गाजा संकट से उपजे सवाल

मनीषा यादव
मनीषा यादव

गाजा पट्टी में एक बार फिर निर्दोष नागरिकों का खून बह रहा है. हर दिन मरनेवालों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. जुलाई के दूसरे सप्ताह से फलीस्तीनी इलाकों पर जारी अंधाधुंध इजरायली हवाई हमलों में अब तक एक हजार से ज्यादा फलीस्तीनी मारे जा चुके हैं और छह हजार से ज्यादा घायल हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानवीय मामलों की समन्वय समिति (यूएनओसीएचए) के मुताबिक, मारे गए लोगों में 760 से अधिक निर्दोष नागरिक हैं जिनमें से 362 महिलाएं या बच्चे हैं. समिति के अनुसार, ‘गाजा पट्टी में नागरिकों के लिए कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है.’

यानी गाजा पट्टी और फलीस्तीनी नागरिक पिछले कुछ वर्षों की सबसे गंभीर मानवीय त्रासदी से गुजर रहे हैं. दूसरी ओर, दुनिया के अनेकों देशों में इजराइली हमलों के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन हुए और हो रहे हैं. जाहिर है कि यह खबर दुनिया-भर के न्यूज मीडिया- चैनलों और अखबारों में छाई हुई है. यूक्रेन में मलेशियाई यात्री विमान के मार गिराए जाने और ईराक में इस्लामी विद्रोहियों की सैन्य बढ़त जैसी बड़ी खबरों के बावजूद गाजा में इजरायली हमले की खबर दुनिया-भर में सुर्खियों में बनी हुई है. खासकर विकसित पश्चिमी देशों के बड़े समाचार समूहों के अलावा कई-कई रिपोर्टर और टीमें गाजा और इजरायल से इसकी चौबीसों घंटे रिपोर्टिंग कर रही हैं. चैनलों पर लगातार चर्चाएं और बहसें हो रही हैं. अखबारों में मत और टिप्पणियां छप रही हैं. पश्चिमी देशों के अलावा अरब देशों के अल जजीरा जैसे चैनलों के अलावा चीन सहित कई विकासशील देशों के चैनल और अखबार भी अपने संवाददाताओं के जरिये गाजा संकट की लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और खुद के लिए सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की मांग कर रहे भारत के अखबार और चैनल गाजा संकट को कैसे कवर कर रहे हैं?

हालांकि भारतीय अखबारों और चैनलों में भी यह खबर लगातार चल और छप रही है लेकिन उस तरह कवर नहीं हो रही जैसे पश्चिमी देशों या अल जजीरा जैसे चैनल और चीन जैसे देशों का न्यूज मीडिया इसे कवर कर रहा है. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि किसी भी चैनल या अखबार ने गाजा में अपने रिपोर्टर या कैमरा टीमें नहीं भेजीं. आखिर क्यों? यही नहीं, दो सप्ताह से जारी संघर्ष और हमलों की रिपोर्टें ज्यादातर मौकों पर चैनलों की फटाफट या न्यूज हंड्रेड में ‘रूटीन खबर’ की तरह शामिल की गईं. अखबारों में उन्हें अंदर के पन्नों में जगह मिली.

बिना अपवाद सभी अखबार और चैनल पश्चिमी एजेंसियों और अखबारों की रिपोर्टों को छापते/दिखाते रहे. इन रिपोर्टों और विश्लेषणों में दबे-छिपे और कई बार खुलकर इजरायल के पक्ष में झुका पश्चिमी नजरिया और झुकाव साफ देखा जा सकता है. हालांकि भारतीय जनमत का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक रूप से फलीस्तीन के साथ रहा है और इजरायल के रवैय्ये की आलोचना करता रहा है. अफसोस कि भारतीय संसद में गाजा मुद्दे पर चर्चा कराने को लेकर विपक्ष और सरकार के बीच हुई तकरार के बाद कई चैनलों पर हुई बड़ी बहसों/चर्चाओं में भाजपा/शिव सेना के प्रतिनिधियों की मौजूदगी के कारण जाने-अनजाने एक सांप्रदायिक अंडरटोन भी दिखाई पड़ा.

कहने की जरूरत नहीं है कि एक बार फिर भारतीय न्यूज मीडिया गाजा जैसी बड़ी वैश्विक त्रासदी की खबर को स्वतंत्र और सुसंगत तरीके से कवर करने में नाकाम रहा. और गाजा ही क्यों, ईराक में कट्टर इस्लामी संगठन- आईएसआईएस की बढ़त और यूक्रेन संकट जैसे वैश्विक महत्व की खबरों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट और व्यापक कवरेज के मामले में भारतीय न्यूज मीडिया का बौनापन साफ दिख जाता है. भारत को वैश्विक महाशक्ति का दर्जा देने का राग अलापनेवाला भारतीय न्यूज मीडिया अपने दर्शकों/पाठकों को वैश्विक महत्व के बड़े मसलों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट रिपोर्टिंग और विश्लेषण पेश करने का साहस और तैयारी कब दिखाएगा?