अनीस का अंतहीन संघर्ष

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डॉ. अनीस उल हक दिल्ली के चांदनी चौक में एक छोटा-सा डेंटल क्लीनिक चलाते हैं. सौ गज का क्लीनिक है पर जिधर देखो, उधर फाइलें. खास बात यह है कि ये फाइलें डॉक्टरी के पेशे से जुड़ी हुई नहीं हैं. उनमें तो छिपी है डॉक्टर अनीस उल हक के अंतहीन संघर्ष की दास्तान. संघर्ष, जो वह शत्रु संपत्ति कानून से अपने पूर्वजों की संपत्ति बचाने के लिए कर रहे हैं. पर अब उन्हें लगता है कि उनके अंतहीन संघर्ष का दुखद अंत नजदीक है. वे कहते हैं, ‘30 सालों से अपना हक पाने के लिए लड़ रहा हूं. 20 सालों तक मेरे पिता लड़ते रहे. अब आज सरकार एक कानून ला रही है, जो मेरे उस संघर्ष का अंत करने वाला है.’ वे याद करते हुए बताते हैं, ‘मेरे पिता अपनी फूफी के साथ रहा करते थे. 1955 में फूफी गुजर गईं. उनके बच्चे पाकिस्तान चले गए थे. फूफी के नाम बहुत-सी जायदाद थी, जो किराये पर उठा रखी थी. जिसकी देख-रेख पिता जी के हाथ में थी. विवाद उसी जायदाद को लेकर है.’ 1965 में किराये के लिए डॉ. अनीस के पिता का एक किरायेदार से झगड़ा हुआ. उसने जाकर शिकायत कर दी कि यह संपत्ति पाकिस्तान जा बसे लोगों की है. मामला कोर्ट पहुंचा, डॉ. अनीस के पिता की हार हुई. डॉ. अनीस के अनुसार फिर वह हाई कोर्ट गए. 1979 में हाई कोर्ट ने फैसला उनके पक्ष में दिया. फिर उसी किरायेदार ने पिटीशन लगाकर मांग की कि फूफी के बच्चों को पाकिस्तानी नागरिक घोषित किया जाए. पर कोर्ट में यह साबित नहीं हो सका कि वे पाकिस्तानी नागरिक हैं. फैसला आया कि वे अस्थायी रूप से पाकिस्तान में रह रहे हैं, इसलिए उन पर यह कानून लागू नहीं होता. इस फैसले के बाद फूफी के बच्चों ने वह जायदाद डॉ. अनीस को भेंट कर दी. डॉ. अनीस बताते हैं, ‘इसके लिए आवश्यक भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति भी ली गई थी. हम निश्चिंत थे. जायदाद से संबंधित कर भी चुका रहे थे. पर 1985 में सीईपी ने नोटिस थमा दिया कि यह शत्रु संपत्ति है.’

तब से ही डॉ. अनीस का अंतहीन संघर्ष जारी हुआ. हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे खटखटाए. अब फिलहाल मामला सीईपी के हाथ में है. वे कहते हैं, ‘मेरे मालिकाना हक पर कस्टोडियन, सरकार और अदालत ने आज तक सवाल नहीं उठाया, बस मुझे जायदाद का मैनेजमेंट नहीं सौंपा गया. मालिकाना हक मेरे पास है, तभी तो 60 सालों तक कर चुकाता रहा हूं. दायित्व मैं निभा रहा हूं तो जायदाद उनकी कैसे? सीईपी के पास मैं दो रिमांइडर भेज चुका हूं. फिर से भेजने की सोच रहा था. लेकिन तब तक सरकार अध्यादेश ले आई. सारे अधिकार कस्टोडियन को. न उपहार चलेगा, न उत्तराधिकार.’ फाइलों की तरफ देखते हुए वे पूछते हैं, ‘पचास सालों के इस संघर्ष का क्या? दो जिंदगियां बर्बाद हो गईं. जमाने से मुकदमे लड़ रहे हैं. जितना कमाया नहीं, उतना इनमें गंवा दिया. हमेशा तनाव में रहा, ढंग से काम भी नहीं कर सका. अब एक झटके में सब पर पानी फिर जाएगा. मैंने संघर्ष किया, इसलिए नहीं कि उस जायदाद से मैं रईस बन जाऊंगा. सिर्फ इसलिए कि मेरे पूर्वजों की यादें जुड़ी हैं उससे. उनकी हड्डियां हैं वे. इस जायदाद से एक भावनात्मक लगाव है जो दिमाग खराब करता है. अंत में वे कहते हैं, ‘सरकार बस अपने ही नागरिकों को नुकसान पहुंचा रही है, किसी और को नहीं.’