छह साल पर शून्यकाल

तहलका की हिंदी पत्रिका को छह साल पूरे हो गए. जुलाई या 2007 का अगस्त माह रहा होगा जब मैं प्रभाष जी के पास गया था. हम तहलका की हिंदी वेबसाइट शुरू करने की योजना बना रहे थे. संकर्षण ठाकुर को, जो उस समय तहलका की अंग्रेजी पत्रिका संपादक थे, उतना यकीन नहीं था कि प्रभाष जी वेबसाइट के लिए भी लिखने को तैयार हो सकते हैं. लेकिन, वे न केवल इसके बारे में सुनते ही लिखने को तैयार हो गए बल्कि तुरंत ही अपने स्तंभ का नाम भी बता दिया- औघट घाट.

तहलका की हिंदी पत्रिका अक्टूबर 2008 में शुरू हुई और उसमें अपने दो पन्नों के कॉलम को उन्होंने स्वयं ही नाम दिया- शून्यकाल. इसे अब प्रियदर्शन जी लिखते हैं.

तहलका के इस विशेष अंक का नाम भी हमने शून्यकाल रखा है. ऐसा इसमें मौजूद सामग्री का इस शब्द से कोई विशेष संबंध सोचकर नहीं किया गया है. हालांकि वह भी निकाला ही जा सकता है. तहलका की हिंदी पत्रिका के लिए जो स्तंभ हमने सबसे पहले तय किया था वह शून्यकाल ही था. और प्रभाष जी का इस पत्रिका के लिए लिखना हमें शून्य से शिखर तक पहुंचने जैसी अनूभूति देने वाला भी था.

तहलका के इस विशेषांक में पत्रिका में छपे विशिष्ट लेखकों के चुने हुए आलेख हैं. इसमें प्रभाष जी का मीडिया पर ही लिखा शून्यकाल है तो अनुपम जी का लिखा ‘टनाटन पर्यटन’ जैसे अनुपम शीर्षक वाला वह अग्रलेख भी है जो उन्होंने तहलका के पर्यटक विशेषांक के लिए लिखा था.

तहलका की प्रवृत्ति कुछ ऐसी रही कि इसमें मौजूद आलेखों की स्थिति हमेशा कुछ दबी-दबी सी रही. इसे हमेशा इसकी जमीनी या खोजी या खांटी राजनीतिक पत्रकारिता के लिए जाना जाता रहा. हालांकि तहलका में हमेशा कुछ बेहद उत्कृष्ट और चुनिंदा लेखकों के – जो जरूरी नहीं है कि पत्रिका में लिखते वक्त भी उतने ही नामचीन रहे हों – लेख भी मौजूद रहे.

तहलका ने हरसंभव ऐसी पत्रकारिता करने की कोशिश की जो आलेखों के लिए प्राथमिक स्रोत का काम करने वाली होती है. लेकिन इसमें मौजूद आलेख हमेशा ऐसे स्रोतों से मिली जानकारियों को एक अलग ही धरातल पर ले जाने वाले रहे. किसी एक लेख से इस बात का अनुभव करना चाहें तो प्रियदर्शन का लिखा ‘हुसेन चले गए सरस्वती को बचा लें’ पढ़ा जा सकता है या कोई भी और.

ये आलेख इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें से कुछ ऐसे मुद्दों पर हैं जो अभी भी पहले वाली स्थिति में ही हैं. कुछ इसलिए कि इन्हें आधार बनाकर अन्य जरूरी सामयिक विषयों पर नई दृष्टि अर्जित की जा सकती है. और कुछ केवल भाषाई और लेखन संबंधी जानकारियों पर नई समझ बनाने के लिए भी पढ़े जा सकते हैं. इनमें से कुछ लेख इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये पहली बार पत्रिका में तब छपे थे जब तहलका प्रसार की दृष्टि से न के बराबर था इसलिए ये अपेक्षित संख्या में पाठकों तक पहुंचे ही नहीं.

वैसे इन आलेखों के पुनर्मुद्रण का सही औचित्य इस प्रस्तावना को पढकर समझने से ज्यादा इन लेखों को पढ़कर ही समझा जा सकता है. तो आप इन्हें पढ़े, गुनें और इनका आनंद लेने के बाद इनपर अपनी प्रतिक्रिया दें जो हमेशा की तरह हमारे सर माथे पर होगी.


प्रभाष जोशी

समझ बूझ बन चरना, हिरना

व्यापारिक प्रयोजनों और तटस्थता के बीच संतुलन साधने की कोशिश करते भारतीय मीडिया को सत्ता येन-केन प्रकारेण अपनी ओर झुकाने की कोशिश करती ही रहती है Read More>>

 

हरिवंश

मस्तिष्क और यंत्र

अस्तित्व से जुड़े सवालों तक पर आज गंभीर चिंतन का कोई रिवाज़ ही नहीं. क्या इस तकनीकी दौर ने हमें आत्मसीमित, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आत्मलीन बना दिया है? Read More>>

 

प्रभाष जोशी

तुम कहती हो या मैं कहता हूं

अंग्रेज़ी सोच को हिंदी में परोसने वाले विज्ञापन जगत और बंधे-बंधाए खांचों में गुनगुनाने वाली फिल्मी गीतों की दुनिया में, एक आम भारतीय की भाषा का इस्तेमाल मुश्किल भी था और फलदायी भी Read More>>