एटीपीएस जो काम चोरी छिपे कर रहा है वही काम हिंडाल्को की ऊर्जा उत्पादन इकाई रेणुसागर थर्मल पॉवर कंपनी लिमिटेड खुलेआम कर रही है. बिड़ला की रेणुसागर थर्मल पॉवर परियोजना भी रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र के ठीक किनारे पर स्थित है. यहां पहुंचने पर एक और नंगा सच दिखता है. रेणुसागर संयंत्र से निकलने वाली राख का एक बड़ा हिस्सा सीधे ही रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र में पाटा जा रहा है. इस स्थिति का संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा? जब यह सवाल हम सोनभद्र के जिलाधिकारी पंधारी यादव के सामने रखते हैं तो वे तर्क देते हैं, ‘पुराने बने प्लांट अपने कचरे का निपटारा इसी तरह से करते आए हैं. प्रदूषण क्लियरेंस जैसी चीजें तो 10-15 साल पुरानी हैं. इससे पहले ऐसे ही राख का प्रबंधन होता था. अब हमने मानकों को काफी कड़ा कर दिया है. चीजें रातों-रात तो बदलेंगी नहीं.’
इसके दूसरे छोर पर गरबंधा गांव है जो कोयले की धूल में ही सांस लेने को विवश है. इस गांव के बारे में हमें कुसमहा गांव के पास स्थित वनवासी सेवा आश्रम चलाने वाली शुभा बहन बताती हैं. वहां हमने पाया कि रेणुसागर ने इस गांव की चारदीवारी पर ही अपना कोल हैंडलिंग प्लांट लगा रखा है. 24 घंटे कोयला लादते-उतारते ट्रक इस इलाके में दौड़ते रहते हैं और कोयले की धूल उड़-उड़ कर गरबंधा पर अपनी काली छाया डालती रहती है.
इसी तरह रेणुकूट के समीप जंगल में रिहंद के किनारे-किनारे करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर डोंगियानाला पहुंचा जा सकता है. वहां की हवा में दूर-दूर तक रासायनिक तत्वों की महक घुली हुई है. किनारों पर जमी हुई सफेद रंग की तलछट इस बात का इशारा कर रही है कि यहां का पानी साफ तो कतई नहीं है. नाले के मुहाने पर पहुंचने पर दृश्य और भी भयानक हो जाता है. रिहंद के जलग्रहण वाले क्षेत्र में रासायनिक कचरे की मोटी-मोटी परतें जमी हुई दिखती हैं. रासायनिक कचरे वाला यह पानी कनोरिया केमिकल्स लिमिटेड से आ रहा है. वहीं मुहाने पर बैठी कुछ महिलाएं उसी प्रदूषित पानी को अपनी बाल्टियों में भरकर घरेलू इस्तेमाल के लिए ले जा रही हैं. जिस पहाड़ी रास्ते से यह रासायनिक कचरे वाला पानी आता है उस रास्ते के पत्थर भी ब्लीचिंग सोडा के चलते कट-छंट गए हैं. ऐसे विषाक्त पानी में जलीयजीवन की कल्पना करना भी मूर्खता है. शुभा बहन एक बड़े खतरे का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘इस पूरे इलाके में जितना प्रदूषण एटीपीएस और कनोरिया कैमिकल्स फैला रहे हैं उतना ही योगदान हिंडाल्को एलुमिनियम का भी है. रिहंद से आगे जाने वाली नदी की धारा में हिंडाल्को का रेडमड (यानी लालरंग का कचरा) प्रदूषण फैला रहा है. लेकिन राजनैतिक प्रभाव के चलते जब भी प्रदूषण की बात होती है कनोरिया के कान ऐंठ कर मामला खत्म कर दिया जाता है. हिंडाल्को का नाम तक नहीं लिया जाता.’
महामारी बनती बीमारी
पर्यावरणीय मानकों की इतनी खुलेआम अनदेखी का दुष्प्रभाव मानवजीवन पर पड़ना लाजिमी है. अंतत: यही वह पैमाना है जिस पर सरकारें और व्यवस्थाएं इस बात का फैसला करती हैं कि किसी स्थान विशेष पर वास्तव में कुछ गड़बड़ है. सोनभद्र के अतिशय औद्योगीकरण वाले इलाकों में हवा, भूस्तरीय और भूगर्भीय जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. इस इलाके में पानी का सबसे बड़ा स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र आज इस कदर प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान ही 25 के करीब बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. म्योरपुर ब्लॉक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधीक्षक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं, ‘रिहंद का पानी पीने वाले गांवों में बीते कुछ महीनों के दौरान असमय मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है. कमरी डाढ़ गांव में अब तक 12 बच्चों की मौत हो चुकी है इसी तरह से एक गांव लबरी गाढ़ा है जहां 13 बच्चों की मृत्यु हुई है. इस संबंध में विस्तृत रिकॉर्ड सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) के पास भेजा जा चुका है.’
बच्चों की मृत्यु के संबंध में सोनभद्र के सीएमओ ने हाल ही में रिहंद जलाशय के पानी का नमूना जांच के लिए उत्तर प्रदेश राज्य स्वास्थ्य संस्थान, लखनऊ भेजा था. इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि नमूने में घातक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 180 गुना तक ज्यादा पाई गई जो हैजा, पेचिश और टाइफाइड फैलाता है यह बैक्टीरिया प्रदूषित पानी में ही होता है. इस बाबत जिलाधिकारी पंधारी यादव का कहना था, ‘गांवों में मौतें हुई हैं, लेकिन पानी की जांच में हमें किसी हेवी मेटल के संकेत नहीं मिले हैं. इस इलाके में वायरल डायरिया का गंभीर प्रकोप है. लोग डॉक्टरों से इलाज करवाने के बजाय ओझाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं. शायद बच्चों की मौतें इसी वजह से हुई हों.’ रिहंद के किनारे बसे 21 गांवों में फ्लोरोसिस की समस्या आज महामारी का रूप ले चुकी है. नई बस्ती गांव में विंध्याचल शर्मा, सीताराम, शीला, रमेश, राम प्रसाद पटेल, कुंज बिहारी पटेल, लल्लू पटेल, कुसमहा गांव में रामप्यारी, कबूतरी देवी, चंपादेवी, सोनू, पार्वती देवी, बीनाकुमारी, उत्तम,संगम आदि फ्लोरोसिस की अपंगता से पीड़ित लोग हैं. इसके अलावा ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनमें फ्लोरोसिस के प्राथमिक लक्षण मौजूद हैं. पिछले 10 सालों के दौरान इस रोग ने अपना दायरा बहुत तेजी से फैलाया है. डॉ गौतम कहते हैं, ‘पहले फ्लोरोसिस की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी. लेकिन जब से कनोरिया केमिकल्स व हाईटेक कार्बन की इकाइयां यहां शुरू हुई हैं तब से ये मामले बहुत बढ़ गए हैं.’ स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि हाल ही में देहरादून स्थित पीपुल साइंस इंस्टिट्यूट ने जब सोनभद्र के 147 गांवों के 3,588 बच्चों में फ्लोराइड के असर की जांच की थी तो 2,219 बच्चे इससे प्रभावित पाए गए थे.
रिहंद के चोपन और म्योरपुर ब्लॉक में फ्लोरोसिस और विषाक्त पानी की समस्या है तो अनपरा में स्थितियां और भी गंभीर हैं. फ्लाइएश के चलते इस पूरे इलाके का भूगर्भीय जल बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. लेड, आर्सेनिक और पारा जैसे खतरनाक रसायन फ्लाइएश से रिस-रिस कर भूगर्भीय जल को विषाक्त कर रहे हैं. इसके अलावा सूखी हुई फ्लाइएश के महीन कण हमेशा हवा में उड़ते रहते हैं जिससे यहां पेट और सांस संबंधी बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है. वाराणसी स्थित हेरिटेज हॉस्पिटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर साल भर पहले ही अनपरा में आकर अपना क्लीनिक खोलने वाले डॉ राज नारायण सिंह बताते हैं, ‘दिन भर में मेरे यहां आठ से दस मरीज जोड़ों के दर्द और ऑस्टियोपोरोसिस के आते हैं. इसका सीधा संबंध लेड और पारे से प्रदूषित पानी से है. लोगों में असमय ही बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं. इसके अलावा दमे के काफी मरीज आते हैं. हर तीन में दो आदमी यहां पेट की बीमारी से पीड़ित हैं.’
डिबुलगंज के आस पास स्थित बैगा आदिवासियों की बस्ती में टीबी की बीमारी छुआछूत की तरह फैली हुई है. गौरतलब है कि यह वही गांव है जो फ्लाइएश के सागर से घिर चुके हैं और इसी के इर्द-गिर्द बने गड्ढों से पानी पीते हैं. इसी बस्ती में 28 वर्षीय सुनील बैगा रहते हैं जिन्हें टीबी है. इलाज के बारे में पूछने पर सुनील कहते हैं, ‘दो-तीन महीने तक दवा खाई फिर बंद कर दिया. पैसा नहीं था.’
नियुक्तियों में वादाखिलाफी
रिहंद बांध को पार करके जैसे-जैसे हम शक्तिनगर की तरफ बढ़ते हैं एक के बाद एक डिबुलगंज, पिपरी, बेलवादर, निमियाडाढ़, परसवार राजा, जवाहरनगर, खड़िया मर्रक, चिल्काडाढ़ आदि गांव आते-जाते हैं. इनमें से किसी भी गांव में घुसने पर इनकी बनावट और बसावट में एक खास तरह की एकरूपता नजर आती है. ठीक मुंबई की किसी झुग्गी बस्ती की तरह.
इन बस्तियों में बेरोजगारों की बहुतायत है. 1980 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनपरा में थर्मल पॉवर संयंत्र लगाने की घोषणा के साथ ही जब एक बार फिर से यहां बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए थे तो उस वक्त सरकार ने सभी विस्थापितों का पुनर्वास और योग्यता के हिसाब से सभी परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी सरकारों और यहां स्थापित कंपनियों में यहां के निवासियों का किसी भी तरह से नियोजन करने की नीयत ही नहीं दिखती. 1980 के बाद से प्रदेश में एक के बाद एक सरकार बदलती रही,अनपरा इकाई अपना दायरा ए, बी, सी से फैलाकर डी तक पहुंच गई लेकिन विस्थापितों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. अनपरा इकाई में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पुनर्वास को लेकर उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल) न तो गंभीर है न इस मामले में उसकी नीयत साफ है.’
[box]‘न तो हमारी कोई जिम्मेदारी है न ही हमने कोई वादा किया है’
अनपरा में इसी साल के अंत में उत्पादन शुरू करने का दावा करने वाले लैंको-अनपरा पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह स्थानीय लोगों के विरोध, फ्लाइएश के प्रबंधन, स्थानीय लोगों के रोजगार से जुड़े सवालों को दंभी अंदाज में झटक देते हैं.
विस्थापितों को नौकरियां देने की कोई योजना है?
हमारी परियोजना टेंडर आधारित परियोजना है. इसमें सरकार हमें कुछ सहूलियतें देने का वादा करती है जिसके आधार पर हम प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाते हैं. लिहाजा इस मामले में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है. मानवीय आधार पर जो कुछ होगा हम करेंगे.
लेकिन लोग तो अपकी फ्लाइएश पाइपलाइन का विरोध कर रहे हैं.
इस तरह के विरोध हमने बहुत देखे हैं. जो कंपनी अरबों रुपये निवेश करती है उसे सब कुछ पता होता है. ऐसे ही कोई काम बंद नहीं हो जाता है. हमने भी इसी इलाके में 25 साल गुजारे हैं.
आप स्थानीय लोगों को कम से कम अस्थायी नौकरियों में तो रख ही सकते हैं? उनमें भी लोगों को क्यों समायोजित नहीं किया जाता है?
देखिए, नौकरी देने की हमारी न तो कोई मजबूरी है न ही हमने किसी से कोई वादा किया है. ये सिरदर्द सरकार और प्रशासन का है. शुरुआत में हमने यहां के लोगों को अपने यहां रखा था. पर इन लोगों ने स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में टूलडाउन स्ट्राइक कर दी. इससे हमारा भरोसा यहां के लोगों पर से उठ चुका है. स्थानीय नेता प्रबंधन को ब्लैैकमेल करने के लिए ऐसा करते हैं.
पर इसमें उन लोगों का नुकसान हो रहा है जिनका जीवन आपके प्लांट से प्रभावित हो रहा है.
देखिए हम कतई किसी को समाहित नहीं करेंगे. ऐसे न जाने कितने आंदोलन यहां हमने देखे हैं, लेकिन काम नहीं रुका है. और आप भी अपनी बात मेरे मुंह में डालने की कोशिश मत कीजिए. आपके मन में जो आए लिख दीजिएगा. मुझे इन चीजों से बाहर निकलना अच्छी तरह से आता है. बहुत होगा तो मेरे सीनियर मुझसे थोड़ा नाराज हो जाएंगे.
(इसके बाद उनसे बात करने की कोई वजह ही नहीं बचती) [/box]
अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब. असल में यहां स्थित यूपीआरवीयूएनएल हो या फिर लैंको या फिर एनटीपीसी, सभी कंपनियों ने अब स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं देने की अलिखित नीति अपना रखी है. कुशल कर्मियों के लिए देश या प्रदेशस्तरीय परीक्षाएं होती हैं और अकुशल कामगार, कंपनियां ठेके पर रखती हैं. ये दैनिक मजदूर झारखंड,उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं. स्थानीय लोगों को नौकरी न दिए जाने के सवाल पर लैंको पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह बहुत दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘शुरुआत में ही स्थानीय लोगों ने हमारा विश्वास तोड़ दिया. ये लोग स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में काम रोक देते थे.’
जल्दी ही इन कंपनियों ने दैनिक मजदूरों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया. अकेले अनपरा की ए,बी इकाइयों और लैंको में इस वक्त कुल मिलाकर 3,000 के करीब दैनिक मजदूर काम करते हैं. यानी कि विस्थापितों के पुनर्वास और समायोजन की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. 2007 में उत्तर प्रदेश विद्युत मजदूर संगठन के अध्यक्ष आरएस राय और यूपीआरवीयूएनएल के तत्कालीन अध्यक्ष अवनीश कुमार अवस्थी के बीच इस संबंध में एक समझौता भी हुआ था जिसमें ठेका मजदूरी में 50 फीसदी स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर सहमति हुई थीं लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया है. आखिर कंपनियां ऐसा क्यों कर रही हैं? पहली नजर में तो मामला नीयत का दिखता है लेकिन किसी मजदूर से और स्थानीय लोगों को थोड़ा विश्वास में लेकर बात करने पर इसकी कुछ नई परतें उघड़ती हैं. ठेका आधारित दैनिक मजदूर असल में कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और करोड़ों रुपए की अवैध कमाई का साधन है.
अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब
दरअसल, कंपनी के अधिकारी ठेकेदार को मजदूरों की व्यवस्था करने और उनके लेनदेन का जिम्मा संभालने का आदेश दे देते हैं. एक दैनिक मजदूर की प्रतिदिन की दिहाड़ी होती है 138 रुपये. मजदूर महीने में 26 दिन काम करता है और महीने के अंत में उसे लगभग 2,500 रुपये का भुगतान ठेकेदार करता है जबकि उसे मिलना चाहिए 3,588 रुपये. इस तरह से प्रति मजदूर करीब 1000 रुपये कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला जाता है. पर कोई भी मजदूर इस बात को स्वीकार नहीं करता क्योंकि अगले ही दिन ठेकेदार उन्हें चलता कर देगा.

नौकरियों पर रखे जाने के सवाल पर अनपरा इकाई के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग के बयान विरोधाभासी हैं. कभी तो वे कहते हैं कि हम डी इकाई में अस्थाई पदों पर स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर विचार करेंगे. और फिर अपनी ही बातों को काटते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने 1994 में एक शासनादेश पारित किया था जिसके मुताबिक अधिग्रहण के सात साल बाद किसी को भी समायोजन का अधिकार नहीं रह जाता है, सिर्फ मुआवजा दिया जाएगा.’ यह पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार हाई कोर्ट में साल 2007 में रखा जबकि स्वयं कंपनी ने लोगों को 1998 तक इस आशय के पत्र दिए हैं कि जब भी कंपनी में रिक्तियां होंगी उन्हें अर्हता के आधार पर समायोजित किया जाएगा. तहलका के पास ऐसे कई पत्रों की प्रतियां हैं. सवाल है,आखिर 1994 में शासनादेश पारित हो जाने के बाद भी अधिकारियों ने लोगों को इस तरह के पत्र किस आधार पर दिए? मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और उत्तर प्रदेश सरकार आज तक इस शासनादेश की कॉपी न तो सुप्रीम कोर्ट को सौंप सकी है न ही आरटीआई दाखिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों को. कमोबेश यही स्थितियां एनटीपीसी के विस्थापितों की भी है. यहां लोगों के पुनर्वास का स्तर तो कुछ हद तक संतोषजनक है लेकिन नौकरियों में सेवायोजन का प्रतिशत महज 33 फीसदी है. स्थानीय लोगों को दरकिनार करके ठेके पर मजदूरों से काम करवाने की प्रथा यहां भी धड़ल्ले से जारी है. स्थानीय लोगों ने भी कमाई का दूसरा जरिया निकाल लिया है. अपने घरों के आधे हिस्सों में लोगों ने दड़बेनुमा कमरे बनवा रखे हैं जिनमें 10-10, 15-15 की संख्या में बाहर से आए मजदूर अमानवीय स्थितियों में किराए पर रहते हैं. अनपरा शक्तिनगर के इलाके में दो पीढ़ियां नौकरी और काम की आस में बैठी रहीं, उन्होंने न तो बाहर का रुख किया न ही वैकल्पिक उपायों को अपनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिस आधुनिक भारत के तीर्थ को बनाने के लिए वे अपने घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और जीविका का बलिदान कर रहे थे वह अपनी संतानों को इतनी आसानी से नहीं दुत्कारेगा. वे गलत थे.
बेमानी जनसुनवाइयां
नई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जनता के बीच जनसुनवाई आयोजित की जाती है. ऊपरी तौर पर तो यह व्यवस्था एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देती है मगर असलियत में यह सिर्फ औपचारिकता भर है. उदाहरण के तौर पर लैंको अनपरा पॉवर प्रा. लि. को ही लेते हैं. श्याम किशोर जायसवाल बताते हैं, ‘हमने 10 अगस्त, 2007 को लैंको परियोजना की जन सुनवाई के दौरान छह बिंदुओं वाली एक मांग सूची जिलाधिकारी को सौंपी थी, लेकिन सरकार ने एक महीने पहले ही लैंको का भूमिपूजन करके वहां निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था.’ यही रवैया अनपरा की ‘बी’ यूनिट के निर्माण के दौरान भी रहा था. जनसुनवाई की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जनता के हस्ताक्षर वाला सहमति पत्र अनिवार्य होता है. मगर प्रशासन ने इसका भी एक रास्ता निकाल लिया है. कार्यक्रम स्थल पर उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना अनिवार्य होता है. और बाद में प्रशासन इसी को सहमति हस्ताक्षर के रूप में पेश कर देता है.
बनारस जाते समय रास्ते भर सड़कों के किनारे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखते हैं. लिखा है, ‘राष्ट्र की सेवा में सतत् समर्पित अ, ब, स ऊर्जा परियोजना.’ मन में एक सवाल उठा, ‘क्या इस देश में भी कई देश हैं?