मौजूदा कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी जिस प्रशासनिक तंत्र की है, उसको मजबूत करने पर ध्यान ही नहीं जाता, जो कि अपने आप में चुनौती भरा काम है और जिसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है. उदाहरण के लिए पुलिस को ले लीजिए. थानों में क्या हालात हैं? आप कानून चाहे जितना भी सख्त बनाकर पास करते रहिए, उसको लागू करने वाले तंत्र में ही अगर खामी है, तो वह कानून प्रभावी तरीके से कैसे लागू होगा? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए पुलिस में ताबड़तोड़ भर्तियां की गई थीं लेकिन वही तत्परता महिला और बाल सुरक्षा के लिए दिखाई नहीं पड़ती. अपराधी को दंडित करने वाली न्याय प्रक्रिया और प्रणाली में अन्वेषण और दोष सत्यापन के मानदंड बहुत मजबूत हैं और काम के बोझ से पस्त, संसाधन विहीन पुलिस के लिए उस स्तर की विवेचना कर पाना बेहद दुष्कर होता है. नतीजा ये निकलता है कि अपराधी अदालत से भी बच निकलता है.
पुलिस को जब तक समुचित संसाधनों से लैस नहीं किया जाता, पुलिस-नागरिक अनुपात एक स्वीकार्य स्तर तक नहीं लाया जाता, अपराधी व्यवस्था की खामियों का फायदा उठा कर बच निकलते रहेंगे. दंड की मात्रा से कहीं ज्यादा प्रभावी है दंड मिलने की प्रक्रिया काे सुनिश्चित किया जाए. एक बार अपराधियों की समझ में ये आ जाए कि अपराध करके आप बचकर निकल नहीं पाएंगे, तब कहीं जाकर अपराधियों के दिल में डर आएगा. कानून की किताब में चाहे आजन्म कारावास ही क्यों न लिख दिया जाए, अगर वो सजा मिल पाना ही मुश्किल है तो ऐसे कानून का क्या फायदा? बलात्कारियों को बधियाकरण को अनुमति देने को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में टिप्पणी की है. हमारे स्वनामधन्य मुख्यधारा के सनसनीखेज मीडिया के चलते सारा ध्यान सिर्फ बलात्कारियों के बधियाकरण के प्रस्ताव पर चला गया है लेकिन उस फैसले में दस सलाह और दस निर्देश भी हैं जोकि दूरगामी और निश्चित परिणाम देने वाले हैं. उन पर भी तो कोई ध्यान दे.
एक सलाह है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को विखंडित करके बच्चों के लिए एक बिल्कुल अलग मंत्रालय बनाने की. राजस्थान सरकार ने कुछ समय पहले इस विचार की प्रभावशीलता को पहचाना और एक संबद्ध विभाग के अंदर ही एक अलग और लगभग स्वतंत्र और सक्षम बाल अधिकारिता निदेशालय का गठन किया है. बच्चों से जुड़े मामलों पर एक सतत और केंद्रित तरीके से नीति निर्माण और कार्यान्वयन की दृष्टि से ये अच्छा कदम है. रोकथाम और सुरक्षा को लेकर समुदाय के स्तर पर चेतना निर्माण पर काम होना चाहिए. पुलिस की क्षमता बढ़ाई जाए, उनको अच्छा माहौल और संसाधन दिए जाएं ताकि वो ठीक से अच्छी गुणवत्ता का काम कर पाए. निचली अदालतें, जहां ऐसे मुकदमे सुने जाते हैं वहां का माहौल और कार्यपद्धति बच्चों की सुविधा और सहजता के अनुरूप रखने पर गंभीरता से काम हो. इन सब उपायों के अलावा जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो है सामाजिक जिम्मेदारी. सारा ठीकरा हम सरकार और व्यवस्था के सिर ही नहीं फोड़ सकते. किस तरह का समाज हम बच्चों को दे रहे हैं, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है. आजकल के गीत-संगीत की बात करें तो ‘लल्ला-लल्ला लोरी से लेकर दारू की कटोरी’ तक की स्वीकार्यता का सफर तो हम लोगों ने ही तय किया है न! लड़ाई झगड़े होने पर मां-बहन को विदूषित कर डालने की गालियों का प्रयोग हमारी मानसिकता का ही तो प्रतिबिम्ब है. कानून क्या करेगा इसमें?
बड़ों के द्वारा बच्चों की बात-बात पर पिटाई कर देना और बच्चों द्वारा उसे चुपचाप स्वीकार किया जाना तो हमें सामाजिक मूल्य की तरह ही सिखाया गया है. जब हम बच्चे को बड़ों की हिंसा स्वीकार करना सिखा रहे होते हैं तो ये नहीं ध्यान में आता कि बड़ों द्वारा लैंगिक अतिक्रमण भी बच्चे को हिंसा ही लगता है और फिर किसी और हिंसा की तरह ही बच्चा अपने को दोष देता है बजाय मुखर होने और प्रतिकार करने के. इसी तरह भाई जब बहन को मारना और बाल नोचना सीख रहा होता है तब हम उसमें बाल चंचलता देखते हैं और अगर बहन उलटकर एक थप्पड़ मार दे तो सब उस पर टूट पड़ते हैं. भाई यही देखता और करता बड़ा होता है. गौर करने वाली बात ये है कि उस समय हम उसे स्त्री-पुरुष का शक्ति समीकरण सिखा रहे होते हैं! ये हमारे ही तो भाई और बेटे होते हैं जो आगे चलकर दूसरों का अतिक्रमण करते पाए जाते हैं. शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा के बीज अलग-अलग नहीं होते.
(लेखक अधिवक्ता हैं)