कथा और पूर्वकथा

‘चल आ. खाना खा ले. छोड़ ये बेकार के धंधे. बैल तो चलते ही रहेंगे. यही काम है उनका.’

‘तू भी तो बैलों जैसा ही है. एक घंटी तू भी बांध ले.’ खैरू ने मजाक किया.

शाम को खैरू पनघट पर पहुंच गया, प्यास लगी थी लेकिन किसी को फुर्सत कहां कि उसे पानी पिलाए. एक को जाके दाल बघारनी थी. तो दूसरी आटा गूंथकर आई थी. तीसरी को बीमार मां की फिक्र थी. एक नींबू से गागर गांज रही थी. दो-तीन मिलकर पानी खींच रही थीं. खैरू एक तरफ बैठ गया. झोले से उसने कुछ रंग निकाले और एक मटकी पर बेल बूटे बनाने लगा.

‘खैरू!’

लड़की ने मुड़कर देखा लेकिन मटकी उसके हाथ से ले नहीं सकी. बस यही तो मुश्किल थी. खैरू के सारे काम फालतू थे. उसे मना करते हुए भी रोक नहीं पाते थे, हां बहुत तरस आता तो ‘बेचारा’ कहके चुप हो जाते. लेकिन इस गांव में काम भी नहीं रुका. जैसे ही मटकी की बारी आई, उसने खैरू की गोद से मटकी ले ली. खैरू भी माहिर हो चुका था. वो काम के बीच, उन्हीं छोटे-छोटे वक्फों में अपनी जगह बनाता रहता था.

एक बार हीरा जुलाहे के यहां ठहर गया. हीरा खेस बुन रहा था. खैरू बहुत देर तक खड़ा देखता रहा. और ताने की आवाज सुनता रहा.

‘धुतंग तुंग! धुतंग तुंग! धुतंग तुंग!’ और फिर गांव भर घूमता रहा- गाता हुआ.

‘धुतंग तुंग! धुतंग तुंग!’

‘उस दिन मुखिया ने कहा इसका दिमाग चल गया है.’

अगले दिन खैरू फिर वहीं था हीरा के यहां-

‘हीरा चाचा तुम हर रंग के तागे क्यूं बनाते हो? दो-दो तीन-तीन रंगों के तागे क्यों नहीं मिलाते?’

‘मेरा दिमाग अभी चुका नहीं ना-इसलिए.’

‘लेकिन चाचा वो देखने में अच्छा लगेगा.’

‘खेस बिछाने को होता है. देखने को नहीं.’

बेचारा क्या समझाता. हीरा की बेटी, बरखा सूत की टोकरी संभाले सामने खड़ी थी. वो हंस पड़ी. टोकरी रखते-रखते बरखा के बाल कंधे पर बिखर गए. फिर बरखा जब जूड़ा गूंथती हुई अंदर गई तो खैरू पता नहीं किस बात से शर्मा गया.

‘बरखा’ उसने साफ नाम से पुकारा. बरखा पलट कर खड़ी हो गई.

‘मुझे थोड़ा सा सूत देगी?’

‘तो क्या करेगा?’

‘तेरे लिए परांदी बनाऊंगा.’ खैरू जितना शर्मीला था उतना ही बेशर्म बोला-

‘लेकिन एक रंग की नहीं- सब रंगों की चूनी दे दे.’

बेचारे को बहुत दिन आना पड़ा, वो सब रंग जमा करने. और जिस दिन सब चूनियां मिल गईं तो सारा दिन बड़े बरगद के नीचे बैठ परांदी बनाता रहा, और गाता रहा- ‘धुतंग तुंग- धुतंग तुंग’

सब हंसकर गुजर गए. सिर्फ उस स्कूल मास्टर ने जाते-जाते पूछा था.

‘ये क्या कर रहा है खैरू?’

एक मिनट तो चुप रहा फिर हंसकर जवाब दिया.

‘घने-घने बादलों के लिए परांदी बुन रहा हूं.’

काम करते तो उसे सचमुच किसी ने नहीं देखा. लेकिन यूं भी नहीं देखा कि जब वो कुछ न कर रहा हो.

सुबह रहट से लेकर रात चौपाल पर आने तक पता नहीं वो कितनी बार गांव से घूम जाता. हजार बार किसी दरवाजे के आगे से गुजरने के बाद अचानक एक दिन उसी दरवाजे पर रुक जाता. झोले से चाकू निकालकर फौरन उस पर कोई तस्वीर खोद देता. कहीं हिरन. तो कहीं स्वास्तिक का निशान बना देता. उस एक झोले के अलावा उसकी और कोई पूंजी नहीं थी, पर घूमता वो इस तरह था जैसे सारे गांव का मालिक हो. जिस जगह जी चाहा ठहर गया. जिस तरह जी चाहा, चल दिया. जिसने बर्दाश्त कर लिया, उसके पास बैठ गए. किसी ने हटा दिया तो वहां से उठ गया. किसी ने कुछ दिया तो अपना लिया, किसी ने कुछ मांगा तो सौंप दिया. दूर का सफर और कहीं का सफर नहीं!

और आधी रात जब सब सो जाते, वो अपनी आवाज से सारे गांव को जगा देता. नाक सिकोड़ कर लिहाफ झटककर फिर कोई करवट ले लेता.

वो जो धीरे-धीरे आ रहा था, एक दिन अचानक सामने  आ पहुंचा. कब तक कोई उसे मुफ्त में रोटी देता. उसके लिए गर्म-सर्द कपड़ों का ध्यान रखता?

खैरू फिर बीमार रहने लगा, मगर अपने रंगों में सारे दुख छुपाए रहा. चुपचाप सहता रहा, और एक दिन मुखिया नींद से उठकर चौपाल चला आया.

‘हरामखोर’ एक ही थप्पड़ में बेचारा खैरू जमीन पर आ गिरा. खिड़कियां जो खुली थी, वो भी

बंद हो गई.

उस सुबह लगभग हर शख्स चौपाल से होकर गुजरा. खैरू कहीं नहीं था. उसका झोला वैसे का वैसा ही लटका हुआ था. लोग एक-दूसरे से पूछते रहे. किसी ने रहट पर भी नहीं देखा.

खूतों पर भी नहीं, पनघट पर भी नहीं. पहली बार लोगों ने दरवाजों के ‘मोर’ टटोले. पहली बार ममदू ने हल रोककर बैलों की घंटियां छूकर नहीं देखी. किसी ने पनघट पर आह भरके मटकी गोद में ले ली. काम जो कभी नहीं रुका था, आज कदम-कदम पर रुककर इंतजार कर रहा था. खैरू का नाम जैसे होंठों से उठकर आंखों में आ गया.

रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी. चौपाल पर बस एक अकेला झोला लटका हुआ था. और उस आवाज के बगैर सारा गांव जाग रहा था.

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2 COMMENTS

  1. Dada, yah lekh Gulzar sahb ke vyaktitva ki samgrta ko bata pata hai. GULZAR jaise rachanakar par di gayi jankari abhinav hai asp ko salam.

  2. सलाम । सलाम । सलाम । सलाम । सलाम । सलाम ।
    प्रिय अशोक ‘ दा ,
    बधाईयाँ और बहुत बहुत बधाईयाँ ।

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