अस्तित्व की लड़ाई

I

‘कॉल मी कैटलिन’ (मुझे कैटलिन बुलाएं), उसने कहा और पूरी दुनिया भड़क उठी. यह प्रसिद्ध पत्रिका ‘वैनिटी फेयर’ के जुलाई 2015 के कवर पर लिखा वाक्य था, जो हाल ही में ऑपरेशन के जरिये पुरुष से महिला में तब्दील हुए प्रसिद्द अमेरिकी एथलीट और अभिनेता ब्रूस जेनर (अब कैटलिन जेनर) के बारे में था. गौरतलब है कि ब्रूस अमेरिका के प्रसिद्ध करदशियां परिवार से भी ताल्लुक रखते हैं. ब्रूस ने तीन शादियां की थीं. तीसरी शादी उन्होंने अभिनेत्री क्रिस करदशियां से की, जिससे उनकी दो बेटियां मॉडल- कैंडल और कायली जेनर हैं. क्रिस करदशियांं की पहली शादी से तीन बेटियां- कर्टनी, किम और कोह्ल करदशियां हैं. इस तरह से ब्रूस उनके सौतेले पिता हैं. बहरहाल पत्रिका के इस कवर ने ट्रांसजेंडरों के मुद्दे को मीडिया विमर्श के केंद्र में ला दिया है.

ट्रांसजेंडर हमारे समाज का एक बहिष्कृत अंग समझे जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उनको बेइज्जती और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. अगर आपको लगता है कि ऐसे माहौल में जीना मुश्किल है, जहां महिलाओं को शर्मिंदा किया जाता है, रोने वाले पुरुषों का मजाक बनाया जाता है, तो हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है जहां से इसकी शुरुआत होती है, जहां हम पैदा होते ही लड़के और लड़कियों को क्रमशः नीले और गुलाबी रंग के कोड में बांट देते हैं. सोचिए ऐसे वर्गीकृत समाज में उनकी क्या दशा होती होगी जो समाज के बनाए पैमाने पर फिट ही नहीं बैठते.

इस बारे में देश की पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’

सीबीएसई की 12वीं की जीव विज्ञान की किताब के तीसरे पाठ का शीर्षक ‘मानव प्रजनन’ है, जिसमें बताया गया है कि मानव जाति किस तरह प्रजनन करती है और कैसे पुरुष और नारी के जननांग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. इसी शारीरिक अंतर के कारण लिंग दो भागों यानी स्त्री और पुरुष में बांटे गए हैं.

हालांकि हर व्यक्ति का लिंग उसके जन्म के समय निर्धारित हो चुका होता है पर ये जरूरी नहीं कि वही लिंग ही उसकी पहचान हो. बस इन दोनों बातों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाना ही हमारे देश में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को हाशिये पर धकेल देता है. इस साल 15 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए इस सोच के दायरे से आगे निकलने की कोशिश की. तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद थिरु तिरुची सिवा की राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल (2014) की प्रस्तावनाओं को संज्ञान में लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को सभी ट्रांस-पीपुल को कानूनी पहचान देने का आदेश दिया. जहां एक तरफ इस निर्णय को एक उपेक्षित तबके को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास के रूप में सराहना मिली, वहीं इस फैसले को पूरे देश के ट्रांस पुरुषों और ट्रांस महिलाओं की आलोचना भी झेलनी पड़ी.

पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’

इस फैसले की भाषा पर सवाल उठाते हुए ट्रांस-मेन और सामाजिक कार्यकर्ता जी. इमान सेम्मलर कहते हैं, ‘कोर्ट ने सभी किन्नरों को ‘थर्ड जेंडर’ कहा है. कोर्ट ने कहा है कि वे महिला नहीं हैं क्योंकि उनके पास प्रजनन अंग नहीं हैं, उन्हें मासिक स्राव नहीं होता और वे ‘बधिया पुरुष’ हैं.’

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय में ट्रांसजेंडर समुदाय के उत्थान के लिए बनाई गई कई नीतियां दोधारी तलवार के जैसी हैं. जी. सेम्मलर आगे बताते हैं, ‘2010 में कर्नाटक सरकार ने इस समुदाय को लाभावित करने के लिए आदेश जारी किए थे जिन्हें अब अन्य पिछड़ा वर्ग की 2ए श्रेणी में जोड़ दिया गया है. हम अब तक इसके लागू होने की राह देख रहे हैं जबकि ऐसी अफवाहें रही हैं कि समुदाय के लिए जो काम कराए जाएंगे, उसके अधिकार एनजीओ को देकर उन्हें फायदा पहुंचाया जाएगा. अप्रैल 2011 में, कर्नाटक सरकार ने, पूर्व कानून सचिव और कर्नाटक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के पूर्व उपाध्यक्ष केआर चमय्या के आदेश के अनुसार स्टेट पुलिस एक्ट में सेक्शन 36 लाकर कुछ संशोधन किए गए थे. इस सेक्शन का उद्देश्य किन्नरों द्वारा की जाने वाली आपत्तिजनक गतिविधियों की रोकथाम था. इसके अनुसार पुलिस को उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले ऐसे सभी किन्नरों का रिकॉर्ड रखना था जिन पर छोटे लड़कों को अपहृत करने या अप्राकृतिक अपराध करने का शक हो. ये क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट का हिस्सा है जिसका देश में अब भी पालन हो रहा है जबकि हम सुप्रीम कोर्ट के ट्रांस-पीपुल को पहचान देने के अधिकार की खुशी मना रहे हैं.’

दशकों तक समाज से बहिष्कृत रहे इस समुदाय को पहली बार हैदराबाद यूनक एक्ट में ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित किया गया था. ये एक्ट 1871 के एक पुराने और क्रूर क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट पर आधारित है, जिसमें कुछ विशेष जाति और जनजातियों को शामिल किया गया है, जिन्हें जन्म से ही अपराधी माना जाता है. इसके तहत सभी हिजड़ों, जो बच्चों के अपहरण या उन्हें बधिया बनाने या फिर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के तहत किए गए किसी अपराध के लिए शक के दायरे में हों, के नाम और पते दर्ज करने के बारे में कहा गया है. इसी के अनुसार देश के ट्रांसजेंडर लोगों को अपराधी मान लिया गया और एक नागरिक के बतौर उन्हें मिलने वाले मूल अधिकारों को भी छीन लिया गया. किसी भी पहचान पत्र या कानूनी कागज के न होने की स्थिति में देश में इस समुदाय के लोग स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार के अवसरों से वंचित और मुख्यधारा से कटे हुए हैं. ऐसे में इतने लंबे समय की पीड़ा के बाद ट्रांसजेंडरों को कानूनी पहचान देने की बात मरहम की तरह लगती है.

Vyjayanti Vasanta Mogli WEB
विजयंती वसंत मोगली

एक व्यक्ति ‘एस’ दक्षिणी दिल्ली के एक सुनसान इलाके में अपना छोटा सा व्यापार करते हैं. अपने ग्राहकों से वे बहुत ही अच्छी तरह से पेश आते हैं. उनके इस रवैये के बावजूद उनकी दुकान में आने वाले पुरुषों का उनके स्त्रैण व्यवहार पर ताने मारना बंद नहीं होता. वह कहते हैं, ‘बचपन से ही मेरी सारी दोस्त लड़कियां ही थीं, मुझे उनकी तरह तैयार होना भी बहुत अच्छा लगता था. पर अब ऐसा संभव नहीं है. ऐसा करूंगा तो लोग मुझसे पूछेंगे कि क्या मैं छक्का हूं.’ वे खुद को पुरुष ही कहते हैं और विवाहित भी हैं.

बॉलीवुड की फिल्मों में प्रचलित ‘छक्का’, ‘पोट्टई’ (तमिल भाषा का एक अपमानजनक शब्द, जिसका अर्थ न स्त्री न पुरुष होता है), ‘अली’ (ट्रांसजेंडर से संबंधित एक तमिल शब्द) जैसे शब्दों ने भी ट्रांस लोगों के प्रति भेदभाव को और बढ़ाया है. ये सिर्फ आम लोगों की बात नहीं है बल्कि मीडिया कर्मचारी और सुप्रीम कोर्ट भी इनके लिए इस तरह की भाषा और शब्द प्रयोग करने के प्रति संवेदनहीन ही रहे हैं. इस तरह के भेदभावों के चलते ही कई ट्रांसजेंडर अपनी असली पहचान नहीं बताते. तेलंगाना हिजड़ा ट्रांसजेंडर समिति की सदस्य विजयंती वसंत मोगली अपने अनुभव बताती हैं, ‘मुझे ये काफी पहले पता लग गया था कि मेरा झुकाव हेट्रोसेक्सुअल (विपरीत लिंगी) नहीं है. मैंने अपने माता-पिता से कह दिया था कि मैं किसी लड़की से शादी नहीं कर पाऊंगी. उस समय मुझे लगा था कि मैं एक समलैंगिक पुरुष हूं जिसका व्यवहार, चाल-ढाल औरतों की तरह है. पर जब मैंने समलैंगिक पुरुषों के साथ रहना, उठना-बैठना शुरू किया तब भी मैं असहज ही थी. ये पूरी तरह आदमियों की दुनिया थी और मैं उनकी तरफ आकर्षित भी थी, पर तब भी मुझे महिलाओं के साथ ज्यादा अच्छा लगता था, तो क्या मैं एक हिजड़ा थी? क्या मेरे घरवाले और दोस्त इस बात को समझेंगे? मैं खुद से ही सवाल करती कि मैं हिजड़ा हूं! नहीं… नहीं… ऐसा तो नहीं हो सकता! इसी पसोपेश में मैंने हिजड़ों के साथ में काफी वक्त बिताया और तब मुझे पता चला कि मैं हिजड़ा नहीं बल्कि ट्रांस-वुमन हूं. इतनी उलझनों के बाद ये समझ पाना सूखे रेगिस्तान में ठंडी हवा के मिलने जैसा था.’

विजयंती वसंत मोगली सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं. उनका नाम ‘विजय’ था. स्कूल के दिनों में ही अलग तरह का व्यक्तित्व हाेने के नाते उनके साथ पढ़ने वाले उन्हें परेशान किया करते थे. उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता था. उनके अनुसार, ‘उस समय मुझे लगा था कि मैं एक समलैंगिक पुरुष हूं जिसका व्यवहार, चाल-ढाल औरतों की तरह है. पर जब मैंने समलैंगिक पुरुषों के साथ उठना-बैठना शुरू किया तब भी मैं असहज ही थी. ये पूरी तरह आदमियों की दुनिया थी और मैं उनकी तरफ आकर्षित भी थी, पर तब भी मुझे महिलाओं के साथ ज्यादा अच्छा लगता था.’

भारत में ट्रांस महिलाओं के लिए कई समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में हिजड़ा, कोठी, किन्नर, अरवानी आदि पुकारा जाता है. जहां कई ट्रांस महिलाओं को विजयंती की तरह परिवार और दोस्तों का साथ मिलता है वहीं तमाम दूसरे लोगों के लिए ये इतना आसान नहीं होता. ऐसी ट्रांस महिलाओं को ये ट्रांसजेंडर समुदाय अपना लेते हैं. डांसर और कोरियोग्राफर सौंदर्या बताती हैं, ‘मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैंने उन्हें शर्मिंदा किया है और अगर मैं घर पर रही तो वे मर जाएंगे. 12 साल की उम्र में मुझे घर से निकाल दिया गया. मैं 12 दिन तक सड़कों पर रही, खुद को बारिश से बचाने के लिए रिक्शा स्टैंड पर सोती. जब मैं उम्मीद के साथ फिर घर पहुंची, किसी ने मुझसे नहीं पूछा कि मैं कहां, किस हाल में रही. मेरे पिता ने मुझे मारा और घर से निकल जाने को कहा.’

सौंदर्या के पास कोई जगह नहीं थी जहां वो जा सकती थीं. वे एक भीख मांगने वाले रैकेट में फंसीं. वहां से किसी तरह भागने में सफल रहीं. हालांकि बाद में रैकेट चलाने वालों ने उन्हें पकड़ लिया और खूब मारा. खून से लथपथ सौंदर्या को वे सड़क पर छोड़कर चले गए. 2009 में वे ट्रांसजेंडर अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक्टिविस्ट, अभिनेत्री और व्यवसायी कल्कि सुब्रहमण्यम से मिलीं, और जीवन में पहली बार अपनी पहचान के बारे में कुछ सकारात्मक सुना. कल्कि ने उन्हें समझाया, ‘तुम्हे जीने के लिए भीख मांगने या सेक्स वर्कर बनने की जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे लिए कुछ और ढूंढ लेंगे.’

Kalki Subramanyam web
कल्कि सुब्रह्मण्यम

जहां एक तरफ समाज में ट्रांस-महिलाएं आसानी से देखी जा सकती हैं, वहीं ट्रांस-पुरुष उतनी आसानी से नहीं दिखते. चूंकि ट्रांस-महिलाओं की तरह उनका कोई सामजिक या राजनीतिक संगठन नहीं बन पाता इसलिए समाज में बिखरे हुए इन लोगों को कई बार ट्रांसजेंडर की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता. फरवरी 2015 में दक्षिणी दिल्ली के एक नामी कॉलेज कैंपस में एक डीजे पार्टी चल रही थी. लोग संगीत की धुन पर थिरक ही रहे थे कि अचानक नशे में दो लड़के महिला हॉस्टल की एक रहवासी से झगड़ा और मारपीट करने लगे. पार्टी अचानक ही खत्म हो गई और हॉस्टल के रहवासियों ने एक मीटिंग बुलवाई. खुद को ट्रांस-पुरुष कहने वाले ‘एसके’, जो इस मीटिंग को संबोधित कर रहे थे, बताते हैं, ‘मैं और मेरी एक दोस्त साथ में डांस कर रहे थे जब दो लड़कों ने मेरी दोस्त को परेशान करना शुरू कर दिया, मैंने बीच-बचाव किया तो उन्होंने मुझ पर ही हमला कर दिया. मैं शारीरिक रूप से मजबूत हूं इसलिए मैंने भी पलटवार किया. आप सोच भी नहीं सकते कि अगर मेरी जगह कोई लड़की होती तो क्या हुआ होता.’ जब उन लड़कों को सफाई देने के लिए बुलाया गया तो वे माफी मांगते हुए बोले, ‘हमें लगा तुम पुरुष ही हो.’

कल्कि सुब्रहमण्यम सामाजिक कार्यकर्ता और अभिनेत्री हैं. कल्कि के परिवारवालों को उनका अलग तरह का व्यक्तित्व स्वीकार नहीं था. उनके अभिभावक उन्हें पुरुष हार्मोन बढ़ाने की गोलियां खिलाया करते थे.

दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए कर रहे ‘एन’ उदासी से अपने दोस्तों को मस्ती करते देखते हैं. वह कहते हैं, ‘मैंने अब तक अपने परिवार को नहीं बताया है कि मैं ट्रांस-मैन हूं, मुझे नहीं पता कि कब मैं उन्हें ये कहने की हिम्मत जुटा पाऊंगा. वो सिर्फ इतना चाहते हैं कि मुझे अच्छी नौकरी मिल जाए. मैं इसके लिए मेहनत करने को तैयार हूं. एक बार मैं उनकी इच्छाएं पूरी कर लूं फिर मैं उतना पैसा कमाना चाहता हूं, जिससे मैं अपनी सर्जरी करवा सकूं.’

ऐसी सर्जरी, जो किसी ट्रांसजेंडर को उसके मनचाहे जेंडर के शरीर में बदल दे, इसे सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) के नाम से जाना जाता है. यह विवाद का भी विषय है. विवाद ये है कि सरकार ये समझ ही नहीं पाती कि जेंडर व्यक्ति की शारीरिक संरचना नहीं बल्कि रुचि पर निर्भर करता है. विजयंती बताती हैं, ‘हाल ही में पश्चिम बंगाल के गजेट ऑफिस में किसी भी व्यक्ति को ट्रांसजेंडर घोषित करने से पहले उसका एसआरएस प्रमाण पत्र अनिवार्य कर दिया. पर ऐसे लोग भी हैं जो किसी भी जेंडर के होने के बावजूद अपने शरीर/शारीरिक पहचान से संतुष्ट हैं, उन्हें सर्जरी की जरूरत नहीं लगती.’

राइट्स फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल ट्रांस-लोगों के लिए एक कानूनी संगठन ‘नेशनल कमीशन फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स’ बनाने की बात कहता है, लेकिन राष्ट्रीय महिला आयोग, जहां सिर्फ महिला सदस्य हैं, के बिलकुल उलट नेशनल कमीशन फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स के सात सदस्यों में से सिर्फ तीन ट्रांसजेंडर सदस्य रखने का प्रावधान किया गया हैं. अध्यक्ष को मिलाकर बाकी चार सदस्य ट्रांसजेंडर नहीं हैं. इस स्पष्ट भेदभाव को जानते हुए भी अब तक किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई है कि ट्रांसजेंडरों को भी महिलाओं के समान अधिकार मिलने चाहिए.

इसके उलट देश के समलैंगिकों का ट्रांसजेंडरों के अधिकारों के प्रति दूसरा ही नजरिया है. समलैंगिक अधिकारों पर लिखने वाली पत्रकार शाम्भवी सक्सेना समलैंगिक के रूप में अपने अनुभवों के बारे में भी लिख चुकी हैं, वे बताती हैं, ‘एक आम आदमी ‘क्वीर (समलैंगिक) प्राइड परेड’ को गे परेड ही समझता है, उसे बाकी ट्रांसजेंडर के बारे में कुछ पता ही नहीं है. ये साफ बताता है कि कौन अपनी इस पहचान का फायदा उठा रहा है. पूरे विश्व में ‘गे’, ‘लेस्बियन’  की तुलना में कहीं ज्यादा संगठित हैं, तो ऐसे में इन दोनों के मुकाबले में ट्रांसजेंडर कहीं हाशिये पर ही चले गए हैं. भारत के समलैंगिक आंदोलनों में तो जाति और वर्ग की दीवार भी है. ऐसे ट्रांस लोग जो प्रभावहीन या साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं, उनका इस आंदोलन में नामोनिशान तक नहीं है. ये सिर्फ अमीरों का अभियान बन कर रह गया है. इन प्राइड परेडों में आने वाले लोगों पर नजर डालिए, साफ लगता है कि ये वो लोग हैं, जो गे होने में समर्थ हैं यानी गे होना अफोर्ड कर सकते हैं. मेरे ख्याल से गे और लेस्बियन दोनों ही समान रूप से ट्रांस और इंटरसेक्स (जिनमें महिला-पुरुष दोनों के जननांग और प्रजनन अंग होते हैं) लोगों की ‘जैविक रूप से असाधारण व्यक्ति’ वाली पहचान बनाने के जिम्मेदार हैं.’

Colours of Trans 2.0 WEB
नाटक कलर ऑफ ट्रांस 2.0

ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल में ट्रांस-पीपुल को निजी क्षेत्र में दो प्रतिशत रोजगार देने का प्रावधान रखा गया है. कई मल्टीनेशनल कंपनियां जैसे गूगल, आईबीएम और फेसबुक ‘एलजीबीटी’ फ्रेंडली होने की बात कहती हैं पर वो सिर्फ गे और लेस्बियन के बारे में ही परवाह करती हैं. विजयंती सवाल उठाती हैं, ‘एलजीबीटी फ्रेंडली से उनका क्या अर्थ है? ज्यादातर कंपनियां एलजीबीटी में से सिर्फ गे और लेस्बियन लोगों को ही नौकरी देती हैं. यहां ट्रांसजेंडरों के अधिकार सुरक्षित करने की जरूरत है क्योंकि उनकी पहचान गे और लेस्बियन के विपरीत साफ दिखाई देती है. गे या लेस्बियन का देखकर पता नहीं लगता, वे किसी भी आम इंसान की तरह ही दिखते हैं जब तक कि वे खुद इस बारे में न बताएं. ट्रांसजेंडरों के साथ ऐसा नहीं होता.’ लेस्बियन-गे-बाईसेक्सुअल की लड़ाई उनकी यौन रुचि और झुकाव की बात करती है, जबकि ट्रांसजेंडरों का अभियान उनकी पहचान के लिए है. परिणामस्वरूप, बाहर निकल कर अपनी असली पहचान बताने का ये अभियान इस तरह के भेदभाव के चलते ट्रांसजेंडरों के लिए महत्वहीन हो जाता है. जी. इमान सेम्मलर का कहना है, ‘एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल-ट्रांसजेंडर को जब संक्षिप्त रूप में लिखते हैं तो जो क्रम आता है उसे ही देख लीजिए. ट्रांसजेंडर सबसे पीछे हैं और इंटरसेक्स तो इसमें जगह तक नहीं बना सके.

पिछले दिनों अमेरिका के बोस्टन में भारत के पन्मई थियेटर ग्रुप के प्ले ‘कलर ऑफ ट्रांस 2.0’ को दर्शकों की ओर से काफी प्रशंसा मिली. ट्रांस-वुमन अभिनेत्री स्माइली विद्या, एंजेल ग्लेडिस और ट्रांस-मेन जी सेम्मलर द्वारा अभिनीत ये नाटक भारत में ट्रांसजेंडरों के संघर्ष को दिखाता है. इस संघर्ष में स्वयं के अलावा उनका साथ देने वाला कोई नहीं है. शायद इसीलिए ये लोग खुद को ट्रांसजेंडर नहीं बल्कि ट्रांस-वॉरियर (योद्धा) कहते हैं.

सरकार, कानून और प्रतिद्वंद्वियों (महिलाएं और समलैंगिक अधिकारों के कार्यकर्ता) के बार-बार अड़चन डालने के बावजूद देश में ये ट्रांस आंदोलन चल रहा है. सेम्मलर कहते हैं, ‘मैं एक ट्रांस-मैन हूं. मैं अपने समुदाय के साथ रहता हूं, उनके साथ काम करता हूं, उन्हें प्यार करता हूं. मुझे लगता है कि हमारे समुदाय के बारे में परवाह करने वाले स्वयं हम ही हैं और हमें अपनी आजादी के लिए लगातार प्रयास करते रहना होगा क्योंकि जब हम संघर्षों की बात करते हैं तब एकजुट होने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. मेरा मानना है जिस दिन सड़क किनारे रहने वाले ट्रांसजेंडर वर्ग के लोग, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बिलकुल हाशिये पर हैं, अपनी पहचान, अपनी आजादी पा लेंगे, उसी दिन बदलाव आ जाएगा.