‘वॉट्सऐप या मेल पर तलाक कैसे दे सकते हैं? क्या अल्लाह बैठकर वॉट्सऐप चेक कर रहे हैं कि किसने किसे क्या भेजा है?’

साभार : बीएमएमए
साभार : बीएमएमए
साभार : बीएमएमए

तकरीबन सारी दुनिया में, जिसमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं, तीन तलाक का मौजूदा स्वरूप समाप्त हो चुका है. मेरा तो मानना है कि मुल्क में महिलाओं के लिए बराबर का अधिकार होना चाहिए. उनके लिए सक्रिय कानून होने चाहिए, जो एक स्तर पर हैं भी कि अगर आप चाहें तो उसके तहत विभिन्न कानून की धाराओं का इस्तेमाल करके कोर्ट जा सकते हैं. लेकिन अगर हम इस्लाम को भी नजर में रखकर देखें तो इस्लाम के अंदर या कुरान के अंदर तीन तलाक का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है. ये तो जिस वक्त मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाया गया, उसमें इसका प्रावधान किया गया और इसे बनाने वाले कौन हैं? वे सब के सब पितृसत्तात्मक सोच वाले मर्द हैं.

हमारे पास घरेलू हिंसा के या आपसी विवाद के मामले आते हैं तो हम पहले दोनों के साथ बैठकर बातचीत करते हैं और सुलझाने की कोशिश करते हैं. अगर लगता है कि सुलझ रहा है तो लिखित में जिम्मेदारी लेने को कहते हैं. यही व्यवस्था कुरान में भी है कि पहले पति-पत्नी खुद सुलझाने की कोशिश करें. नहीं हो पाता तो दोनों तरफ के गवाहों से साथ बैठकर बातचीत हो. तब भी सुलह नहीं हो पाती तो सोचने के लिए दो महीने का टाइम दिया जाए. तीन तलाक की तीन महीने की प्रक्रिया है. एक ही बार में तलाक-तलाक-तलाक कह देना, इसका तो कोई वजूद ही नहीं है. यह बस बन गया है और अमल में लाया जा रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसे खत्म किया जाना चाहिए. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने 50 हजार लोगों के साइन लिए हैं, यह तो बहुत ही कम लोगों तक पहुंचा है. लाखों महिलाएं हैं जो तीन तलाक को खत्म करने की पक्षधर हैं. धर्म के ठेकेदार धर्म की व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं. जिस वक्त उनको जो सुविधाजनक लगता है, वही बोल देते हैं. वॉट्सऐप पर या मेल पर तलाक कैसे दे सकते हैं? क्या अल्लाह वहां बैठकर वॉट्सऐप चेक कर रहे हैैं कि किसने किसे क्या भेजा है? मर्द वही करता है जो वह करना चाहता है, दो-चार मौलवी भी मिल जाते हैं जो उनको सपोर्ट कर देते हैं. जो पर्सनल लॉ बने वो अंग्रेजों के समय बने. उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसके आधार पर जायज-नाजायज का फैसला दे दिया जाता है.

धर्म के आधार पर समाज चलाना तार्किक तो बिल्कुल नहीं है, लेकिन समान नागरिक संहिता समेत तमाम चीजों का इस्तेमाल देश में सिर्फ राजनीतिक ध्रुवीकरण और माहौल बनाने के लिए किया जाता है. समान नागरिक संहिता का हमेशा उसी तरह इस्तेमाल हुआ है और यह दक्षिणपंथियों व भाजपाइयों ने किया है. जब भी मुसलमानों को गाली देनी हो, समान नागरिक संहिता की बात करने लगते हैं. अगर हम लैंगिक न्याय कानून की बात करें तो ये लोग सबसे पहले भागेंगे. अगर हम समान नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं तो दलितों, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सबके लिए बराबरी की बात कैसे नहीं होगी? लेकिन भाजपा की विचारधारा में तो बराबरी है ही नहीं. वे तो वर्ण व्यवस्था की बात करते हैं. वे समान नागरिक संहिता का सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं. इसका सबसे अच्छा तरीका मैं ये मानती हूं कि हर समाज में समय के साथ सुधार की जरूरत होती है. किसी भी समुदाय में जो भी समस्या है, उस पर आप कानून बनाइए और लागू कीजिए जिसमें विकल्प हो. जैसे, अगर मुसलमान औरत के साथ मारपीट हो रही है तो जरूरी थोड़े है कि वह मुस्लिम पर्सनल लॉ में ही जाए. वो घरेलू हिंसा कानून के तहत कोर्ट में जाए, उसे कोई रोक थोड़े सकता है! बहुत सारी मुसलमान औरतें गई भी हैं और न्याय मिला.

मैंने बच्चा गोद लेने के लिए आठ साल केस लड़ा. मैं हर मुसलमान से यह नहीं कह सकती कि तुम बच्चा गोद लो. लेकिन एक लड़ाई लड़कर एक कानून आ गया. अंडर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में यह बात जोड़ दी गई कि अब कोई भी नागरिक बच्चा गोद ले सकता है. मुसलमान नहीं कर रहा तो नहीं कर रहा है. हो सकता है कि कभी यह डिबेट यहां तक पहुंचे कि बच्चा गोद लेना चाहिए. जब तक नहीं हो रहा, तब तक एक कानून लागू है. जिसको गोद लेना है, उसके लिए कानून मौजूद है. जरूरी है कि हमारे पास नागरिक कानून हों कि जो नागरिक चाहे, उसे इसका फायदा मिले. अभी ऐसा बहुत सारे मामलों में है, बहुत सारे मामलों में नहीं है. जहां तक मर्दों की ओर से तीन तलाक देकर महिला को छोड़ देने का मसला है तो यह ज्यादातर मुस्लिम देशों में भी खत्म हो चुका है. मुझे तो बहुत उम्मीद है कि अब यह केस सुप्रीम कोर्ट में है तो इसका कुछ न कुछ अच्छा ही नतीजा निकलेगा.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

(बातचीत पर आधारित)