असम राइफल्स : सेना में सड़ांध

[vsw id=”9IerSCcQsCM” source=”youtube” width=”425″ height=”344″ autoplay=”no”]

देश के पूर्वोत्तर इलाके में स्थित सात राज्यों, अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा की बात की जाए तो वहां अशांति या कहें तो किसी छोटे-मोटे युद्ध जैसी परिस्थितियां हर वक्त बनी रहती हैं. यहां एक तरफ विद्रोही गुट हैं तो दूसरी तरफ सुरक्षा बल. इनके बीच सालों से चल रहे संघर्ष की आम नागरिकों ने बड़ी कीमत चुकाई हैै. इस मायने और कई सामाजिक आयामों में सुदूर उत्तर-पूर्व के ये राज्य शेष भारत से काफी अलग हैं. पर तहलका की हालिया तहकीकात बताती है कि कम से कम एक मामले यानी भारतीय संस्थानों की व्यवस्थागत बुराइयों में यहां तैनात संगठन भी शेष भारत से अलग नहीं हैं. हम भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैैं. छिपे हुए कैमरों से जरिए की गई हमारी पड़ताल बताती है कि इस इलाके में अशांति दूर करने के लिए तैनात असम राइफल्स में भ्रष्टाचार नीचे से लेकर ऊपर तक, हर स्तर पर है.

अतीत में भी देश के इस सबसे पुराने अर्द्धसैन्य बल पर विवेकाधीन फंड के दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं. तहलका ने अपने छिपे कैमरे के जरिए यह खुलासा किया है कि कैसे असम राइफल्स के कुछ अधिकारी निर्माण कार्यों के लिए जारी निविदाओं आदि को आसानी से पास करने के लिए ठेकेदारों से हिस्सा ले रहे हैं. असम राइफल्स में अनेक अधिकारी सेना से प्रतिनियुक्ति पर आते हैं. तहलका को अपनी पड़ताल में यह भी पता चला कि ये अधिकारी जब वापस अपने मूल संस्थान में लौटते हैं तो इनके पास अकूत अवैध संपत्ति जमा हो जाती है. चौंकाने वाली बात यह है कि सुरक्षाबल में यह काम संगठित तरीके से अंजाम दिया जा रहा है. इस रैकेट में क्लर्क और उच्चाधिकारी तक सभी समान रूप से शामिल हैं.

मुश्किल लड़ाई मोर्चों पर तैनात जवानों की जान हमेशा जोखिम में रहती है जबकि उनके अधिकारी पैसा बनाने में लगे रहते हैं. फोटोः एएफपी

imgयह कैसे होता है
हर वित्त वर्ष में केंद्र सरकार सुरक्षा बलों के लिए बजटीय आवंटन करती है. इस वर्ष (2014-15) के बजट में असम राइफल्स को 3,580 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. इससे पहले के दो सालों में यह आवंटन क्रमश: 3,358 करोड़ और 2,966 करोड़ रुपये था.

सालाना बजट में जिन निर्माण परियोजनाओं का उल्लेख होता है उनका क्रियान्वयन निविदाओं के जरिए किया जाता है. हर स्तर पर अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें हर प्रस्ताव (निर्माण ठेके के लिए) को एक जगह से दूसरी जगह भेजते समय उनके हिस्से का पैसा मिले. रिश्वत देने वाले ठेकेदार बताते हैं कि किसी भी परियोजना की लागत अधिकारियों की जेब भरने के क्रम में सीधे 30 फीसदी तक बढ़ जाती है. इसका असर निर्माणकार्य की गुणवत्ता पर पड़ता है. असम राइफल्स में हालात इतने खराब हो चुके हैं कि अधिकारी अपने कार्यालयों में खुले आम रिश्वत लेने से नहीं हिचकते.

इन भ्रष्ट सैन्कर्मियों के काम करने का तरीका एकदम साधारण है. जब भी कोई ठेकेदार असम राइफल्स के प्रशासन और उसकी निगरानी वाले इलाके में किसी निर्माण कार्य के लिए निविदा भरता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह एक खास नेटवर्क से संपर्क करेगा. इसके जरिए ही हर स्तर पर धन पहुंचाया जाता है. लूट का माल छोटे क्लर्कों से लेकर महानिदेशक तक बंटता है. महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल के रैंक के अधिकारी हंै. बड़े अधिकारी सीधे नकदी नहीं लेते हैं बल्कि उनके लिए उनके अधीनस्थ अधिकारी धन लेते हैं.

एक पुराना ठेकेदार जो इस काम में पिछले सात सालों से है, उस दिन को याद करके अफसोस करता है जब उसने इस पेशे में आने की ठानी थी. यह अफसोस स्वाभाविक है. अगर कोई निविदा एक करोड़ रुपये की है तो करीब 30 फीसदी यानी 30 लाख रुपये यह सुनिश्चित करने में खर्च करने पड़ते हैं कि आगे कोई गतिरोध न आए और पूरा काम सहज ढंग से संपन्न हो. दूसरे शब्दों में कहें तो परियोजना की 30 फीसदी राशि काम शुरू होने के पहले ही खर्च हो जाती है. वह ठेकेदार कहता है, ‘प्रस्तावित निविदा का 30 फीसदी हिस्सा असम राइफल्स के विभिन्न अधिकारियों को देना पड़ता है. कई बार तो यह राशि 35 फीसदी तक हो जाती है. हमें बचे हुए पैसे से ही कच्चे माल, श्रमिकों और मुनाफे का जुगाड़ करना होता है.’ स्पष्ट है कि इसका असर काम की गुणवत्ता पर पड़ता है.

ठेकेदार आगे समझाता है, ‘पहले आप एक निविदा भरते हैं ताकि वह पास हो जाए. वह शिलॉन्ग जाती है. वहां आपको पांच से आठ फीसदी रिश्वत देनी होती है. अगर आप रिश्वत नहीं देंगे निविदा वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगी. आपकी परियोजना शुरू होने के पहले ही समाप्त हो जाएगी. लब्बोलुआब यही कि किसी भी हालत में 30 फीसदी राशि देनी ही होगी. कुल खर्च 30 फीसदी है लेकिन रिश्वत की राशि एक बार में नहीं देनी होती. वह चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ती है. पहले निविदा के स्तर पर, फिर बिलिंग के स्तर पर और इसी तरह आगे. इसका एक बड़ा हिस्सा विशेष अधिकारी के पास जाता है, जहां से निविदा आरंभ होती है.’

ठेकेदार
असम राइफल्स के साथ कुल मिलाकर 543 ठेकेदार पंजीकृत हैं. मोटेतौर पर उनकी पांच श्रेणियां हैं. उनको स्पेशल, ए, बी,सी और डी श्रेणियों में बांटा गया है. यह वर्गीकरण पैसे के आधार पर किया जाता है. जो स्पेशल यानी खास श्रेणी में होते हैं, वे ऐसी परियोजनाओं में शामिल होते हैं जिसमें बेशुमार पैसा होता है. ए और बी श्रेणी में वे ठेकेदार होते हैं जो क्रमश: दो करोड़ और एक करोड़ रुपये तक की परियोजनाओं के लायक होते हैं. सी और डी श्रेणी में इससे कम पैसे वाले ठेकेदार होते हैं. नए ठेकेदार स्वत: डी श्रेणी में आते हैं. बाद में उनको उनके प्रदर्शन के मुताबिक आगे बढ़ाया जाता है.

Opration Hilltop-1

[box]

साड़ी, केक और स्कॉच

असम राइफल्स पर सरकारी फंड के हेरफेर के आरोप नए नहीं हैं. दस्तावेज बताते हैं कि सरकारी पैसे का सबसे ज्यादा दुरुपयोग गृह मंत्रालयों और सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को तोहफे देने के लिए किया गया है. इनमें साड़ियों से लेकर केक, मिठाई और स्कॉच की बोतल तक शामिल हैं. इन सामानों के लिए खर्च किया गया पैसा असम राइफल्स के विवेकाधीन फंड से आता है. हालांकि विवेकाधीन फंड के तहत भी पैसे का इस्तेमाल अर्द्धसैन्यबल के कल्याण कार्याें और अन्य जरूरतों  के लिए ही खर्च किया जाना चाहिए. इस साल के बजटीय प्रावधानों में असम राइफल्स को 3,580 करोड़ रुपये  आवंटित किया गया है. खबरें हैं कि विवेकाधीन फंड जो अर्द्धसैन्यबल के महानिदेशक (डीजी) के जिम्मे होता है, से लगभग हर दिन पैसे का दुरुपयोग किया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस फंड के तहत एक अधिकारी के निजी खर्च, विशेषतौर पर उनकी पत्नी के लिए 23 हजार रुपये  खर्च किए गए थे. सेना मुख्यालय द्वारा इस मामले की शुरुआती जांच के दौरान दस्तावेजों की सत्यता की पुष्टि हुई है.

[/box]कैसे होता है बंटवारा

अवैध रूप से हासिल की गई धनराशि को बांटने का तरीका एकदम व्यवस्थित है. पांच फीसदी पैसा उस क्षेत्र को जाता है जहां परियोजना होनी होती है. कुछ मामलों में तो यह राशि 10 फीसदी तक होती है. इसके अलावा पांच फीसदी धन राशि डीजीआर (पुनर्वास महानिदेशक या डायरेक्टर जनरल रीसेटलमेंट) को जाती है. इसके बाद उस यूनिट को पांच फीसदी जहां बिल जाता है. जब बिल संबंधित क्षेत्र में वापस आता है तो तीन फीसदी राशि अधिकारियों को दी जाती है और पांच फीसदी अन्य राशि डीजीआर को. आखिर में सात फीसदी मूल्यवर्धित कर (वैट) भी इस खर्च में जुड़ता है. इस तरह कुल मिलाकर 30 फीसदी राशि खर्च हो जाती है. इसके अलावा एक फीसदी राशि लेखा विभाग को भी देनी होती है क्योंकि पैसा वहीं से जारी होता है.

ऑपरेशन ‘हिलटॉप’
इसकी शुरुआत सी श्रेणी के एक ठेकेदार के साथ हुई जो असम राइफल्स के लिए काम करता था. केरल निवासी सीसी मैथ्यू नाम के इस शख्स ने तहलका से संपर्क किया. मैथ्यू एक भूतपूर्व जवान हैं और वे असम राइफल्स के भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहते थे. तहलका से संपर्क करने से पहले वे विभिन्न मीडिया संस्थानों के पास मदद के लिए गए लेकिन उनको हर जगह से निराश होकर लौटना पड़ा. इसके बाद तहलका की विशेष खोजी टीम ने इस व्हिसलब्लोअर का साथ देने की ठानी.

बीते साल इस ठेकेदार ने मणिपुर के तमांगलॉन्ग जिला मुख्यालय में एक शेल्टर खड़ा किया था. 24 लाख रुपये के इस अनुबंध में वह निविदा लेने के लिए ही 16 फीसदी राशि रिश्वत के रूप में दे चुका था. अब वह 18 फीसदी और राशि रिश्वत के रूप में अधिकारियों को देने जा रहा था ताकि उसका बिल पास हो सके. इस बार तहलका का यह संवाददाता, मैथ्यू का रिश्तेदार बनकर उनके साथ गया और देश के इतिहास में पहली बार सैन्य वर्दियों में सजे अधिकारी कैमरे पर रंगे हाथ रिश्वत स्वीकार करते पकड़े गए! इसमें एक कर्नल और दो लेफ्टिनेंट कर्नल शमिल थे. स्तब्ध करने वाली बात यह है कि असम राइफल्स के प्रमुख ने भी अप्रत्यक्ष रूप से अपने अधीनस्थ के जरिये अपना हिस्सा लिया. जूनियर कमीशंड ऑफिसर एच देब ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के लिए धन लिया. इन अधिकारियों में डीजी, एडीजी और चीफ इंजीनियर शामिल थे.

देब: मुझे तीन (हजार) और दीजिए.
ठेकेदार: सर प्लीज, तीन रहने दीजिए.
देब: मुझे देना होगा, प्लीज समझिए.
ठेकेदार: (हंसता है)
देब: मुझे लिंबू (सूबेदार, इंजीनियर जेसीओ) और अन्य लोगों को देना होगा. इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो पांच फीसदी लेते हैं.

peeहमारा स्टिंग ऑपरेशन क्लर्क कर्मचारियों के साथ शुरू हुआ और एकदम शीर्ष तक पहुंचा. सूबेदार गौतम चक्रवर्ती ने न केवल बिल पास करने के लिए अपना हिस्सा लेने पर जोर दिया बल्कि उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि ठेकेदार एक पुरानी परियोजना के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल कक्कड़ का बकाया पैसा भी दे जिनका अब दूसरी जगह स्थानांतरण हो चुका है. लेफ्टिनेंट कर्नल कक्कड़ की ओर से पैसा लेने के बाद चक्रवर्ती ने उनको फोन करके ‘अच्छी खबर’ भी दी.

चक्रवर्ती: आपको देना है तो दो नहीं तो भूल जाओ
चक्रवर्ती : (फोन पर) सर एक अच्छी खबर है. मैथ्यू ने आपके हिस्से के 20 हजार दे दिए. (उसके बाद वह फोन मैथ्यू को दे देता है)
ठेकेदार मैथ्यू (फोन पर): सर 30 लाख के बिल में जो भी बकाया था वह सब दे दिया.

एक अधिकारी जिसकी पहचान लेफ्टिनेंट कर्नल गोगोई के रूप में हुई वह मैथ्यू को निर्देश देता है कि वह पैसा उसके अधीनस्थ को सौंप दें.

लेफ्टिनेंट कर्नल गोगोई: यहां काम करना थोड़ा मुश्किल है. थोड़ी जुगत भिड़ानी पड़ती है… मेरा हिस्सा उन साहब को दे दो (एक व्यक्ति की ओर इशारा)

इस पर सूबेदार पी लिंबू अपने वरिष्ठ अधिकारी तथा अपने हिस्से का पैसा लेते हैं.

सूबेदार लिंबू: (पैसा लेते हुए) सर ने क्या कहा?
ठेकेदार: सर ने यह हिस्सा आपको देने को कहा.

बी के सरकार असम राइफल्स के महानिदेशालय के भुगतान और लेखा कार्यालय में वरिष्ठ लेखा अधिकारी हैं. यह लेखा विभाग का सबसे बड़ा पद है. जिस वक्त तहलका की टीम उनके केबिन में घुसी उन्होंने ठेकेदार मैथ्यू के सारे बिल निकाले और अपने हिस्से के पैसे का हिसाब लगाया और कहा कि पहले उनका बकाया निपटाया जाए.

तहलका की पड़ताल से यह भी पता चलता है कि बीते सालों के दौरान इनमें से कुछ अधिकारियों ने अवैध रूप से बहुत अधिक संपत्ति एकत्रित कर ली है. सूत्रों के मुताबिक असम राइफल्स के एक वरिष्ठ अधिकारी कथित तौर पर पूर्वोत्तर में इसी अवैध कमाई से एक पांचसितारा होटल बनवा रहे हैं.

तहलका को मिली जानकारी के मुताबिक इंफाल के करीब एक शिविर को जल्द ही खाली कराया जा रहा है ताकि एक नया शिविर बनाने के लिए परियोजना को मंजूरी दी जा सके. ऐसा करके और अधिक धन बनाया जा सकेगा. इसी तरह अनेक ऐसी परियोजनाएं हैं जो फिजूल में चल रही हैं.

एक और स्तब्ध करने वाली बात यह है कि एक ठेकेदार ने असम राइफल्स के शिविर के भीतर ही अपना गोदाम बना रखा है. उसका दावा है कि उसने डीआईजी की मंजूरी ली है. इसका इस्तेमाल निर्माणा सामग्री तथा अन्य उपकरण रखने के लिए किया जाता है. हालांकि नियमानुसार किसी शिविर का इस्तेमाल ऐसे काम में नहीं किया जा सकता. यह पूरी तरह अवैध है. एक ठेकेदार सुरेश ने तो कैमरे पर ही यह भी स्वीकार किया कि उसने इस संवेदनशील क्षेत्र में डीआईजी की इजाजत से यह निर्माण अपने निजी इस्तेमाल के लिए किया है.

ठेकेदार सुरेश: यह पूरा इलाका एकदम शुरुआत से ही हमने बनाया है. मैंने यह इलाका ले रखा है, मुझे इसके लिए डीआईजी की अनुमति हासिल है.

[box]

उत्तर-पूर्व के रक्षक

अंग्रेजों ने 1835 में असम में एक अर्द्ध सैन्यबल की स्थापना की थी. इसका काम था कछारी जमीन को पहाडों पर वास करने वाली ‘जंगली जनजातियों’ से बचाना. इसे बीच में बल को कई नाम दिए गए जैसे असम फ्रंटियर पुलिस (1883), द असम मिलेटरी पुलिस (1891) और ईस्टर्न बंगाल एंड असम मिलेटरी पुलिस (1913). प्रथम विश्व युद्ध में इस बल के योगदान के बाद इसे 1917  में असम राइफल्स नाम दिया गया. क्षेत्र में असम राइफल्स से जुड़ाव के कारण इस बल को  ‘उत्तर-पूर्व के रखवाले’ और  ‘पहाड़ी लोगों के मित्र’ जैसे नामों से नवाजा जाता रहा है. आज असम राइफल्स में 46 बटालियन हैं और इन्हें आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ भारत-म्यांमार सीमा की रखवाली की जिम्मेदारी दी गई है.

[/box]

अतीत में भी असम राइफल्स के ताकतवर और रसूखदार लोगों पर वित्तीय अनियमितताओं के इल्जाम लगते रहे हैं लेकिन वे मामले किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सके. इससे खुफिया विभाग और सतर्कता विभाग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं. लेकिन एक सवाल जिससे हर किसी को चिंतित होना चाहिए वह यह कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर इन लालची अधिकारियों का भरोसा कैसे किया जाए? क्या देश बाहरी दुश्मनों के नापाक इरादों से सुरक्षित है?

इन अवैध गतिविधियों का असम राइफल्स जैसी संस्था पर असर पड़ना तय है. भ्रष्टाचार में जो लोग शामिल हैं वे मूलरूप से डेस्क पर यानी कार्यालय में काम करने वाले हैं. इनमें क्लर्क, जेसीओ, इंजीनियर और अन्य अधिकारी हैं. इनके विपरीत अशांत माहौल में अपनी जान जोखिम में डालकर विद्रोहियों से लोहा लेने वालों को इन कार्यालयीन कर्मियों की तुलना में कम वेतन मिलता है.

हो सकता है असम राइफल्स के जवानों के लिए विपरीत परिस्थितियों में विद्रोहियों से मुकाबला अब भी आसान हो. लेकिन उनका मनोबल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सरकार इस संस्थान में अमरबेल की तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जल्दी से सख्त कदम उठाए.

[email protected]

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here