इस लिहाज से इन चुनावों में कॉरपोरेट मीडिया वह करने में कामयाब रहा जो वह 2004 में नहीं कर पाया था. उस समय इंडिया शाइनिंग अभियान मुंह के बल गिर गया था. हालांकि 2009 में यूपीए की कामयाबी में भी काफी हद तक कॉरपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका थी. उस चुनाव में कॉरपोरेट मीडिया ने जिस तरह से न्यूक्लीयर डील के पक्ष में माहौल बनाया और वामपंथी पार्टियों समेत तीसरे मोर्चे की क्षेत्रीय पार्टियों को विकास विरोधी और सत्तालोलुप साबित करने में कोई कसर नहीं उठी रखी, उससे राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बनाने, छवि निर्मित करने, जनमत गढ़ने और धारणाएं बनाने में उसकी बढ़ती भूमिका दिखने लगी थी.
लेकिन 2014 के चुनावों में एक अहम फैसलाकुन फैक्टर के रूप में बड़े कॉरपोरेट मीडिया की निर्णायक भूमिका साबित हो गई है. वह अब राजनीतिक घटनाक्रम और बदलावों का वस्तुनिष्ठ और तथ्यपरक वर्णनकर्ता भर नहीं बल्कि सक्रिय खिलाड़ी बन चुका है. वह ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ है और जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और गढ़ने के मामले में उसकी बढ़ती ताकत भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.
क्या देश यह घंटी सुन रहा है?
आनंद प्रधान जैसे बड़े बुद्धिजीवियों का आकलन इतना सतही होगा, इसकी उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है। आनंद जी लिखते हैं कि मोदी आरोपों से घिरे हैं, ये बात कौन नहीं जानता है। सच तो ये है कि लोग नरेंद्र मोदी पर लगे आरोपों के बारे में सुन-सुनकर बोर हो चुके थे और उनके बारे में कुछ नया सुनना चाह रहे थे। क्या भारत देश में कोई ऐसा मुख्यमंत्री हुआ जिससे एसआईटी ने घंटों पूछताछ की हो, देश में सैंकड़ों फर्जी मुठभेड़ के मामले सामने आ चुके हैं, क्या उनकी जांच उस तरह हुई, जैसे गुजरात की फर्जी मुठभेड़ों की जांच हो रही है। नहीं ना। देश में हजारों सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं क्या इसके लिए कभी कोई मुख्यमंत्री ने मुकदमे का सामना किया। बिल्कुल नहीं।
जब ऐसे ऐसे आरोप लग चुके हो तो स्नूपगेट जैसा आरोप उनके नाम कहां ठहरता है।
आनंद जी लिखते हैं कि मीडिया में मोदी को चालीस प्रतिशत कवरेज मिलता था और राहुल को महज दस प्रतिशत। आपने कभी सोचने की जहमत उठाई कि राहुल के भाषणों में कितने शब्द होते होते थे और उन शब्दों में कितना वजन होता था। लोग रटी-रटाई बातें सुनकर कितना बोर होते रहेंगे। लोग मोदी की आंकाक्षाओं ओर उम्मीदों से भरी बातों को सुनना चाहते थे। मोदी जानते थे कि पब्लिक क्या सुनना चाहती है। यही वजह है कि मीडिया भी उन्हें कवरेज देती थी।
क्या मीडिया ने कभी मोदी के भाषण के अलावा उनके काम को दिखाया, जवाब है नहीं। अगर कुछ ने दिखाया तो वो नकारात्मक पक्ष, जबकि गुजरात को करीब से देखने वालों ने गुजरात में विकास देखा। उनपर मीडिया की निगेटिव स्टोरीज का को असर नहीं हुआ।
सबसे बड़ी बात यूपीए सरकार के दस सालों का कुशासन, भ्रष्टाचार, महंगाई, घमंड में चूर बेशर्म नेताओं की बयानबाजी, सोनिया, राहुल, मनमोहन की चुप्पी, सालों तक कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं, कोई वार्ता नहीं, रामदेव को पिटवाना, अन्ना को बेइज्जत करना, संवैधानिक संस्थाओं को अपमानित करना, क्या ये कारण कम थे यूपीए को हटाने के लिए।
लोगों को मोदी में एक सशक्त विकल्प मिला जो पिछले बारह सालों से गुजरात में चुपचाप काम कर रहा था, लोगों के आरोपों, घिनौनी साजिशों को झेल रहा था, फिर भी उसने अपने मनोबल को गिरने नहीं दिया।