परिणाम और परेशानी

ऐसे में सवाल यह है कि यदि इन दोनों में से कोई भी संभावना सफल हो जाती है तो क्या भाजपा सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा सकती है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले कई कांग्रेसी दबी जुबान इस संभावना को स्वीकार कर रहे हैं. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘जहां तक मैं समझता हूं भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. आखिर पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता इस बात को कैसे पचा पाएंगे?’

चमोली की यह बात काफी हद तक सही मालूम पड़ती है. बताया जाता है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने से पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी और पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह समेत और भी कुछ पुराने भाजपाई खुश नहीं थे. ऐसे में इस बात की संभावना भी है कि सतपाल महाराज को भविष्य में प्रदेश की राजनीति में अहम जिम्मेदारी दिए जाने पर भाजपाई कुनबे के कई सदस्य भड़क सकते हैं. हालांकि ऐसी स्थिति में भाजपा सतपाल महाराज को  उस सीट से राज्यसभा में भेज सकती है जो अभी-अभी भगत सिंह कोश्यारी के लोकसभा पहुंचने के बाद खाली हुई है. लेकिन इसके लिए भी सतपाल महाराज को हरीश रावत की सरकार में सेंधमारी करनी होगी.

लेकिन क्या महाराज के लिए हरीश रावत को निपटाना इतना आसान होगा ? कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी सुरेंद्र अग्रवाल की माने तो महाराज का ऐसा कर पाना असंभव है. वे कहते हैं, ‘जिन आधे दर्जन विधायकों के समर्थन का दावा सतपाल महाराज कर रहे हैं, वे सभी हरीश रावत की सरकार को समर्थन जारी रखने की बात पहले ही कर चुके हैं. ऐसे में महाराज सिर्फ ख्याली पुलाव पका रहे हैं.’ गौरतलब है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने के तुरंत बाद उनके करीबी माने जाने वाले सभी विधायकों ने महाराज का अनुसरण करने की बातों को खारिज कर दिया था.

‘भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता यह कैसे पचा पाएंगे?’

लेकिन कई लोगों का मानना है कि महाराज समर्थक विधायकों का यह रुख बदल भी सकता है, बशर्ते कांग्रेस छोड़ने में उन्हें अपना हित दिखाई दे. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘उत्तराखंड के विधायकों का चरित्र हमेशा से ही सत्ताधारी दल की जी हुजूरी करने वाला रहा है, ऐसे में बड़ा लालच मिलने पर वे किसी भी पाले में जाने को तैयार रहेंगे.’ यह बात इस लिए भी काफी हद तक सही लगती है क्योंकि उत्तराखंड की सियासत में कई मौकों पर ऐसा नजारा दिख चुका है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले मौजूदा बदरीनाथ विधायक राजेंद्र भंडारी का 2007 में भाजपा को समर्थन देना इसका सटीक उदाहरण है. तब नंदप्रयाग विधानसभा से निर्दलीय जीत कर आए राजेंद्र भंडारी ने भुवन चंद्र खंडूरी की भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया था. राजेंद्र भंडारी पूरे पांच साल तक भाजपा की सरकार में मंत्री भी रहे. इसके अलावा महाराज के एक और समर्थक माने जाने वाले निर्दलीय विधायक मंत्री प्रसाद नैथानी भी इस बार कांग्रेस सरकार को समर्थन देकर मंत्री बन चुके हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी ने विधान सभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया था.

aam_chunavलेकिन विधायकों के सत्ता की तरफ झुकाव के इन दो उदाहरणों के बीच राजीव नयन बहुगुणा एक और बात भी कहते हैं, ‘राजनीतिक कौशल के मोर्चे पर सतपाल महाराज के मुकाबले हरीश रावत ज्यादा सक्षम नेता माने जाते हैं, और बहुत संभव है कि महाराज की पत्नी को छोड़ उनके खेमे के बाकी विधायकों को वे आसानी से अपने पाले में खींच लेंगे.’ वे सवालिया अंदाज में कहते हैं, ‘दशक भर तक सर-पैर पटकने के बाद सीएम की कुर्सी पाने वाले हरीश रावत क्या इतनी आसानी से हथियार डाल देंगें?’

डैमेज कंट्रोल की कला में माहिर होने के जिस गुण की ओर राजीव नयन बहुगुणा इशारा कर रहे हैं, उसकी एक झलक रावत हाल ही में दिखा भी चुके हैं. चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही उन्होंने अपनी पार्टी के सात विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर राज्यमंत्री स्तर का दर्जा दे दिया है. इन संसदीय सचिवों में से अधिकतर असंतुष्ठ खेमों के विधायक माने जाते हैं. इसके अलवा कहा जा रहा है कि दूसरे विधायकों के कानों तक भी वे भविष्य में उपकृत करने का दिलासा पहुंचा चुके हैं. ऐसे में यदि ये माननीय उनकी सरकार की ऑक्सीजन सप्लाई जारी रखते हैं तो फिर कोई भी स्थिति हरीश रावत की सरकार के लिए खतरा पैदा करती नहीं दिखती है, क्योंकि यदि इसके बाद सतापाल महाराज की पत्नी अमृता रावत विधायकी से इस्तीफा दे भी देती हैं, तब भी सरकार के पास 39 विधायकों का समर्थन रहेगा, जो कि बहुमत की संख्या से अधिक है. गौरतलब है कि बसपा और निर्दलीयों के गठजोड़ से बने पीडीएफ के सात सदस्य पहले से ही सरकार में सहयोगी हैं. हालांकि जानकारों की मानें तो सतपाल और भाजपा पीडीएफ पर भी लगातार डोरे डालने का काम जारी रखे हुए हैं.

एक संभावना पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के उन कदमों को लेकर भी बन रही है जिनको लेकर पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के राजनीतिक हलकों में खुसुर-फुसुर हो रही थी. दरअसल कुछ दिन पहले पत्रकारों ने विजय बहुगुणा से उनको सीएम की कुर्सी से हटाए जाने को लेकर सवाल पूछा था. टिहरी सीट पर अपने बेटे के चुनाव प्रचार के दौरान पूछे गए इस सवाल पर बहुगुणा ने 16 मई के बाद जवाब देने की बात कही थी. उनके इस जवाब के बाद एक आशंका यह बनी कि यदि भाजपा उनके राजनीतिक पुनर्वास का ठीक-ठाक इंतजाम करती है तो अपने समर्थक विधायकों के साथ वे भी भाजपा में शामिल हो सकते हैं. लेकिन जानकारों का एक वर्ग इस बात की बेहद कम गुंजाइश मान रहा है. दाताराम चमोली कहते हैं, ‘इस बात की संभावना न के बराबर है कि विजय बहुगुणा भाजपा में चले जाएं. 16 मई के बाद जवाब देने से उनका मतलब शायद यह रहा होगा कि हरीश रावत अपने नेतृत्व में कितनी सीटें ला पाते हैं. वैसे भी महाराज के भाजपा में जाने पर बहुगुणा ने हरीश रावत के खिलाफ हमले किए थे और आलाकमान तक संदेश पहुंचाया था कि महाराज को मनाया नहीं जा सका, जबकि वे अपने कार्यकाल में सभी को साथ लेकर चलने में कामयाब रहे थे. अब कांग्रेस के इतने खराब प्रदर्शन के बाद बहुगुणा का निशाना भी हरीश रावत की तरफ ही होगा.’

बहरहाल इन सारी आशंकाओं और संभावनाओं को लेकर जितने मुंह उतनी बातों वाला माहौल चरम पर है, ऐसे में सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि हरीश रावत का मिशन डैमेज कंट्रोल कामयाब हो पाता है या अपने भक्तों के बीच अवतारी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध सतपाल महाराज उत्तराखंड की राजनीति में किसी नए अवतार को जन्म देते हैं.

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