेख में लिखते हैं, ‘भारत में देशद्रोह असंवैधानिक नहीं है, वह अपराध तभी होता है जब उच्चारे गए शब्द, भले वह लिखे या बोले गए हों, उनके साथ हिंसा और अव्यवस्था जुड़ जाती है या वह हिंसा या अव्यवस्था को बढ़ावा देते हों. महज हुल्लड़बाजी, अव्यवस्था, अन्य किस्म की हिंसा- जो भले ही दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के तहत सजा देने लायक हो, मगर वह दंड विधान की धारा 124 ए के तहत सजा लायक नहीं होती. इसी तरह, अपनी सरकार के प्रति नफरत यहां तक कि उसके प्रति जबरदस्त घृणा भी देशद्रोह नहीं समझी जाती. जब किसी व्यक्ति को ‘भारतविरोधी’ कहा जाता है तो वह भारत के नागरिकत्व के प्रति असम्मान है, मगर ‘भारतविरोधी’ होना आपराधिक कार्रवाई नहीं है और निश्चित ही वह ‘देशद्रोह’ नहीं है.’

यह बात महत्वपूर्ण है कि मौजूदा हुकूमत का वरदहस्त पाए गिने-चुने पत्रकारों और अन्य ‘चीअरलीडर्स’ को छोड़ दें तो देशद्रोह कानून के बढ़ते इस्तेमाल को प्रश्नांकित करते हुए वाम से लेकर उदारपंथियों तक ही नहीं, बल्कि आर्थिक मामलों में नवउदारवाद के समर्थक कहे जा सकने वाले बुद्धिजीवियों/पत्रकारों की ओर से भी प्रश्न उठ रहे हैं.

‘देशद्रोह कानून के अधिनायकवादी इस्तेमाल की भाजपा सरकार की कोशिशों’ को प्रश्नांकित करते हुए स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर (देखें- इकोनॉमिक टाइम्स, 17 फरवरी 2016) वर्ष 1933 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अनुभव का हवाला देते हैं. उनके मुताबिक, ऑक्सफोर्ड यूनियन ने एक विवादास्पद प्रस्ताव पर बहस रखी थी जिसका फोकस था ‘यह सदन किसी भी सूरत में राजा और मुल्क के लिए संघर्ष नहीं करेगा.’ छात्र यूनियन द्वारा अपने इस मोशन पर मतदान भी कराया गया जिसमें 275 लोगों ने प्रस्ताव के पक्ष में और 153 लोगों ने विपक्ष में मत दिया. इस ‘ऑक्सफोर्ड प्रतिज्ञा’ को बाद में ग्लासगो और मैनचेस्टर के विद्यार्थियों ने भी अपनाया जिससे समूचे ब्रिटेन में हंगामे की स्थिति बनी. जनाब अय्यर के मुताबिक इन छात्रों को डरपोक, राष्ट्रद्रोही और कम्युनिस्ट हमदर्द कहा गया मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि उन पर मुकदमा चलाया जाए.

स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर से हर हिंदुस्तानी वाकिफ रहा है. 20वीं सदी के पूर्वार्ध में नए परवान चढ़े इस दौर में एक तरफ मजूदर-किसानों के बीच एक नई जागृति सामने आ रही थी, मध्यम वर्ग के लोग आंदोलित थे, जाति व्यवस्था की सदियों पुरानी संस्था के खिलाफ और ब्राह्मणवादी मूल्यों की जकड़न के विरोध में दलितों-पिछड़ों में एक नई अंगड़ाई उठती दिख रही थी लेकिन हलचलों, आंदोलनों और उभार के इस चुनौती भरे कालखंड में संघ व उसके कार्यकर्ता दूर खड़े थे. गौरतलब है कि संघ ने अपनी तरफ से स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का एक भी कार्यक्रम कभी हाथ में नहीं लिया था. संघ के साहित्य में उसके संस्थापक डाॅ. हेडगेवार को स्वतंत्रता आंदोलन के एक अग्रणी नेता के रूप में पेश किया जाता है गोया उन्होंने उस समय के विभिन्न आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया हो. लेकिन इसमें जानने योग्य है कि उन्होंने इस हलचल भरे कालखंड में कांग्रेस के नेतृत्व में चले आंदोलन में कार्यकर्ता के तौर पर हिस्सा लिया था और जेल गए थे. और वह भी इस मकसद से कि इसके जरिये लोगों को अपनी राजनीति की ओर आकर्षित किया जा सके.

ध्यान रहे कि जिन विनायक दामोदर सावरकर की विरासत आगे बढ़ाने का हिंदुत्ववादी दावा करते हैं- वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार के दिनों में उनकी तस्वीर संसद भवन में अकारण नहीं लगाई गई थी- उन ‘स्वातंत्र्यवीर’ सावरकर के बारे में यह बात भी विदित है कि अंडमान की अपनी जेल यात्रा के दौरान अंग्रेजों के सामने माफीनामा लिख कर देने में (देखें, आरसी मजूमदार द्वारा लिखित किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स’ गैजेट्स यूनिट, डिपार्टमेंट ऑफ कल्चर, मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड सोशल वेलफेयर, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, 1975, पेज 221) और उनके निर्देशानुसार बाद में अपनी गतिविधियां चलाते रहने में कोई गुरेज नहीं किया.

1942 में जबकि समूचे हिंदुस्तान की जनता बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती की मुहिम सावरकर चलाते रहे. बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात-दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिंदू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद्व से गुजरना नहीं पड़ा, जब ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के तहत लाखों लोग जेलों में डाले गए थे.